विश्व सामाजिक न्याय दिवस विशेष : इस्लाम में क्या है इसकी अवधारणा ?

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 21-02-2023
विश्व सामाजिक न्याय दिवस विशेष :   इस्लाम में क्या है इसकी अवधारणा
विश्व सामाजिक न्याय दिवस विशेष : इस्लाम में क्या है इसकी अवधारणा

 

-फ़िरदौस ख़ान 

किसी भी देश और समाज की ख़ुशहाली के लिए ये ज़रूरी है कि वहां के लोग आपस में मिलजुल कर रहें. और ऐसा तभी मुमकिन है जब उन लोगों के दरम्यान समानता हो. इस समानता का मतलब सामाजिक न्याय से है यानी सबके साथ एक जैसा बर्ताव हो, उनके साथ किसी भी तरह का कोई भेदभाव न हो, कोई नाइंसाफ़ी न हो. 
 
इसी मक़सद को लेकर हर साल 20 फ़रवरी को दुनियाभर में विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाया जाता है. ग़ौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 26 नवम्बर 2007 को डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में आयोजित विश्व शिखर सम्मेलन में इस दिन को मनाने का ऐलान किया गया था.
 
फिर साल 2009 में पहली बार यह दिवस मनाया गया. तब से हर साल विश्व में सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और लोगों को इस बारे में जागरूक करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है. 
 
आज के भौतिकतावादी दौर में पैसा और ओहदा ही इंसान के लिए सबकुछ हो गया है. रिश्ते-नाते सब पीछे छूटते जा रहे हैं. जब लोग अपने परिवार के लोगों से ही दूर होते जा रहे हैं, तो ऐसे में दूसरों के बारे में कौन सोचे? ऐसे हालात में सामाजिक न्याय का महत्व और भी ज़्यादा बढ़ जाता है. 
 
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भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय

हमारे देश भारत में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए गए हैं. भारतीय संविधान में देश के नागरिकों को छह मौलिक अधिकार दिए गए हैं, जिनका वर्णन अनुच्छेद 12 से 35 के बीच किया गया है.
 
इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा से संबंधित अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार शामिल है.
 
क़ाबिले-ग़ौर है कि पहले भारतीय संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, जिसे ‘44वें संविधान संशोधन-1978 के तहत हटा दिया गया। सातवां मौलिक अधिकार संपत्ति का अधिकार था। मूल अधिकार का एक दृष्टांत है- "राज्य नागरिकों के बीच परस्पर विभेद नहीं करेगा.” भारतीय संविधान में किसी के साथ किसी भी तरह का कोई भेद नहीं किया जाता. यही बात इसे ख़ास बनाती है.  
 
इस्लाम में सामाजिक न्याय की अवधारणा 

इस्लाम का अर्थ है सलामती यानी अमन. इस्लाम अमन का पैग़ाम देता है, भाईचारे का पैग़ाम देता है, इंसाफ़ का   पैग़ाम देता है. इस्लाम में सद्भाव, भाईचारे और इंसाफ़ पर ख़ास ज़ोर दिया गया है. इंसाफ़ किस चीज़ से क़ायम होता है? इंसाफ़ क़ायम होता है ईमानदारी से, एक-दूसरे से मुहब्बत के साथ मिलने-जुलने से और एक-दूसरे की मदद करने से.      
 
इस्लाम की नज़र में लोगों के दो ही तबक़े हैं- नेक और बद यानी अच्छे और बुरे लोग. अच्छे लोग हमेशा दूसरों का भला चाहते हैं और भला ही करते हैं, जबकि बुरे लोग अपने फ़ायदे के लिए दूसरों को तकलीफ़ देते हैं और उन पर ज़ुल्म करते हैं.
 
इस्लाम में ऊंच-नीच, जाति-पांत और छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं है. मस्जिदें इस बात की गवाह हैं, जहां अमीर और ग़रीब सब एक ही सफ़ में खड़े होते हैं. उनके दरम्यान किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं होता. दिन में पांच वक़्त लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, सलाम करते हैं, मुसाफ़ा करते हैं यानी हाथ मिलाते हैं. इससे उनके बीच मुहब्बत पैदा होती है.
 
