जब साहिर लुधियानवी की कलम सुभाष चंद्र बोस की पैरोकार बनी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 23-05-2024
 Sahir Ludhianvi
Sahir Ludhianvi

 

साकिब सलीम

साहिर लुधियानवी और सुभाष चंद्र बोस. ये दोनों नाम सार्वजनिक स्मृति में एक साथ अंकित नहीं होते. क्या भारतीय सिनेमा के सबसे लोकप्रिय गीतकारों में से एक साहिर लुधियानवी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नेताओं में से एक सुभाष चंद्र बोस के बीच कोई संबंध हो सकता है?

बहुत कम लोग जानते हैं कि साहिर का जन्म अब्दुल हई के नाम से हुआ था और वे 1930 के दशक के अंत में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) का हिस्सा थे. एआईएसएफ वामपंथ की ओर झुकाव वाला एक राष्ट्रवादी संगठन था. 1930 के दशक के अंत में, सुभाष चंद्र बोस एआईएसएफ के एक बेताज नेता थे. जब बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तो संगठन ने कांग्रेस में उनके वफादार समूह का गठन किया और बाद में बोस द्वारा गठित पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक ने भी एआईएसएफ से अपना कैडर इकट्ठा किया.

विश्व युद्ध के दौरान बोस देश से बाहर चले गए और जापान की मदद से आजाद हिंद फौज की स्थापना की. भारत में एआईएसएफ और फॉरवर्ड ब्लॉक ने संघर्ष जारी रखा. युद्ध खत्म होने के बाद आजाद हिंद फौज के सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर युद्ध बंदी के रूप में सैन्य न्यायाधिकरणों में मुकदमा चलाया गया. इन सैनिकों के समर्थन में भारतीय युवा सड़कों पर उतर आये.

इन परीक्षणों को ‘आईएनए परीक्षणों’ के नाम से जाना जाता है, जिन्होंने देश को हिलाकर रख दिया. कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा का पुराना नेतृत्व विरोध प्रदर्शन के समर्थन में नहीं था, फिर भी इन सभी दलों से जुड़े युवा खुलकर सामने आए. कई स्थानों पर पुलिस ने गोलीबारी की और इन युवक-युवतियों को मार डाला. मुंबई, कराची आदि (तब बॉम्बे) में रॉयल इंडियन नेवी (आरआईएन) की रेटिंग में विद्रोह हो गया. पुलिस ने नागरिकों और नौसैनिकों पर गोलीबारी की, जिसमें कई लोग मारे गये.

जब सभी ने सोचा कि अंग्रेजों द्वारा नियुक्त भारतीय सैनिक विद्रोह करेंगे, तो गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व वाले राजनीतिक नेतृत्व ने युवाओं और नौसैनिकों से आंदोलन को निलंबित करने के लिए कहा. नौसेना विद्रोह 19 फरवरी 1946 को शुरू हुआ और 22 फरवरी को कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में सरदार पटेल ने एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया, ‘‘इसलिए, मैं उनसे (मुंबई और अन्य जगहों पर प्रदर्शनकारियों से) धैर्य और शांति बनाए रखने की ईमानदारी से अपील करूंगा.’’

युवाओं को ठगा हुआ महसूस हुआ और साहिर उनमें से एक थे. वह उस पार्टी से थे, जो बोस के प्रति समर्पित थी. उन्होंने एक नज्म लिखकर नेताओं से पूछा कि उन्होंने आंदोलन क्यों रोका.

उनकी कविता का शीर्षक है, ये किसका लहू है?, साहिर ने पूछा, ‘‘सड़कों की ज़बाँ चिल्लाती है सागर के किनारे पूछते हैं, ये किस का लहू है कौन मरा ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता?’’

वह जिस नेता के बारे में बात कर रहे थे, वह विशेष रूप से कांग्रेस नेतृत्व और सामान्य रूप से अन्य राजनीतिक नेता थे. वह जानना चाहते थे कि वे आजादी के इन शहीदों को शहीद कहने से क्यों डरते हैं.

इस कविता में, साहिर ने पूछा कि नेतृत्व भारतीयों को यह विश्वास दिलाने के लिए सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज को स्वीकार क्यों नहीं कर रहा है कि वे बलपूर्वक स्वतंत्रता जीत सकते हैं. उन्होंने लिखा, ‘‘वो कौन सा जज्बा था, जिससे फरसुदा निजाम-ए-जिस्त हिला,.........जनता का लहू फौजों से मिला, फौजों का लहू जनता से मिला.’’

बोस द्वारा आजाद हिन्द फौज के गठन से पहले सेना और जनता के बीच यह स्पष्ट अंतर था. उनकी आजाद हिंद फौज ने रेखाओं को धुंधला कर दिया और अब जनता सेना के रूप में लड़ रही थी, जबकि सेना के जवान किसी अन्य भारतीय की तरह काम कर रहे थे. साहिर चाहते थे कि नेतृत्व बोस के इस योगदान को स्वीकार करे.

नेतृत्व ने आधिकारिक संस्करण स्वीकार कर लिया कि ब्रिटिश सेना की गोलियों से मारे गए लोग दंगाई थे. साहिर ने पूछा, ‘‘क्या कौम-ओ-वतन की जय गाकर मरते हुए गुंडे थे? जो देश का परचम ले के उठे वो शोक सिपाही घुंडे थे? जो बार-ए-गुलामी सह न सके, वो मुजरिम-ए-शाही गुंडे थे?’’

कांग्रेस नेतृत्व ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया और 1946 में वे आजादी के लिए ब्रिटिश सरकार से बातचीत कर रहे थे. 25 साल के साहिर के लिए ये सरासर पाखंड था. उन्होंने लिखा, ‘‘अब आग से क्यों कतराते हो, शोलों को हवा देने वालो, तूफान से अब क्यूं डरते हो, मौजों को सदा देने वाले, क्या भूल गए अपना नारा, ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता.’’

1946 के भारतीय युवाओं का पुराने नेतृत्व से मोहभंग हो गया था और उनके प्रतिनिधि के रूप में साहिर ने उनसे कहा कि वे बातचीत कर सकते हैं लेकिन युवा लोग ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह करेंगे. उन्होंने लिखा, “हम ठान चुके हैं अब जी में हर जालिम से टकराएंगे, तुम समझौते की आस रखो, हम आगे बढ़ते जायेंगे.” 

लोकप्रिय संस्कृति में साहिर का यह राजनीतिक पहलू पीछे चला गया है. इसके अलावा, एक राष्ट्र के रूप में हम सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज और युद्ध समाप्त होने के बाद उसके प्रभाव के बारे में बहुत कम बात करते हैं.