-फ़िरदौस ख़ान
देश के मध्य में स्थित मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल कभी नवाबों की रियासत हुआ करती थी. इस रियासत पर चार मुस्लिम औरतों ने 107 बरस तक हुकूमत की है. साल 1819 से 1926 तक की हुकूमत के दौरान उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे किसी भी लिहाज़ से मर्दों से कम नहीं हैं. क़ाबिले ग़ौर है कि भोपाल रियासत की स्थापना साल 1723 में अफ़ग़ान सरदार दोस्त मुहम्मद ख़ान ने की थी.
क़ुदसिया बेगम
क़ुदसिया बेगम भोपाल रियासत की पहली नवाब थीं. उन्हें गौहर बेगम के नाम से भी जाना जाता है. उनका निकाह नवाब नज़र मुहम्मद ख़ान से हुआ था. उन्होंने 10सितम्बर 1817 को एक बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम सिकंदर बेगम रखा गया.ज़िन्दगी बहुत अच्छी गुज़र रही थी. उनके पास सबकुछ था.
इज़्ज़त, दौलत, शौहरत और ताक़त. मगर ज़िन्दगी हमेशा ऐसी नहीं रहती, जैसी इंसान चाहता है. बात 11 नवम्बर 1819 की है. उनके परिवार के लोग शिकार खेलने के लिए अपने पड़ौस के इस्लामनगर में गए थे. सब बहुत ख़ुश थे. नवाब नज़र मुहम्मद ख़ान अपनी बेटी सिकंदर बेगम के साथ खेल रहे थे.
इसी खेल-खेल में क़ुदसिया बेगम के आठ साल के भाई मुहम्मद ख़ान ने अपने बहनोई नवाब नज़र मुहम्मद ख़ान की बेल्ट से पिस्तौल निकाल ली और उससे खेलना शुरू कर दिया. इसी दौरान उससे गोली चल गई, जो नवाब नज़र मुहम्मद ख़ान को लग गई. इस हादसे में उनकी मौत हो गई. उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 28 साल थी. उन्होंने भोपाल पर तीन साल और पांच महीने ही हुकूमत की थी. उस वक़्त क़ुदसिया बेगम की उम्र 18साल थी.
नवाब नज़र मुहम्मद ख़ान ने वसीयत की थी, जिसमें लिखा था कि उनकी मौत के बाद क़ुदसिया बेगम को नवाब माना जाए. जब उनकी बेटी सिकंदर बेगम बड़ी हो जाए, तो उसका निकाह बराबरी के किसी रिश्तेदार से कर दिया जाए और फिर उसके शौहर को नवाब माना जाए.
रियासत के सामंतों और ब्रिटिश हुकूमत की रज़ामंदी से यह फ़ैसला किया गया कि क़ुदसिया बेगम के प्रतिनिधित्व के तहत नज़र मुहम्मद ख़ान के भतीजे मुनीर मुहम्मद ख़ान को नवाब बनाया जाएगा और उसका निकाह उनकी बेटी सिकंदर बेगम से करवा दिया जाएगा.
क़ुदसिया बेगम ने इस फ़ैसले का विरोध किया. उधर उनके विरोधी मुनीर मुहम्मद को उकसा रहे थे. जब मामला बढ़ गया, तो ईस्ट इंडिया कम्पनी के राजनीतिक प्रतिनिधि मेडॉक्स ने हस्तक्षेप करके उनके दरम्यान समझौता करवा दिया. इस समझौते के तहत मुनीर मुहम्मद ख़ान सालाना 40 हज़ार रुपये के मुआवज़े के एवज में अपने छोटे भाई जहांगीर मुहम्मद ख़ान के हक़ में इस्तीफ़ा देने के लिए मान गए.
गवर्नर जनरल ने जहांगीर मुहम्मद ख़ान को नवाब बनाने की सिफ़ारिश की थी. यह भी तय किया गया कि जैसे ही जहांगीर मुहम्मद ख़ान की सिकंदर बेगम से सगाई हो, तो उन्हें नवाब घोषित कर दिया जाए. अप्रैल 1828में उनकी सगाई हुई और इसी के साथ उन्हें भोपाल रियासत का नवाब घोषित कर दिया गया.
