साकिब सलीम
‘‘मैं हर उस किताब या लेख की आलोचना करती थी, जिसे मैं मानती थी कि इसका मुकाबला करने की जरूरत है. इसके अलावा मैंने कई फिक्शन, नॉन फिक्शन, व्यंग्य और उपन्यास लिखे हैं. दुर्भाग्य से मैं इनमें से किसी भी रचना को प्रकाशित नहीं कर सकी, क्योंकि मेरे ससुर (अल्लाह उन्हें जन्नत से नवाजे) पुरानी शैली के थे. उनकी राय में अच्छी महिलाएं न तो लिखती थीं और न ही जनता से जुड़ती थीं. फिर भी मैंने अपने कुछ लेख छद्म नाम से पत्रिकाओं में छपवाए.’’ 2023 में, ये शब्द एक काल्पनिक दुनिया से संबंधित प्रतीत होते हैं, लेकिन यह एक सदी से भी कम समय पहले पटना की एक मुस्लिम महिला लेखिका की वास्तविक जीवन कहानी थी. वह महिला निसार कुब्रा थीं, जो बिहार से प्रकाशित होने वाली पहली महिला उर्दू कवियों में से एक थीं.
अपने स्वयं के अनुमान के अनुसार निसार कुब्रा ने कम से कम 50 पुस्तकें लिखीं, जो प्राकृतिक आपदाओं के कारण नष्ट हो गईं और कभी प्रकाशित नहीं हुईं. सौदा (एक प्रसिद्ध उर्दू शास्त्रीय कवि) की तरह लिखने की हिम्मत करने के लिए उनकी पहली कविता नोटबुक वास्तव में बड़े भाई द्वारा फाड़ दी गई थी और कविताएं कभी भी पुनर्प्राप्त नहीं की जा सकीं.
यह कम चौंकाने वाला होता, अगर वह किसी कम पढ़े-लिखे पिछड़े परिवार से ताल्लुक रखतीं. निसार कुब्रा की माँ राशिद उन निसा उर्दू में उपन्यास प्रकाशित करने वाली पहली महिला लेखिका थीं. उन्होंने पटना में लड़कियों के स्कूलों में से एक की स्थापना भी की थी. ऊपर वर्णित ससुर सैयद अली करीम थे, जिन्होंने 1857 के विद्रोह में भाग लिया था और अपने समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे. कुब्रा का परिवार और ससुराल दोनों पटना के बुद्धिजीवियों से ताल्लुक रखते थे.
कुब्रा ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ‘महिलाओं की शिक्षा को बुराई समझा जाता था और उन्हें लिखने की कला सिखाना किसी घोर पाप से कम नहीं था.’ मुसलमानों में महिलाओं को कुरान पढ़ना तो सिखाया जाता है, लेकिन उसे समझे बिना. उन्हें उर्दू, हिंदी या अंग्रेजी पढ़ना या लिखना नहीं सिखाया गया था. वह अलग नहीं थी. उनके लिए किराए पर ली गई महिला शिक्षक कुरान पढ़ने के अलावा कुछ नहीं जानती थी.
कुब्रा उस समय की अन्य लड़कियों की तरह, अशिक्षित लेकिन पढ़ने और लिखने के अपने जुनून के लिए समाप्त हो जातीं. वह रद्दी कागजों पर रंग में डूबी भूसे के टुकड़े की मदद से अक्षरों की नकल करती थीं. एक दिन उसकी माँ ने, जो महिला शिक्षा की हिमायती थीं, लेकिन पुरुष सदस्यों की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकती थीं, कुब्रा को इस तरह लिखने की कोशिश करते देखा. उन्होंने तुरंत अपनी कलम, स्याही और कागज दे दिया. उन्हें लिखने की मूल बातें सिखाने के लिए एक ट्यूटर को काम पर रखा गया था. एक महिला ट्यूटर जो खुद लेखन के बारे में ज्यादा नहीं जानती थी, वह केवल मूल बातें ही पढ़ा सकती थी. लेकिन, कुब्रा के लिए इतना ही काफी था. वह अपने आप अभ्यास करने लगीं.