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि रहमान यानी अल्लाह की इबादत करो और खाना खिलाया करो और सलाम को आम करो, चाहे उससे जान पहचान हो या न हो. (तिर्मिज़ी 1855)
 
यानी जब लोग एक दूसरे को सलाम करेंगे, तो उनके बीच बातचीत शुरू होगी, जो मेलजोल में तब्दील हो जाएगी. इस तरह वे लोग एक-दूसरे के दोस्त बन जाएंगे और उनमें एक-दूसरे की मदद करने का जज़्बा भी पैदा होगा. यही तो सामाजिक न्याय है. 
 
इस्लाम में एक दूसरे की मदद करने को बहुत अहमियत दी गई है. इंसान के माल पर सिर्फ़ उसी का हक़ नहीं है. उस पर उसके और उसके घरवालों के अलावा उसके रिश्तेदारों, यतीमों, मिस्कीनों यानी मोहताजों, मुसाफ़िरों और मांगने वालों का भी हक़ है.
 
इस्लाम में पड़ौसियों के भी अधिकार हैं. इस्लाम पड़ौसियों के साथ अच्छा सुलूक करने का हुक्म देता है. क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि और तुम अल्लाह की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न ठहराओ और वालिदैन के साथ हुस्ने सुलूक करो और रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और नज़दीकी पड़ौसियों और अजनबी पड़ौसियों और साथ उठने बैठने वालों और मुसाफ़िरों और अपने गु़लामों से अच्छा बर्ताव करो. (4:36)
 
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अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि अगर पड़ौसी तुम्हें अपनी मदद के लिए पुकारे तो उसकी मदद को पहुंचो, उधार मांगे तो उसे उधार दे दो, ज़रूरतमंद हो तो उसकी ज़रूरत को पूरा करो,
 
उसे कोई ख़ुशी नसीब हो तो उसे मुबारकबाद दो, वह मरीज़ हो जाए तो उसे देखने जाओ, कोई ग़म या मुसीबत आन पड़े तो उसे तसल्ली दो. अगर वह मर जाए तो उसकी मैयत में शामिल हो और अपने घर की दीवारें इतनी ऊंची न करो कि उसके घर में धूप और हवा जाना बंद हो जाए,
 
जब तक कि वह इजाज़त न दे दे. अगर तुम कोई फल ख़रीद कर लाओ, तो कुछ फल उसके यहां भी भिजवा दो. और अगर ऐसा नहीं कर सकते हो, तो फिर उन्हें छिपाकर अपने घर में ले जाओ और तुम्हारे बच्चे उन्हें बाहर लेकर न निकलें, ताकि उसके बच्चों को अफ़सोस न हो और अपने ख़ुशबूदार खानों से उसे दुखी न करो. उसमें से कुछ उसके यहां भी भिजवा दो. (बेहरुल अनवार भाग 79 पृष्ठ 93)
 
अबूज़र ग़फ़्फ़ारी रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें नसीहत दी कि अबूज़र शोरबा पकाओ, तो उसमें पानी बढ़ा दिया करो और उससे अपने हमसायों यानी पड़ौसियों की ख़बरगिरी करते रहो यानी उसमें से अपने हमसाये को भी कुछ दे दिया करो. (सही मुस्लिम 6688)
 
इसके साथ ही इस्लाम में दूसरे मज़हबों के लोगों के साथ भी अच्छा बर्ताव करने की ताकीद की गई है. क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ ईमान वालो ! और तुम उन्हें बुरा न कहो, जिन्हें वे लोग अल्लाह के सिवा पुकारते हैं. फिर वे लोग भी बिना जाने अल्लाह की शान में गुस्ताख़ी करेंगे. (6:108)
 
इस्लाम में सब लोगों को भाईचारे का संदेश दिया गया है. यानी सब अच्छे लोग एक दूसरे के भाई हैं. क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि बेशक सब मोमिन आपस में भाई-भाई हैं. इसलिए तुम अपने दो भाइयों के दरम्यान सुलह करा दिया करो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम पर रहम किया जाए. (49:10)
 
अमूमन देखा गया है कि कई बार बात मज़ाक़ से शुरू होती है और दुश्मनी तक पहुंच जाती है. कई बार मज़ाक़ में कही गई बात दिल को चुभ जाती है और फिर यही चुभन दोस्त को दुश्मन बना देती है.
 