क़ुदसिया बेगम रियासत की हुकूमत संभाल रही थीं. वे ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त तक हुकूमत करना चाहती थीं. इसलिए वे अपनी बेटी की शादी टालती रहीं. वहीं जहांगीर मुहम्मद ख़ान हुकूमत संभालने के लिए बेताब था. उसने प्रशासनिक अधिकार हासिल करने के लिए गवर्नर जनरल लार्ड विलियन बैटिंग ने गुज़ारिश की. आख़िरकार 17अप्रैल 1835को सिकंदर बेगम का निकाह जहांगीर मुहम्मद ख़ान से हो गया.
क़ुदसिया बेगम ने अपनी हुकूमत जारी रखी. वे बहुत अच्छी तरह रियासत के तमाम कामकाज संभाल रही थीं. युवा नवाब जहांगीर मुहम्मद ख़ान को यह सब रास नहीं आ रहा था. नतीजतन उनके दरम्यान मतभेद पैदा हो गए. बात विवाद तक पहुंच गई. एक दिन जहांगीर मुहम्मद ख़ान ने अपनी सास क़ुदसिया बेगम और पत्नी सिकंदर बेगम को क़ैद करने की साज़िश रची. मगर वे अपनी बेटी को लेकर महल से निकलने में कामयाब हो गईं.
उन्होंने दामाद को गिरफ़्तार करने के लिए एक सैन्य टुकड़ी भेजी. इस सैनिक संघर्ष में तक़रीबन 300सिपाहियों की मौत हो गई. ब्रिटिश हुकूमत के हस्तक्षेप के बाद नवम्बर 1837में हुकूमत की बागडौर जहांगीर मुहम्मद ख़ान को सौंप दी गई. क़ुदसिया बेगम को सालाना पांच लाख रुपये का अनुदान दिया गया. वे इस्लामनगर में रहने लगीं. साल 1877में दिल्ली में आयोजित समारोह में उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ़ द इंपीरियल क्रॉस’ से नवाज़ा गया. इसके चार साल बाद उनका इंतक़ाल हो गया.
क़ुदसिया बेगम नरम दिल और इंसाफ़ परस्त हुकुमरान थीं. वे किसी से कोई भेदभाव नहीं करती थीं. उनके विश्वस्त सिपाहसालारों में ईसाई और हिन्दू भी शामिल थे. वे शानदार घुड़सवार थीं. सैनिक संघर्ष में वे ख़ुद सेना का नेतृत्व किया करती थीं. वे अवाम के सुख-दुख का ख़्याल रखती थीं और उनका हाल जानने के लिए भेस वदल कर रियासत में घूमा करती थीं.
उन्होंने बहुत से सुधार के काम किए. वे अपने दरबान में लोगों के मामलों का निपटारा किया करती थीं. उन्होंने रियासत में मुफ़्त पीने के पानी का इंतज़ाम किया. उन्होंने मुसाफ़िरख़ाना बनवाया. उनके शासनकाल में लोग ख़ुशहाल थे.उन्होंने भोपाल में जामा मस्जिद की तामीर करवाई.
उन्होंने अपने लिए पांच मंज़िला महल भी बनवाया, जिसे गौहर महल कहा जाता है. इसे तालाब की तरफ़ उतरते हुए ढालान पर बनवाया गया. महल के दरबार-ए-आम में एक ऊंचा चबूतरा है. इसके पीछे एक झरोखा है. कहा जाता है कि बेगम यहीं से अवाम से मुख़ातिब होती थीं.
इस महल में उनका एक ख़ास कमरा था, जिसे शीश महल कहते हैं. इसमें लकड़ी और शीशे का बेहद ख़ूबसूरत काम है. उन्हें इत्र का बहुत शौक़ था. इसलिए महल में इत्र के छिड़काव के लिए भी इंतज़ाम किया गया था, ताकि जहां से वे गुज़रें उन पर इत्र का छिड़काव किया जा सके.
सिकंदर बेगम
भोपाल रियासत की दूसरी नवाब का नाम सिकंदर बेगम था. वे रियासत की पहली नवाब क़ुदसिया बेगम की बेटी और नवाब जहांगीर मुहम्मद ख़ान की पत्नी थीं. नवाब की मौत के बाद मुहम्मद ख़ान को सत्तासीन करा दिया गया था. लेकिन नज़र मुहम्मद ख़ान के ब्रिटिश हुकूमत के साथ हुए समझौते के मुताबिक़ उनकी मौत के बाद उनकी बेटी या दामाद को नवाब बनाया जाना तय हुआ था. इसलिए ब्रिटिश हुकूमत ने मुहम्मद ख़ान की नियुक्ति को ख़त्म कर दिया.
