इस्लाम में बेटियों के लिए तिहाई क्यों रखी गई है ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 10-05-2023
इस्लाम बेटियों के लिए तिहाई क्यों रखी गई है?
इस्लाम बेटियों के लिए तिहाई क्यों रखी गई है?

 

फ़िरदौस ख़ान
   
दुनियाभर में तक़रीबन आधी आबादी औरतों की है. अपने हक़ के लिए औरतें न जाने कब से जद्दोजहद कर रही हैं. आज भी उनकी ये जद्दोजहद बदस्तूर जारी है. ख़ास बात ये है कि उनकी ये जद्दोजहद किसी बाहर वाले से नहीं है, बल्कि अपने ही लोगों से है. ये एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि मज़हब के नाम पर या यूं कहें कि मज़हब की आड़ में ही  औरतों के साथ सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हुए हैं. हालांकि चार निकाह और तीन तलाक़ जैसे मामलों की वजह से इस्लाम को औरतों के लिए बहुत ही कट्टर मज़हब माना जाता है, जबकि इस्लाम ने औरतों को बहुत से हुक़ूक़ दिए हैं. 

मीरास में बेटियों का हिस्सा 
 
इस्लाम में मीरास यानी जायदाद में महिलाओं को भी हिस्सेदार बनाया गया है. वालिद की मीरास में बेटियों को तिहाई यानी तीसरा हिस्सा दिया जाता है. सवाल ये भी है कि बेटियों को बेटों के मुक़ाबले में कम हिस्सा क्यों दिया जाता है?
 
इस सवाल के जवाब से पहले अरब में महिलाओं की हालत को समझना बेहद ज़रूरी है. किसी ज़माने में अरब के लोग जहालत के शिकार थे. तक़रीबन डेढ़ हज़ार साल पहले तक वहां के लोग बेटियों से बेपनाह नफ़रत करते थे. इस नफ़रत का आलम ये था कि वे अपनी बेटियों को पैदा होते ही ज़िन्दा दफ़न कर दिया करते थे.
 
अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस ज़ुल्म को ख़त्म करवा दिया. उन्होंने मुसलमानों को अपनी बेटियों की अच्छी तरह से परवरिश करने और उन्हें उनका हक़ देने की तालीम दी. 
 
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- "जिस शख़्स की तीन बेटियां या तीन बहनें, या दो बेटियां या दो बहनें हैं, जिन्हें उसने अच्छी तरह रखा और उनके बारे में अल्लाह से डरता रहा, तो वह जन्नत में दाख़िल होगा." (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या : 446)
 
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एक अन्य हदीस के मुताबिक़ "एक शख़्स अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया और सवाल किया कि ऐ अल्लाह के नबी! मेरे अच्छे बर्ताव का सबसे ज़्यादा हक़दार कौन है?
 
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तुम्हारी मां.” उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तुम्हारी मां.” उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तुम्हारी मां.” उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तुम्हारा वालिद. फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार." (सहीह बुख़ारी हदीस संख्या : 5626, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 2548)
 
ये वह दौर था जब लोग अपनी बेटियों की पैदाइश की ख़बर सुनकर सदमे में आ जाते थे. अल्लाह तआला ने इसका ज़िक्र करते हुए क़ुरआन करीम में फ़रमाया है- “और जब उनमें से किसी को लड़की की पैदाइश की ख़ुशख़बरी दी जाती है, तो रंज से उसका चेहरा स्याह हो जाता है और वह गु़स्से से भर जाता है. वह क़ौम से छुपा फिरता है, उस ख़बर की वजह से जो उसे सुनाई गई है. वह सोचता है कि उसे रुसवाई के साथ ज़िन्दा रखे या ज़िन्दा मिट्टी में दफ़न कर दे. जान लो कि तुम लोग कितना बुरा फ़ैसला करते हो.” (क़ुरआन 16: 58-59) 
 
“और जब ज़िन्दा दफ़नाई गई लड़की से पूछा जाएगा कि उसे किस गुनाह की वजह से क़त्ल किया गया?” (क़ुरआन 81: 8-9) 
 