कुब्रा ने अरबी की तुलना उर्दू अनुवाद से, परिवार के पुरुष सदस्यों की किताबों से अंग्रेजी और घर पर एक हिंदू नौकरानी से हिंदी की तुलना करके अरबी सीखी. वह कोई भी पेपर पढ़ लेती थीं. उन्होंने अपनी माँ की सलाह का पालन किया, जो कहती थीं कि लड़कियों को अच्छे और बुरे दोनों तरह के साहित्य से अवगत कराया जाना चाहिए. उनके दिमाग को इस तरह से विकसित किया जाना चाहिए कि वे अच्छे और बुरे के बीच अंतर कर सकें.
कुब्रा ने अपनी भतीजी असगरी के साथ कविताएँ लिखना शुरू किया. एक बार जब उर्दू के मशहूर शायर शाद अजीमाबादी को दिखाया गया, तो उन्होंने उनकी कविताओं की सराहना करते हुए कहा कि इस लड़की को एक औपचारिक शिक्षण संस्थान में भेजा जाना चाहिए था. प्रोफेसर सैयद अब्दुल गफूर ने भी उनके लेखन की सराहना की, लेकिन कुब्रा के बड़े भाई ने शायरी लिखने वाले परिवार की एक महिला का समर्थन नहीं किया. उसने वह नोटबुक फाड़ दी, जिसमें वह लिखती थीं. कुब्रा ने याद करते हुए कहा, ‘‘इस अपमान ने शायरी के लिए मेरे जुनून को मार डाला कि मैं आने वाले वर्षों में दूसरी कविता नहीं लिखूंगी.’’
1934 में अपने ससुर की मृत्यु के बाद ही कुब्रा ने स्वतंत्र महसूस किया. उसके अपने बच्चे तब तक बड़े हो गए थे और वह अरब की तीर्थ यात्रा पर थीं. उन्होंने अपनी कविताओं को ख्यालत-ए-कुबरा (कुब्रा के विचार) नामक पुस्तक में प्रकाशित करवाया. 1934 से पहले लिखी गई कुब्रा की कविताएँ उपेक्षा या परिवार के किसी पुरुष सदस्य द्वारा देखे जाने के डर से खो गईं.
कुब्रा ने धर्म, महिला अधिकार, राजनीतिक आंदोलन, सामाजिक आंदोलन, स्वतंत्रता संग्राम, हिंदू-मुस्लिम एकता और शिक्षा जैसे व्यापक विषयों पर लिखा. हिंदू-मुस्लिम एकता पर एक कविता में उन्होंने लिखा, ‘सुनो ऐ हिंदोस्तां वालो, तुम ऐ हिंदू मुसलमानो, तुम्ही आपस के कुल झगड़ों को बेखटके मिटा सकते हो.’
कुब्रा ने व्यापक रूप से महिलाओं के बीच शिक्षा की आवश्यकता पर लिखा. उन्होंने महिलाओं की स्वतंत्रता का स्वागत इस चेतावनी के साथ किया कि भारतीयों को पाश्चात्य विचारों के बहकावे में नहीं आना चाहिए. कुब्रा संतुष्ट थी. उन्होंने लिखा, ‘‘अब वक्त बदल रहा है. महिलाएं स्वतंत्रता प्राप्त कर रही हैं, बल्कि उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त की है. पुरानी परंपराएं अब अतीत हो गई हैं. हमारे पास लड़कियों के लिए शिक्षकों की कोई कमी नहीं है. कन्या विद्यालय खोले जा रहे हैं. मुस्लिम महिलाओं को भी खुद को शिक्षित करने के लिए अन्य समुदायों की महिलाओं के साथ आगे बढ़ना चाहिए. उन्हें पीछे नहीं रहना चाहिए.’’