महाभारत में द्रौपदी ने दुर्योधन पर एक कटाक्ष ही तो किया था, जिसके नतीजे में इतिहास को महाभारत जैसा भयंकर युद्ध देखना पड़ा. इसलिए इस्लाम में मज़ाक़ से रोका गया है. क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ ईमान वालो .
 
कोई क़ौम किसी क़ौम का मज़ाक़ न उड़ाए. मुमकिन है कि वे लोग मज़ाक़ उड़ाने वाले लोगों से बेहतर हों. इसी तरह औरतें भी दूसरी औरतों का मज़ाक़ न उड़ाएं. मुमकिन है कि वे उनसे बेहतर हों. और न आपस में ताने दो और न एक दूसरे के बुरे नाम रखो. किसी के ईमान लाने के बाद बुरा नाम रखना गुनाह है. और जो तौबा न करें, तो वही लोग ज़ालिम हैं. (49:11)
 
अकसर बदगुमानियां भी रिश्ते ख़राब कर देती हैं. इसलिए इस्लाम बदगुमानियों से रोकता है. क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ ईमान वालो ! बदगुमानी से बचा करो. बेशक बाज़ बदगुमानी गुनाह है.
 
और एक दूसरे के राज़ तलाशने की कोशिश न किया करो और न किसी की ग़ीबत करो. क्या तुममें से कोई इस बात को पसंद करेगा कि अपने मुर्दा भाई का गोश्त खाए. इसलिए तुम ज़रूर इस बात से नफ़रत करोगे. अल्लाह से डरो. बेशक अल्लाह तौबा क़ुबूल करने वाला बड़ा मेहरबान है. (49:12)
 
इस्लाम लोगों को आपस में फूट डालने और झगड़े करने से भी रोकता है. क़ुरआन में अल्लाह हिदायत देता है कि  और तुम सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो और आपस में तफ़रक़ा यानी फूट मत डालो और ख़ुद पर अल्लाह की नेअमतों का ज़िक्र करो यानी उन्हें याद करो कि जब तुम आपस में एक दूसरे के दुश्मन थे, तो अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में एक दूसरे की मुहब्बत पैदा कर दी और तुम उसकी नेअमत की वजह से आपस में भाई-भाई हो गए और तुम दोज़ख की आग के गड्ढे के किनारे पर पहुंच चुके थे.फिर अल्लाह ने तुम्हें उससे बचा लिया. इसी तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी निशानियां वाजे़ह करके बयान करता है, ताकि तुम हिदायत पा सको. (3:103)
 
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इस्लाम सबके साथ भलाई करने हुक्म देता है. क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि और तुम में से एक उम्मत ऐसी ज़रूर होनी चाहिए, जो लोगों को भलाई की तरफ़ बुलाए और अच्छे काम करने का हुक्म दे और बुराई से रोके और यही वे लोग हैं, जो कामयाबी पाएंगे. और तुम उन लोगों की तरह न हो जाना, जो फ़िरक़ों में तक़सीम हो गए थे और अपने पास वाज़ेह निशानियां आ जाने के बाद भी इख़्तिलाफ़ करने लगे. और उन लोगों के लिए सख़्त अज़ाब है. (3:104-105)
 
फिर तुम अपने रिश्तेदारों और मिस्कीनों और मुसाफ़िरों को उनका हक़ देते रहो. ये उन लोगों के हक़ में बेहतर है, जो अल्लाह की ख़ुशनूदी चाहते हैं. और वही लोग कामयाबी पाने वाले हैं. (30:38)
 
हमारा भारत एक विशाल देश है. यहां पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैली ज़मीन में विभिन्न संस्कृतियों के लोग रहते हैं. उनके मज़हब, उनके पंथ, उनकी भाषाएं, उनके रीति-रिवाज, उनका रहन-सहन और उनका खान-पान सब एक-दूसरे से अलग है, लेकिन उनके जज़्बात, उनके अहसासात सब एक ही हैं.
 
सब आपस में मिलजुल कर रहते हैं. बेशक इस्लाम इंसानों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करता. इस्लाम सबको आपस में मिलजुल कर रहने का पैग़ाम देता है, यही इसकी ख़ूबसूरती भी है.      
 
(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)