फिरदौस खान
इस्लाम में मीरास यानी जायदाद में औरतों का हिस्सा भी मुकर्रर किया गया है. वालिद की जायदाद में बेटियों को तिहाई यानी तीसरा हिस्सा देने का हुक्म है. इसके बावजूद हजारों-लाखों लोग ऐसे हैं, जो अपनी बहन-बेटियों को उनका हक नहीं देते. कुदरत ने औरतों को कुछ ऐसी सिफ्त दी है कि वे खुद भूखी रह लेती हैं, लेकिन अपने परिवार के लोगों को भूखा नहीं देख सकतीं. घर में खाना कम होगा, तो घरवालों को खिला देंगी, लेकिन खुद भूखी रह जाएंगी.
जायदाद के मामले में भी यही हाल है. अमूमन बहन-बेटियां जायदाद में अपना हक खुशी-खुशी छोड़ देती हैं या फिर उन्हें हक छोड़ने लिए मजबूर किया जाता है. अकसर होता तो यही है कि जायदाद के बंटवारे के वक्त परिवार के बेटे आपस में ही सब कुछ बांट लेते हैं और बेटियों को इसकी खबर भी नहीं होने देते.
उनका यही मानना होता है कि जायदाद पर तो बेटों का ही हक होता है. बेटियां तो पराई हैं, उन्हें पराये घर ही जाना है. या फिर उनकी ये दलील होती है कि बेटियों के शादी-ब्याह पर मोटी रकम खर्च की जाती है, उन्हें दहेज दिया जाता है. फिर उनकी पढ़ाई पर भी तो पैसा खर्च किया जाता है, जिसका उन्हें कोई फायदा नहीं होता.
कुछ बेटे तो यहां तक कह देते हैं कि शादी के बाद बेटियां अपने शौहर और बच्चों के साथ मायके आती हैं, तो उन पर काफी पैसा खर्च हो जाता है. ये पैसे पेड़ पर तो नहीं उगते. अगर बेटियों ने जायदाद में से हिस्सा ले लिया, तो फिर उनका मायके से हर तरह का रिश्ता खत्म हो जाता है.
इसलिए फिर उन्हें मायके आने की कोई जरूरत नहीं है. बेटियों को अपने मायके से बहुत लगाव होता है. इसलिए वे मायके से अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए अपना हक छोड़ देती हैं. उनकी जबान पर कभी अपने हिस्से की, अपने हक की बात तक नहीं आती.
इस सबके दरम्यान बहुत सी बेटियां ऐसी भी हैं, जिनका मायका अमीर है, लेकिन उनकी ससुराल बहुत ही गरीब है. कितने ही घर ऐसे हैं, जिनकी आमदनी बहुत कम है. उनके लिए दो वक्त का खाना जुटाना भी बहुत ही दुश्वार है.
ये बेटियां दिन-रात मेहनत करती हैं. सुबह घर का कामकाज करके नौकरी पर जाती हैं. आठ से दस घंटे की नौकरी करती हैं. फिर शाम को घर आकर घर का कामकाज करती हैं. इनके शौहर भी बहुत ही मेहनत- मशक्कत करते हैं. इसके बावजूद उनका घर का खर्च ठीक से नहीं चल पाता. इस महंगाई के दौर में वे अपने अमीर भाइयों से अपना हक मांगती हैं, लेकिन उन्हें सिवाय दुत्कार के कुछ नहीं मिलता.
ऐसे ही एक परिवार की चार बेटियां अपना हक चाहती हैं, लेकिन उनके भाई उन्हें एक फूटी कौड़ी भी नहीं देना चाहते हैं. ये वाकया है उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले का. जेबुन्निसा की 13 साल की एक बेटी है. वे अपने शौहर के साथ नोएडा के एक कारखाने में काम करती हैं.
वे किराये के मकान में रहती हैं. काम की वजह से उन्होंने अपनी बेटी भी एक करीबी रिश्तेदार के घर छोड़ रखी है. उसी घर में उनकी बेटी की परवरिश हो रही है, लेकिन बेटी की हालत अच्छी नहीं है.
उनका कहना है कि वे और उनका शौहर दोनों सुबह काम के लिए घर से निकल जाते हैं और देर रात तक लौटते हैं. ऐसे में बेटी को कहां रखते, इसलिए मजबूरन उन्होंने अपनी बेटी को एक करीबी रिश्तेदार के घर छोड़ दिया.
वे हर महीने रिश्तेदार को बेटी के खर्च के पैसे देते हैं. वे बताती हैं कि पिछली ईद पर वे अपनी बेटी से मिलने गईं, तो घर के सब लोग नये कपड़े पहने हुए थे और उनकी बेटी ने पुराने कपड़े पहन रखे थे और वे नौकर की तरह घर का काम कर रही थी. ये देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए.
वे कहती हैं कि अगर उन्हें उनके वालिद की जायदाद में से हिस्सा मिल जाता, तो वे बेहतर जिन्दगी बसर कर सकती हैं. वे बरसों से अपने भाइयों से अपना हक मांग रही हैं, लेकिन वे किसी भी सूरत में उन्हें उनका हिस्सा नहीं देना चाहते. उनके पास इतने पैसे नहीं है कि वे अदालत का दरवाजा खटखटा सकें.
