मंसूरुद्दीन फरीदी
सहायता आवश्यकता पर आधारित होती है, धर्म पर नहीं. इस विश्वास के साथ मामून अख्तर ने शैक्षिक अभियान की शुरुआत की. इसमें एक यहूदी महिला से 10 हजार रुपये की मदद, एक कमरे तक सीमित स्कूल के लिए पहला सहारा बनी. उसके बाद मुंबई के रमेश कचुलिया ने उन्हें दूसरा बड़ा सहयोग दिया. वहीं एक यहूदी परिवार के रेबेका बेलियस ट्रस्ट की जमीन से उनके सपनों को पर लगे.
इसके बाद मामून अख्तर का एजुकेशनल जिहाद अब इस हद तक पहुंच गया है कि वो बंगाल समैरिटन हेल्प मिशन के रूप में ताकियापाड़ा, हावड़ा से दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगी हैं. इसके तहत अब चार स्कूल चल रहे हैं. साथ ही एक अस्पताल, एक व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र और एम्बुलेंस सेवा में चल रहा है.
अहम बात यह है कि इस स्कूल में पढ़ने वाले 90 फीसदी बच्चे मुस्लिम हैं, जो वंचित और जरूरतमंद परिवारों से आते हैं. गौरतलब है कि हाल ही में एक ब्रिटिश संस्थान ने इसे 100 स्कूलों के शीर्ष 10 में शामिल किया है. इसके साथ दुख की बात यह है कि मामून अख्तर के इस शैक्षिक मिशन को खुद मुसलमानों से कोई ठोस मदद या समर्थन नहीं मिल रहा है.
मामून अख्तर के शिक्षा अभियान ने हावड़ा के निचले और अपराध-ग्रस्त क्षेत्र तकियापाड़ा में एक क्रांति को जन्म दिया है. शिक्षा के नाम पर शुरू हुआ अभियान अब आंदोलन का रूप ले चुका है. अब यह शिक्षा के साथ रोजगार और स्वास्थ्य से भी जुड़ गया है.
इसके तहत स्कूल के बच्चों के माता-पिता को मुफ्त चिकित्सा उपचार दिया जाता है. परिवार की महिलाओं को रोजगार से भी जोड़ा जा रहा है. इसके लिए विभिन्न तरह के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं. उनकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी की जा रही हैं, ताकि उनके बच्चों की पढ़ाई में बोई बाधा न आए.
जिन हाथों ने सहारा दिया
आवाज द वॉयस से बात करते हुए मामून अख्तर ने कहा कि यहूदियों समेत 99 प्रतिशत गैर-मुस्लिमों ने उनके आंदोलन को बढ़ाने में मदद की है. जबकि उच्च कोटि के मुसलमान भी उनसे अब तक दूर हैं. निरूसंदेह अब मुसलमानों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई है, लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि अल्लाह हिंदुओं या मुसलमानों के साथ नहीं, बल्कि इंसानों के साथ है.
तकियापाड़ा के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के मेरे मिशन में पहली मदद एक अमेरिकी राजनयिक की पत्नी ली एलिसन सिबली नामक यहूदी महिला ने की थी. उनमें से किसी ने यह नहीं देखा कि यह अभियान किस धर्म के मानने वालों के लिए है.
मामून अख्तर का कहना है कि 300 वर्गफीट के एक कमरे से शुरू हुआ यह अभियान अब यह कई एकड़ में फैला है. यहां शिक्षा के अलावा महिलाओं के रोजगार और स्वास्थ्य के स्वास्थ्य प्रबंधन के अलावा सिविल सर्विसेज की कोचिंग तक दी जाती है.
आवाज द वॉयस से बात करते हुए मामून अख्तर कहते हैं कि मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे इस तरह की मदद मिलेगी. शुरुआत में व्यक्तिगत मदद मिली थी, लेकिन फिर एक यहूदी परिवार के सहयोग से जमीन हासिल करने में कामयाबी हासिल की.हावड़ा पुलिस ने भी अहम भूमिका निभाई.
सफर शिक्षा विशेषज्ञ तक का
मामून अख्तर जब छोटे थे तो शिक्षा से वंचित रहे. इसके कारण गरीबी भी थी. सुविधाओं का अभाव भी था. लेकिन अहम बात यह थी कि उनके दिल में शिक्षा के जुनून ने हजारों बच्चों के लिए ऐसी छत का इंतजाम किया जहां वे शिक्षा से वंचित न रहें.
