घरेलू हिंसा की शिकार मुस्लिम महिलाओं की तस्वीर बदल दी कांथा कला ने

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 08-02-2025
Kantha weaving
Kantha weaving

 

डॉ. रेशमा रहमान

कांथा एक पारंपरिक कला है, जिसे कभी कमाने की लालसा से इसका उपयोग नहीं किया गया. ये आर्ट वक्त के साथ फीकी हो चली थी. क्योंकि मॉडर्न बाजार में मशीन से बने नए-नए डिजाइन की वस्तुओं ने लोगों में नया आकर्षण पैदा कर दिया था. लोगों ने आसानी से मिलने वाली इन वस्तुओं को ख़रीदने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई. लेकिन इंसान की फितरत यह है कि वक्त से साथ उसका स्वाद और पसंद बदलता रहता है. इसका असल प्रभाव भारतीय कलाओं पर पड़ा और कई पुरानी कलाओं ने दम तोड़ना शुरू कर दिया था. जिसमें कांथा कला भी एक थी.

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वक्त ने फिर करवट ली है. ब्रह्मपुत्र नदी के पास रहने वाली महिलाओं ने इस कला को बचाने की कसम खायी है. यह इलाक़ा चार चापोरी के नाम से जाना जाता है. चार चापोरी असम का कुल 4.6 फीसद क्षेत्र में इसका बसावट है. यहां रहने वाले अधिकतार लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं. यह क्षेत्र अत्यधिक बाढ़ प्रभावित है. दिलचस्प बात यह है कि जहां बाढ़ जिंदगी का दम निकालने पर आमादा है, वहीं महिलाएं दम तोड़ती कला को बचाने की जद्दोजहद में लगी हैं.

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असम अपने पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के साथ सीमा की लंबाई 127.00 किमी साझा करता है. इसलिए यहां क्रॉस कल्चर कनेक्शन देखा जा सकता है. लोगों को जहां रोजी-रोटी मिली, वही बसना शुरू कर देते हैं. इसकी झलक इतिहास की किताबों से मिलती है. हालांकी, असम पश्चिम बंगाल का पड़ोसी राज्य होने की वजह से यहां बंगाली आबादी अच्छी-खासी देखी जा सकती है.

वहीं चार चापोरी में मूल बांग्ला भाषी मुसलमान ज्यादातर रहते हैं. साथ ही दूसरे धर्मो के बंगाली ओरिजिन के लोग भी मिल जाएंगे. और सभी मिल-जुल कर रहे हैं.

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यह इलाका ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में आता हैं. यहां के लोगों की हालत बेहद खराब है. इनमें तालीम का अभाव होने की वजह से ज्यादातर आबादी अकुशल है. इसलिए बेहतर काम मिलना मुश्किल है. यहां के लोग खेती, पशुपालन और मजदूरी जैसे काम से जुड़े हैं.

गरीबी का ये आलम है कि ज्यादातर लोग अस्थायी घर बनाकर रहते हैं. पक्का मकान बनाने की लागत ज्यादा होती है. इनकी सबसे बड़ी परेशानी यह है कि नदी के किनारे रहने से नदी का उफान इनके कच्चे, बांस और टीन से बने मकान को नष्ट कर देता है. फिर से कच्चे मकान को जोड़ना और ठीक करना आसान नहीं है. ये हालात इन्हें बदहाली की तरफ ढकेल  रहा है.

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ऐसे हालात में यहां की महिलाओं ने कमर कस ली है. चार चापोरी की महिलाएं और लड़कियां इस कला में बेहद माहिर हैं. यह इनको विरासत में मिली है. दरअसल, कांथा कला का प्रयोग घर के जरुरतों के लिए सदियों से होता आया है.

ये महिलाएं घर पर पुराने या नए कपड़ों से रग, बेबी बिस्तर, चादर, गुदरी, साड़ी, सूट, वह दुपट्टे पर रंग बिरंगी थीमैटिक कांथा स्टिच करने में माहिर होती हैं. और घर को सजाने के लिए मसलन, तकिया कवर, टेबल कवर, वॉल हैंगिंग जैसे कई चीजें सजावट में इस्तेमाल करती हैं.

हिंदू महिलाएं धार्मिक कहानियों को गढ़ती हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से पौराणिक कथाओं को प्रस्तुत करती हैं. हां, सब देखने में बेहद खुबसूरत और अविश्वसनीय हैं, खासकर आज के मशीनरी और एआई के जमाने में.