इस्लाम ने न सिर्फ़ बेटियों के साथ अच्छा बर्ताव करने की तालीम दी है, बल्कि मीरास में उनका हिस्सा भी मुक़र्रर किया है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है- “मर्दों के लिए उस माल में से हिस्सा है, जो वालिदैन और क़रीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो और औरतों के लिए भी वालिदैन और क़रीबी रिश्तेदारों के तरके यानी छोड़े हुए माल में से हिस्सा है. माल कम हो या ज़्यादा वह अल्लाह का मुक़र्रर किया हुआ हिस्सा है.”  (क़ुरआन 4: 7)
 
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है- “अल्लाह तुम्हारी औलाद के हक़ के बारे में तुम्हें हुक्म देता है कि एक लड़के का हिस्सा दो लड़कियों के हिस्से के बराबर है.
 
फिर अगर औलाद में सिर्फ़ लड़कियां ही हों और वे दो या दो से ज़्यादा हों, तो उनके लिए इस तरके का दो तिहाई हिस्सा है. और अगर इकलौती लड़की हो, तो उसका आधा हिस्सा है. मय्यत के वालिदैन के लिए उन दोनों में से हर एक के लिए तरके का छठा हिस्सा है.
 
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बशर्ते मय्यत की कोई औलाद न हो. फिर अगर उस मय्यत की कोई औलाद न हो, तो उसके वारिस सिर्फ़ उसके वालिदैन होंगे. इसमें उसकी मां के लिए तिहाई हिस्सा है और बाक़ी सब बाप का है.
 
फिर अगर मय्यत के भाई और बहन हों, तो उसकी मां के लिए छठा हिस्सा है. यह तक़सीम उस वसीयत के पूरा करने के बाद होगी, जो उसने की हो या क़र्ज़ की अदायगी के बाद होगी. तुम नहीं जानते कि तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटों में से तुम्हें नफ़ा पहुंचाने में कौन तुम्हारे क़रीबतर है. ये अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किए हुए हिस्से हैं. बेशक अल्लाह बड़ा साहिबे इल्म बड़ा हिकमत वाला है.” (क़ुरआन 4: 11) 
 
जो लोग अपनी बहन-बेटियों को मीरास में उनका हिस्सा नहीं देते, उन्हें सख़्त अज़ाब से ख़बरदार किया गया है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नाफ़रमानी करे और उसकी हदों से तजावुज़ करे, तो अल्लाह उसे दोज़ख़ में डाल देगा. वह हमेशा उसमें रहेगा और उसके लिए ज़िल्लत अंगेज़ अज़ाब है.” (क़ुरआन 4:14) 
 
हज़रत अबू उमामा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “अल्लाह तआला ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया है. इसलिए किसी वारिस के लिए वसीयत जायज़ नहीं है.” (अबू दाऊद : 2870) 
 
यानी अल्लाह ने क़ुरआन करीम में वारिसों के लिए जो हिस्से मुक़र्रर किए हैं, वही काफ़ी हैं. इसलिए विरासत के बंटवारे के लिए अलग से वसीयत करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है. 
 
बेटियों का तीसरा हिस्सा क्यों है? 
 
मीरास में बेटियों के लिए तिहाई रखने का ताल्लुक़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और मां हव्वा से है. एक हदीस के मुताबिक़ जब हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और मां हव्वा जन्नत में रहते थे, तब इब्लीस ने उन्हें जन्नत से निकलवाने की साज़िश रची.
 
उसने हव्वा को गंदुम के तीन दाने दिए और उन्हें उसे खाने के लिए उकसाया. वे इब्लीस की बातों में आ गईं और उन्होंने उसमें से दो दाने खा लिए और एक दाना हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को खिला दिया. इसलिए दुनिया में बेटों के लिए दो हिस्से और बेटी के लिए एक हिस्सा मुक़र्रर किया गया है.
 