वह बच्चा अब 55 वर्षीय मामून अख्तर के नाम से जाना जाता है, जो पश्चिम बंगाल के चार स्कूलों के संस्थापक हैं, जिनमें 6,000 से अधिक बच्चे पढ़ते हैं. मामून अख्तर का कहना है कि मेरे स्कूल में सभी धर्मों के बच्चे पढ़ते हैं.
उनके मुताबिक, हमारा लक्ष्य अगले साल तक बच्चों की संख्या बढ़ाकर 10 हजार करने का है. इनमें से ज्यादातर उन परिवारों से हैं जिनके पिता रिक्शा चलाते हैं या कुली हैं. कुछ बच्चों के पिता जेल में हैं या विकलांग. ऐसे परिवारों के बच्चों को न केवल स्कूल लाया जाता है, बल्कि यह व्यवस्था भी की जाती है कि कोई आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई न छोड़े.
मामून अख्तर ने आवाज द वॉयस से कहा कि हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि किसी भी बच्चे के घर अनाज और राशन की कमी न हो. जरूरतमंदों के घर पर अनाज बांटने की जिम्मेदारी भी हमारी है. बीमारी के मामले में चिकित्सा सहायता भी प्रदान करते हैं.
हाल के दिनों में एक बड़ी खबर आई थी कि समरिटिन मिशन स्कूल को 2022 में यूके की एक शोध संस्था ने दुनिया के 10 अनोखे और प्रेरक स्कूलों में शामिल किया है. यह मामून अख्तर के जीवन में एक और मील का पत्थर साबित हुआ. जिसके बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी ट्वीट कर मामून अख्तर को बधाई दी.
मामून अख्तर की कहानी
आज मामून अख्तर एक बन गए मिसाल हैं. पर उनका जन्म टिकियापाड़ा, हावड़ा, पश्चिम बंगाल में हुआ़. उन्हें स्कूल जाना बहुत पसंद था. वे एक अच्छे छात्र थे. मगर स्थिति के सामने उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.
फिर भी उन्हांेने हार नहीं मानी. उन्होंने एक ट्यूटर की मदद से पढ़ना जारी रखा. 10वीं और 12वीं की परीक्षा प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में पास की. उसके बाद मामून अख्तर ने उसी दिन नर्सरी से कक्षा 1 तक के छात्रों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया था.
वह कहते हैं, मैं एक ऐसे क्षेत्र में बड़ा हुआ जहां अपराध दर बहुत अधिक है. नशीले पदार्थों की तस्करी और कारों और उनके पुर्जों की चोरी सामान्य जीवन का हिस्सा है. महिलाएं और बच्चे अक्सर इन गतिविधियों में शामिल होते हैं.’’
मामून का शैक्षिक संघर्ष
उनका कहना है कि उनके जीवन का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि एक बार स्कूल प्रबंधन ने उन्हें फोन किया और कहा कि फीस नहीं देने के कारण उन्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं दी जाएगी. इस घटना का जिक्र करते हुए ममून अख्तर कहते हैं कि कुछ भी हो जाए किसी भी छात्र को स्कूल की परीक्षा देने से नहीं रोका जाना चाहिए या फीस का भुगतान न करने पर स्कूल से निष्कासित नहीं किया जाना चाहिए.
अगर मेरे पिता फीस नहीं भर सकते थे तो मुझे परीक्षा देने से क्यों रोका गया? अंततः, इस विचार और विचारधारा ने मिशन के गठन का नेतृत्व किया.मामून अख्तर ने ओपन लर्निंग सेंटर से हाई स्कूल पास किया है.
1999 में, उन्हें स्थानीय पुस्तकालय में नौकरी की पेशकश की गई. उनकी पिछली नौकरियों की तुलना में यह काम बहुत आसान था. इसमें केवल चार घंटे का काम शामिल था. इससे उन्हें अपने पड़ोस में बच्चों को पढ़ाने के लिए काफी समय मिल गया. उन्होंने अपनी मां को पुस्तकालय की नौकरी के वेतन का आधा हिस्सा घरेलू खर्च के लिए दिया.
जेब खाली, हौसला बुलंद
बचपन में शिक्षा से वंचित रहने के बाद जब मामून अख्तर ने एक स्कूल का सपना देखा, तब भी उनके पास आजीविका का कोई स्थायी स्रोत नहीं था. वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि बच्चों को शिक्षा के लिए निराश न करें.उन्होंने कक्षाएं लेनी शुरू कर दी. आस-पड़ोस से अखबार और पुरानी किताबें इकट्ठा करना शुरू किया.
