आगा खान ट्रस्ट ने किस तरह संवारी हजरत निजामुद्दीन की मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी!

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 08-03-2025
How Aga Khan Trust improved the lives of Muslim women of Hazrat Nizamuddin!
How Aga Khan Trust improved the lives of Muslim women of Hazrat Nizamuddin!

 

नई दिल्ली. यह रमजान का पहला हफ्ता है और निजामुद्दीन बस्ती की अन्यथा चहल-पहल वाली गलियाँ वसंत की दोपहर के वक्त शांत रहता है. कभी राष्ट्रीय राजधानी के बीचों-बीच झुग्गी-झोपड़ियाँ हुआ करती थीं, लेकिन अब इस बस्ती में ऐसी इमारतें हैं, जो यहाँ के कुछ स्मारकों से भी ऊँची दिखाई देती हैं. धूल भरे रास्तों और गंदी गलियों से परे, निजामुद्दीन की क्षितिज रेखा पर हरे-भरे पेड़ों की पृष्ठभूमि में पवित्र महीने के लिए परी रोशनी से सजे स्मारकों के गुंबद हैं.

25 वर्षीय इतिहास प्रेमी शुमायला कहती हैं, जिनके लिए सफेद संगमरमर के स्मारक और पिएट्रा ड्यूरा अलंकरण एक आम दृश्य था ‘‘मैं यहाँ पैदा हुई, मैं अपने चारों ओर इन स्मारकों को देखते हुए बड़ी हुई.’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैंने उन्हें अपने घर की छत से देखा.’’

तीन या चार साल की उम्र में, वह निजामुद्दीन की भव्य कब्रों को देखकर मंत्रमुग्ध हो गई थी, लेकिन 10 साल की उम्र तक उसे एहसास हुआ कि कब्रों के साथ रहना बहुत आम बात नहीं है - निजामुद्दीन खास है!

उन्होंने बताया, ‘‘मुझे इतिहास से प्यार है. मेरा बचपन इतिहास की खोज में बहुत अच्छा बीता.’’ शुमायला कहती हैं, ‘‘हम इन कब्रों में लुका-छिपी खेलते थे.’’

यहाँ के स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित हैं, लेकिन उनमें से सभी में प्रवेश के लिए टिकट की आवश्यकता नहीं होती है.

मैत्री कॉलेज से स्नातक, शुमायला ने लेडी श्री राम कॉलेज से इतिहास में मास्टर डिग्री प्राप्त की है. दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा निजामुद्दीन हेरिटेज क्षेत्र में एक टूर गाइड के रूप में काम करती है और शिक्षा के क्षेत्र में वापस लौटने का इरादा रखती है.

शुमायला की आँखों में सितारे हैं, तो 43 वर्षीय सीमा अली ने इस मुकाम तक पहुँचने के लिए कड़ी मेहनत की है कि वह अपनी बेटियों को अपनी जिंदगी खुलकर जीने का उत्साह दे सकती हैं.

सीमा कहती हैं, ‘‘पहले समाज बहुत रूढ़िवादी था, लेकिन अब इसमें काफी बदलाव आया है.’’ उन्होंने बताया कि जब वे बड़ी हो रही थीं, तो लड़कियों को घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी. उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन अब हम ऐसा करते हैं. बच्चे इलाके को अच्छी तरह से जानते हैं और उन्हें काम भी करना पड़ता है.

सीमा के लिए आजादी और आत्मविश्वास के इस दिन तक का सफर आसान नहीं था. जब उन्होंने बाहर जाकर काम करने का फैसला किया, तो उनकी इच्छा अनिच्छा से पूरी हुई. सीमा को अपने पति का समर्थन तभी मिला, जब उनकी मासिक आय 8,000 से 10,000 रुपये थी, जिसने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि वे योग्य हैं.

उन्होंने गर्व से कहा, ‘‘वे यह पसंद नहीं करते कि महिलाएं घर से बाहर निकलें और काम करें. लेकिन मेरे पति ने देखा कि हम सुरक्षित हैं और घर से बहुत दूर नहीं हैं. अब वे मुझे उन जगहों पर छोड़ देते हैं, जहां प्रदर्शनी लगती है, भले ही वह बहुत दूर क्यों न हो. मैंने अपनी कमाई से उन्हें एक स्कूटी उपहार में दी.’’