इस तक़सीम के पीछे एक वजह ये भी बताई जाती है कि इस्लाम ने औरतों की सारी ज़िम्मेदारी मर्दों को ज़िम्मे रखी है. मर्द पर अपने पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी होती है, जिनमें उसके वालिदैन, उसकी बीवी व बच्चे, उसकी बहनें, उसके छोटे भाई भी शामिल हैं.
 
उसके माल व दौलत में ज़कात के तौर पर क़रीबी रिश्तेदारों, यतीमों, मिस्कीनों, पड़ौसियों, मुसाफ़िरों और साइलों यानी मांगने वालों का भी हक़ होता है. वे इन सब लोगों पर माल व दौलत ख़र्च करता है. 
 
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इतना ही नहीं, बेटी की शादी पर काफ़ी रक़म ख़र्च की जाती है. इस्लाम में निकाह के बाद भी बेटी का अपने मायके से रिश्ता बरक़रार रहता है. उसे त्यौहारों पर त्यौहारी भेजी जाती है. उसके बच्चे होने पर उन्हें भी तोहफ़े दिए जाते हैं. बेटी का अपने मायके में आना जाना लगा रहता है. बेटी को कोई ज़रूरत आन पड़े, तब भी उसकी मदद की जाती है.     
 
क़ाबिले ग़ौर ये भी है कि औरत कुंवारी है, तो उसकी ज़िम्मेदारी उसके वालिद की है. अगर वह शादीशुदा है, तो उसकी ज़िम्मेदारी उसके शौहर की है. ज़ईफ़ी में उसकी ज़िम्मेदारी उसके बेटों की है.
 
अगर उसके शौहर की मौत हो जाती है, तो फिर से उसकी सारी ज़िम्मेदारी उसके वालिद पर आ जाती है. अगर वालिद नहीं है, तो ये ज़िम्मेदारी उसके भाई या उसके चाचा पर आ जाती है. अगर ये भी नहीं है, तो क़रीबी रिश्तेदारों पर उसकी ज़िम्मेदारी है.
 
अगर क़रीब का कोई रिश्तेदार नहीं है, तो ये ज़िम्मेदारी मुआशरे की है कि वह उसके लिए ज़िन्दगी गुज़ारने का सामान मुहैया कराए. वह उसका फिर से निकाह कराए या उसके ख़र्च की ज़िम्मेदारी उठाए.
 
इसके बरअक्स औरतें अपनी जायदाद की अकेली हक़दार होती हैं. उन्हें अपने वालिद की जायदाद में से तिहाई मिलती है. उन्हें निकाह के वक़्त महर भी मिलता है. इसके अलावा उन्हें जो ज़ेवरात और क़ीमती सामान तोहफ़े में मिलता है
 
, उन पर भी उनका ही हक़ होता है. उन पर किसी का ख़र्च उठाने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. वे अपनी मर्ज़ी से इसे कहीं भी ख़र्च कर सकती हैं. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो तिहाई की कमी महर से पूरी हो जाती है. 
 
जो लोग औरतों को मीरास में उनका हिस्सा नहीं देते, उनके लिए दुनिया और आख़िरत दोनों में सख़्त सज़ा रखी गई है. जिन मुल्कों में शरीया लागू हैं, वहां हुकूमत उन्हें सज़ा देती है. आख़िरत में भी उनके लिए बहुत ही सख़्त अज़ाब है.  
 
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “जो शख़्स अपने माल में से अल्लाह की मुक़र्रर की हुई मीरास को ख़त्म करेगा, अल्लाह जन्नत से उसका मीरास ख़त्म कर देगा.” 
(सुनन सईद बिन मन्सूर : 285)
 
दरहक़ीक़त इस्लाम इंसान की पैदाइश से लेकर उसकी मौत तक उसकी रहनुमाई करता है. क़ुरआन करीम में जीने का तरीक़े बताया गया है कि किस तरह इंसान अपने नेक आमाल के ज़रिये अपनी दुनियावी ज़िन्दगी के साथ-साथ अपनी आख़िरत की ज़िन्दगी को भी बेहतरीन बना सकता है.      
 
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)