उन्होंने इन बच्चों को पढ़ाने के लिए कई कॉलेज जाने वाली लड़कियों को इस मिशन से जोड़ा. उन्हें 100 रुपये प्रति माह की पेशकश की. उन्होंने अपने छात्रों से उनकी शिक्षा के लिए प्रति माह 5 रुपये दान करने का भी अनुरोध किया. कहा कि यदि वे इसे वहन नहीं कर सकते, तो वे पांच रुपये के बदले समाचार पत्र और पुरानी पुस्तकें ला कर दें.
वह कहते हैं,मैं नहीं चाहता था कि बच्चे यह विश्वास करें कि वे असहाय हैं, इसलिए उन्हें मदद मिल रही है. उन्हें यह विश्वास करने की आवश्यकता थी कि वे शिक्षित हैं और वे इसके योग्य हैं. तो चाहे वह 1 रुपये हो या 5 रुपये, मैं उनसे भुगतान करने का अनुरोध करता हूं.
मसीहा से मिली मदद
मामून अख्तर जब बच्चों की पढ़ाई के लिए संघर्ष कर रहे थे, तभी दुर्घटना के शिकार बन गए. उन्हांेने बताया, 2003 में, मैंने एक अखबार की कतरन देखी जिसमें तत्कालीन अमेरिकी राजनयिक की पत्नी ने शहर में संगठनों की मदद करने की पेशकश की थी.
मैंने उन्हें पत्र लिखा और मुझे आश्चर्य हुआ कि मुझे ली एलिसन सिबली (अमेरिकी वाणिज्य दूतावास की पत्नी) से 10,000 रुपये मिले. जो मेरे अभियान का पहला बड़ा सहारा बना.पैसों का इस्तेमाल बच्चों के लिए क्लासरूम और शौचालय बनाने में किया गया.
उस समय उन्होंने कोई संगठन नहीं बनाया था. दूसरों की तरह स्वयं को भी स्वयंसेवक मानते थे. उन्हें नहीं पता था कि संगठन कैसे शुरू किया जाए. अंत में उनके दोस्तों द्वारा एक वकील ने सभी आवश्यक जानकारी प्रदान की. पंजीकरण का खर्च पैसे उधार लेकर चुकाया. इस तरह मामून अख्तर ने समरिटिन हेल्प मिशन शुरू किया.
2006 में समारिटन मिशन स्कूल नामक एक सह-शैक्षणिक अंग्रेजी माध्यम संस्थान की स्थापना की गई . 2008 में पश्चिम बंगाल राज्य ने इसे पंजीकृत किया.
एक लेख ने बदल दी जिंदगी
दिलचस्प बात यह है कि जब यहूदी महिला कोलकाता आई, तो उन्हांेने एक पत्रकार को आमंत्रित किया, जिसने शैक्षिक अभियान पर एक रिपोर्ट बनाई, जो दैनिक एशियन एज में नॉट बिलीफ, नेसेसिटी बेस्ड सर्विस शीर्षक से प्रकाशित हुई. इस लेख ने अचानक लोगों को उनके मिशन के प्रति जागरूक कर दिया. मुंबई के रहने वाले रमेश कचुलिया ने लेख पढ़ा और आर्थिक मदद की पेशकश की.
मामून अख्तर का कहना है कि इस पैसे से वे कक्षाओं के दरवाजे और खिड़कियां ठीक कर पाए और कुछ फर्नीचर हासिल किया. 2000 उनसे जो संबंध स्थापित हुआ वह आज भी कायम है. वह अब 80 वर्ष से अधिक के हैं और समर्थन करना जारी रखे हुए हैं. वह मेरे मेंटर हैं जिन्होंने एक पिता की तरह हर कदम पर मेरी मदद और मार्गदर्शन किया.
देवताओं का आशीर्वाद
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मामून अख्तर के अभियान ने बहुत जल्दी सुर्खियां बटोरीं और पूरे भारत के दान के साथ, मामून ने जमीन का एक बड़ा भूखंड हासिल करने में कामयाबी हासिल की, जहां उन्होंने पहला स्कूल बनाया.
उनका कहना है कि पहले बच्चे जमीन पर बैठकर पढ़ाई करते थे. फिर हम उन्हें टेबल-कुर्सी की उचित व्यवस्था करा पाए. हमने वर्दी की शुरुआत की और इससे हर बच्चे में आत्मविश्वास पैदा हुआ.
मामून अख्तर के मुताबिक 2008 तक स्कूल की बिल्डिंग बनकर तैयार हो गई थी. उन्होंने नर्सरी के लिए कक्षा 3 तक के छात्रों के नामांकन के साथ शुरुआत की. हर साल एक नई कक्षा जोड़ी जाती है. 2014 में मामून ने स्कूल को बड़ा और बेहतर बनाने के लिए एक और बड़ा कदम उठाया.