उनकी और बहनों का भी कमोबेश यही हाल है. उनकी दूसरी बहन शाजिया और उनके शौहर भी दिन-रात मेहनत- मशक्कत करते हैं. वे अपनी इकलौती बेटी को अच्छी से अच्छी तालीम देना चाहते हैं. उनकी माली हालत भी खास अच्छी नहीं है.
शाजिया का कहना है कि अगर उनकी माली हालत अच्छी होती, तो वे मीरास में से कुछ भी लेना नहीं चाहतीं. वे बीमार रहती हैं और उनके शौहर की भी तबीयत ठीक नहीं रहती. ऐसे में इलाज में बहुत पैसे खर्च हो जाते हैं. फिर बेटी की पढ़ाई का खर्च और घर का खर्च.
वे कहती हैं कि अगर उन्हें उनका हिस्सा मिल जाए, तो वे कुछ पैसे बेटी की तालीम और उसकी शादी के लिए बैंक में जमा करवा देंगी. कम से कम उनकी बेटी की जिन्दगी तो बेहतर हो सकेगी. शाजिया के शौहर का कहना है कि हमें कुछ नहीं चाहिए. हमारे पास जो है, हम उसी में गुजारा कर लेंगे. मगर शाजिया मीरास में अपना हिस्सा लेना चाहती हैं.
इसी तरह उनकी तीसरी बहन नगमा भी अपना घर चलाने के नौकरी करती हैं. उनके शौहर का भी कोई खास काम नहीं है. दिहाड़ी का काम है. कभी काम मिलता है और कभी नहीं मिलता. ऐसे में घर चलाना बहुत मुश्किल हो जाता है. उनके दो बच्चे हैं. वे कहती हैं कि उनके भाई बहुत अमीर हैं. अगर वे उन्हें उनका हिस्सा दे दें, तो उस रकम से वे अपना कोई काम शुरू कर सकती हैं. वे अपना बुटीक खोलना चाहती हैं.
उनकी चौथी बहन शबनम की भी माली हालत अच्छी नहीं है. उनके शौहर बीड़ी के कारखाने में काम करते हैं. वे कहते हैं कि इस काम में कोई आमदनी नहीं है. जितनी मेहनत होती है, उसके हिसाब से दिहाड़ी बहुत कम मिलती है.
लेकिन घर में खाली बैठने से बेहतर है कुछ काम ही कर लिया जाए. शबनम कहती हैं कि मीरास में तिहाई हमारा हक है. ये हक अल्लाह ने हमें दिया है, इसलिए हमें अपना हिस्सा चाहिए. उनके मुताबिक उनके दो बड़े पुश्तैनी घर हैं. इसके अलावा उनके बाग भी हैं, जिनसे अच्छी आमदनी होती है.
वे तल्ख लहजे में कहती हैं कि अगर भाई उनसे रिश्ता खत्म करना चाहते हैं, बेशक खत्म कर लें. ऐसे भाई किस काम के, जो अपनी बहनों का हक छीनकर चैन-सुकून की जिन्दगी बसर करते हैं.
बहनों को तिहाई देने के मसले पर इनके भाइयों का कहना है कि वालिद की मौत के बाद उन्होंने अपनी बहनों की शादी की है. इसलिए अब तिहाई देने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता. इन चार बहनों जैसी न जाने कितनी ही बहन-बेटियां हैं, जिन्हें उनके हक से महरूम रखा गया है.
वरिष्ठ अधिवक्ता मोहम्मद रफीक चौहान
हरियाणा के करनाल के वरिष्ठ अधिवक्ता मोहम्मद रफीक चौहान का कहना है कि पुश्तैनी जायदाद से महरूम बहनें अदालत जाकर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम- 1925 के तहत अर्जी दाखिल कर सकती हैं. गौरतलब है कि मुस्लिम और हिन्दू उत्तराधिकार के नियम अलग-अलग हैं. हिन्दुओं का उत्तराधिकार नियम कोडिफाई है.
उनका उत्तराधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम- 1956 के अंतर्गत निर्धारित किया जाता है, जबकि मुसलमानों का उत्तराधिकार नियम कोडिफाई नहीं है. ये कुरआन व हदीसों यानी प्रचलित परम्पराओं और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम- 1925 के अंतर्गत निर्धारित किया जा सकता है.
इसमें उत्तराधिकार के दो प्रारूप हैं. पहला वसीयतनामा उत्तराधिकार और दूसरा निर्वसीयत उत्तराधिकार. वसीयतनामा उत्तराधिकार उन मामलों में लागू होता है, जहां मृतक ने वसीयत लिखी हो. हिन्दू और मुसलमानों के वसीयत के नियम अलग-अलग हैं. जहां हिन्दुओं को कुछ शर्तों के साथ वसीयत करने का सम्पूर्ण अधिकार है, वहीं एक मुसलमान अपनी सम्पत्ति का 1/3 हिस्सा ही अपने वारिसों की सहमती से वसीयत कर सकता है.
इसमें जायदाद की तकसीम वसीयत के हिसाब से की जाती है. वसीयत न होने की हालत में जायदाद को निर्वसीयत उत्तराधिकार के नियम से तकसीम किया जाता है. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के तहत निर्वसीयत उत्तराधिकार कानून सभी महजबों को ध्यान नें रखकर बनाया गया है. इसलिए वे सभी मजहबों के उत्तराधिकार को हल करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.
(लेखिका शायरा, कहानीकार और पत्रकार हैं)
नोटः पारिवारिक कलह न बढ़े, इसलिए जगह और पात्र की पहचान छुपाई गई है