सीमा एक कारीगर के रूप में काम करती हैं और क्रॉचेट शिल्प बनाने और बेचने में बड़े पैमाने पर शामिल हैं. यह एक ऐसा शिल्प है जो पारंपरिक रूप से उन्हें विरासत में मिला है, लेकिन उन्होंने, कई महिलाओं की तरह, इसे अपने घर तक ही सीमित रखा है. अब, वह एक सामूहिक संस्था की प्रमुख सदस्य हैं.

सूती धागे से एक फूल बुनने में उन्हें एक घंटा लगता है. कई बार, वह अपना काम घर ले जाती हैं. कच्चा माल उपलब्ध कराया जाता है और शिल्प बनाने के लिए उन्हें सेवाओं के लिए भुगतान किया जाता है. सीमा इसे सख्त शब्दों में नौकरी नहीं कहती हैं, लेकिन वह अपने लाभदायक काम से खुश हैं.

सीमा अपने घर और परिवार पर पूरा ध्यान देती हैं, अपनी माँ और पत्नी की जिम्मेदारियाँ निभाती हैं और घर से बाहर काम करने के लिए किसी को भी उनके खिलाफ बोलने नहीं देती हैं.

एक महिला के घर-आधारित कर्तव्यों से यह विविधता सीम्स के घर पर भी दिखाई देती है. उन्होंने कहा, ‘‘पहले, मैं अपने पति की आय पर निर्भर थी. लेकिन अब वह घर में सक्रिय रूप से आर्थिक रूप से योगदान देती हैं.’’

उन्होंने एक बेशकीमती निजी संपत्ति दिखाई. उन्होंने खुशी से कहा, ‘‘मैंने खुद को ये भी उपहार में दिए हैं.’’ अपनी सोने की बालियाँ दिखाई, जो उन्होंने कमाई शुरू करने के एक साल बाद खरीदी थीं.

सीमा एक दशक से अधिक समय से ईशा-ए-नूर के साथ काम कर रही हैं, जो आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर (एकेटीसी) के तहत एक पहल है, जिसका उद्देश्य शिल्प-आधारित कौशल के माध्यम से शामिल महिलाओं को बेहतर और सम्मानजनक आजीविका के अवसर प्रदान करना है. एकेटीसी एक स्वयं सहायता समूह ‘सैर-ए-निजामुद्दीन’ भी चलाता है जिसमें पड़ोस के युवा शामिल हैं, जो उन्हें रोजगार के अवसर प्रदान करते हैं.

एकेटीसी के कार्यक्रम अधिकारी रांता साहनी ने बताया कि 2009 में निजामुद्दीन बस्ती का एक आधारभूत सर्वेक्षण हुआ था, जिसमें पता चला था कि केवल नौ प्रतिशत महिलाएँ अपने घरों से बाहर काम करती हैं और आस-पास के इलाकों में घरेलू नौकरों के रूप में काम करती हैं. उन्होंने कहा, ‘‘शिक्षा की कमी है, लेकिन समुदाय अपने हाथों से चीजें बनाने की ओर झुका हुआ है - ये भी उनका पारंपरिक कौशल है. इससे उनके लिए सम्मानजनक आय उत्पन्न करने के अवसर पैदा हुए.’’

साहनी ने कहा, ‘‘कुछ आगे आने वाली महिलाओं ने अन्य महिलाओं को आगे आने के लिए राजी करने में मदद की.’’ पैसे कमाना और घर में योगदान देना उनके लिए लगे रहने की सबसे बड़ी प्रेरणा थी. उन्होंने कहा, ‘‘उन्हें अपने बच्चों को बेहतर जीवन देने के लिए किसी से पैसे मांगने की जरूरत नहीं पड़ी. श्रम की गरिमा समाज के इस तबके में जहाँ महिलाएँ बमुश्किल साक्षर हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें यह मानने के लिए तैयार किया जाता है कि दुनिया घर और परिवार से शुरू होती है और वहीं खत्म होती है, उनके लिए सशक्तिकरण का क्या मतलब है? उनके पास पर्याप्त पैसा है और वे परिवार पर निर्भर नहीं हैं, जबकि वे अभी भी एक साथ हैं घ