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अब इस मरती हुई कला ने फिर से रंग में आना शुरू कर दिया है. जिसमें मुस्लिम महिलाओं का योगदान अहम् है. इसका असर कस्बे और समाज की सोच को बदलने में कारगर साबित हो रहा है. अमरापारीएनजीओ इनके जीवन में रोशनी की किरण लेकर आई है.

एनजीओ के संस्थापक मुल्ला ने बेहद करीब से इनके हालात को देखा है. कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान इसकी शुरूआत मास्क बनाने से की. कई हजारों मास्क बनाये, जिससे कमाई अच्छी हुई. फिर धीरे-धीरे ऑर्डर मैचिंग ड्रेस वाले मास्क के आने लगे, ओडर पे ऑर्डर बढ़ता चला गया.

तरह-तरह के कांथा आर्ट से बने सामान का ऑर्डर लगतार बढ़ता रहा. सोशल मीडिया के फेसबुक और इंस्टाग्राम ने इसे लोकप्रिय बनाने में बेहद अहम रोल अदा किया, जिससे देश और विदेशों से भारी मात्रा में ऑर्डर आता है.

अमरापारी पेज को चेक आउट कर सकते हैं. महिलाओं ने इस कला की निपुणता को समझते हुए इसे बाजार में लाने का सोचा. यह विचार जीवनबूटी की तरह था. आज हजारों महिलाएं जुड़ी हैं, कुछ कलाकार की तरह मशहूर भी हुई है. कइयों ने उद्यमी बनने की दिशा में अपना कदम बढ़ाया है.

इसका सीधा प्रभाव महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी पर पड़ा है. महिलाएं मुस्लिम होने की वजह से अतिरिक्त पाबंदियों की शिकार होती हैं. मर्दो में पारंपरिक पितृसत्तात्मक सोच कुट-कुट कर भरी है. महिलाएं बहुत ज्यादा घरेलु हिंसा की शिकार रही हैं.

मार-पीट, घरेलु झगड़े, मानसिक शोषण, वित्तीय संकट, जल्द शादी और बच्चे आम बात है. ज्यादातर लड़कियां 20 साल से कम उमर में मां बन जाती हैं. ये बहुत डरावना है आज के कॉन्सेप्ट में. अमारपारी एनजीओ ने इनके जीवन में रोशनी की किरण लेकर आई है.

एनजीओ के संस्थापक मंजुवारा मुल्ला ने  बेहद करीब से इनके हालात को देखा है, कोविड-19 लॉकडाउन के दौरन महिलाओं के इस कला की महत्ता को समझते हुए इसे बाजार में लाने का सोचा. आज हजारों महिलाएं जुड़ी हैं, कुछ कलाकारों की तरह मशहूर भी हुई हैं. कइयों ने आंत्रप्रिन्योर बनने में अपना कदम बढ़ाया है.

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अमारपोरी एनजीओ से जुडकर महिलाएं और लड़कियां 5-10 हजार या उससे ज्यादा कमाई कर लेती है. ये रकम कम लग रही होगी. लेकिन इस रकम ने उन्हें आर्थिक तौर पर मजबूत बना दिया है. इससे उन्हें निर्णय लेने में मदद मिली है.

साथ ही घरेलू हिंसा में लागतार गिरावट देखी जा सकती है. नियमित झगड़े से घर नकारात्मक माहौल में तब्दील हो गए थे. इसमें काफी गिरावत दर्ज हुई है. वही परिवार में भी आर्थिक योगदान करने लगी हैं महिलाएं. जिन पुरुषों ने इस काम से जुड़ने के लिए इजाजत नहीं दी थी. वे अब अपनी पत्नियों को खुद फैक्ट्री ले जा रहे हैं.

दिलचस्प बात यह है कि कई मर्द घर के कामों में हाथ बटाने लगे हैं. साथ ही,  बीबी के काम पर जाने पर बच्चों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी खुशी- खुशी उठाने लगे हैं. सकारात्मक बात है ये.

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आज के कठिन दौर में लड़की और महिलाओ को आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना बहुत जरूरी है. वह खुद सशक्त होने के साथ-साथ अपने परिवार और समाज को सशक्त बनाने में अहम भूमिका अदा कर सकती हैं. साथ ही वह खुद फैसला लेने के लिए आत्मनिर्भर बन सकेंगी. आज के परिवेश में महिला का मतलब सशक्त है.

(डॉ. रेशमा रहमान सहायक प्रोफेसर और शोधकर्ता, यूएसटीएम हैं.)