तकियापाड़ा में बेलियस ट्रस्ट एस्टेट का एक खाली प्लॉट था, जो लगभग 150 साल पुराना था. यह स्थानीय गैंगस्टर और ड्रग माफिया के कब्जे में था. पूरे समुदाय और हावड़ा सिटी पुलिस की मदद से, वे अपने उपयोग के लिए दो एकड़ का भूखंड प्राप्त करने में कामयाब रहे.आठ साल बाद, 2016 में, पश्चिम बंगाल बोर्ड ने स्कूल को मान्यता दी.
अब एक शिक्षाविद
मामून अख्तर ने आवाज द वॉयस को बताया कि उन्होंने धीरे-धीरे इस अभियान का दायरा बढ़ाया. बच्चों की पढ़ाई के साथ वे उनके परिवार पर भी नजर रखते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि ज्यादातर छात्र पारिवारिक स्थिति के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं.
उनका कहना है कि अगर हम किसी बच्चे को स्कूल में दाखिला दिलाते हैं तो एक तरह से हम उसके परिवार की जिम्मेदारी उठा लेते हैं. वे अपने घर की महिलाओं को विभिन्न प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों से रोजगार से जोड़ते हैं. बुजुर्गों का निःशुल्क उपचार करते हैं ताकि इन सभी समस्याओं का प्रभाव बच्चों की शिक्षा पर न पड़े.
एक शैक्षणिक संस्थान चलाने की उनकी क्षमता के कारण, हावड़ा नगर निगम ने अपना एक बंद स्कूल उन्हें सौंप दिया. स्कूल को उनके संगठन द्वारा पुनर्जीवित किया गया है.
हम सब साथ हैं
ममून अख्तर ने आवाज द वॉयस से बात करते हुए कहा कि हमने एक ऐसा सिस्टम बनाया है जिसमें केवल जरूरतमंद की पहचान की जाती है. उसका धर्म या जाति नहीं देखी जाती. यही कारण है कि हम हर महीने ऐसे परिवारों को राशन मुहैया कराते हैं, जिन्हें आर्थिक समस्या है.ऐसे परिवारों की संख्या 750 है. जिन माता-पिता को उनके बच्चों ने अकेला छोड़ दिया,
उनकी भी जिम्मेदारी बन गई है. हम 2008 से ऐसे परिवारों और माता-पिता को राशन की आपूर्ति कर रहे है. जब ईद का मौका होता है तो सिर्फ मुस्लिम परिवारों को ही नहीं, गैर-मुस्लिम परिवारों को भी त्योहार के लिए जरूरी सामान मुहैया कराया जाता है. दीवाली और होली पर मुस्लिम परिवारों को तोहफे भेजे जाते हैं.
स्पोर्ट्स अकादमी भी
स्कूल के साथ-साथ, मामून ने एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और एक व्यावसायिक केंद्र स्थापित करने में भी सफलता प्राप्त की है, जहां 400 से अधिक महिलाएं काम सीख रही हैं. महिलाओं को जीविकोपार्जन में मदद करने के लिए एक व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र शुरू किया गया है.
उनका कहना है कि बड़े ब्रांड हमें नियमित ऑर्डर देते हैं, जिसे ये महिलाएं पूरा करती हैं और कमाती हैं. इसने समुदाय में अपराध दर और घरेलू हिंसा को कम करने में भी मदद की है. मामून का सामरी सहायता मिशन अब एक एम्बुलेंस सेवा और एक खेल अकादमी भी चलाता है.
उनका कहना है कि जब हमें यहूदी ट्रस्ट की जमीन मिली तो हमने एक कमरे से मिशन की शुरुआत की. अब उनके नाम पर चार स्कूल है. इनमें 6426 विद्यार्थी अध्ययनरत हैं.इसके साथ ही 2 स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित किए गए हैं, जिनमें ओपीडी में 93689 (वार्षिक) मरीजों का उपचार किया जाता है, जबकि 2 मोबाइल क्लीनिक हैं, जिनमें 28825 रोगियों का उपचार होता है.
गौरतलब है कि अब उनके साथ 347 स्टाफ सदस्य और 35 स्वयंसेवक हैं. सभी जानते हैं कि आंदोलन की भावना निरूस्वार्थ सेवा में विश्वास रखने वाले मामून अख्तर के जज्बे और साहस का परिणाम है, जिसमें धर्म का कोई दखल नहीं है.