सिकंदर बेगम ने 29 जुलाई 1838 को बेटी को जन्म दिया था, जिसका नाम शाहजहां बेगम रखा गया. ब्रिटिश हुकूमत ने 3जनवरी 1847 को शाहजहां बेगम के उत्तराधिकार को मान्यता दी और 11अप्रैल 1845 को उन्हें रियासत का प्रमुख घोषित कर दिया गया. देश के गवर्नर जनरल के राजनीतिक प्रतिनिधि जोसेफ़ डेवी कनिंघम ने उसी साल 27 जुलाई को सिकंदर बेगम को रियासत का प्रतिनिधि नियुक्त करने का ऐलान किया.
सिकंदर बेगम को भी हुकूमत के दौरान कई परेशानियों का सामना करना पड़ा. नवाब बनने के बाद उन्होंने अपने मामा मियां फ़ौजदार मुहम्मद ख़ान को रियासत का मंत्री बनाया. मंत्री बनते ही उसने अपने क़रीबियों को अहम ओहदों पर बिठा दिया. वे हुकूमत को अपनी मुट्ठी में करना चाहता था, लेकिन सिकंदर बेगम ने इसे ज़्यादा वक़्त तक बर्दाश्त नहीं किया. आख़िरकार उसे अपने ओहदे से इस्तीफ़ा देना पड़ा. इसके बाद उन्होंने राजा यशवंत राय को मंत्री बनाया.
वे भी अपनी मां की तरह ही अपनी बेटी शाहजहां बेगम की शादी में आना-कानी करती रहीं. आख़िरकार 26 जुलाई 1854को शाहजहां बेगम का रियासत के सेनापति बक़ी मुहम्मद ख़ान से निकाह हो गया. सिकन्दर बेगम ने ब्रिटिश हुकूमत से मिलकर नया क़ानून लागू करवाया, जिसके मुताबिक़ अगर रियासत में लड़के के बजाय लड़की जन्म लेती है, तो वही शासक होगी. उसके पति को शासक नहीं बनाया जाएगा.
जब रियासत के कुछ लोगों ने सीहोर में विद्रोह कर दिया था, तो उन्होंने अपनी फ़ौज भेजकर सीहोर छावनी की सुरक्षा में अंग्रेज़ों की मदद की. उन्होंने साल 1857की आज़ादी की पहली लड़ाई में ब्रिटिश हुकूमत का साथ दिया, जिसके बदले में उन्हें बहुत सी सहूलियतें दी गईं.
इसके बाद 3मार्च 1860 को ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें ज़िन्दगी भर के लिए भोपाल के नवाब की हैसियत से मान्यता दे दी. अगले साल ही उनकी सैन्य सलामी को बढ़ाकर 19बंदूक़ की कर दिया गया. गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि हैमिल्टन ने इस आदेश को लागू किया था.
सिकंदर बेगम ने अपनी रियासत का विस्तार किया. उन्होंने 7फ़रवरी 1861 को जबलपुर में वायसरॉय से मुलाक़ात की. उनके कहने पर धार रियासत के एक हिस्से बैरसिया परगना को भोपाल रियासत में दे दिया गया. इसकी सनद 27दिसम्बर 1861को जारी की गई. इसी साल नवम्बर में इलाहाबाद में उन्हें ग्रेंड कमांडर ऑफ़ द स्टार ऑफ़ इंडिया के ख़िताब से नवाज़ा गया.
भारत के तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड कैनिंग ने सिकंदर बेगम की तारीफ़ करते हुए कहा था- “वह रियासत जिसे हमारे दुश्मनों से ख़तरा था, उसका आपने एक औरत होकर भी साहस, क्षमता और सफ़लता के साथ जिस प्रकार मार्गदर्शन किया है, वह किसी भी राजनेता या सैनिक के लिए गर्व की बात है. ऐसी सेवाओं के लिए पुरस्कार अवश्य ही मिलना चाहिए."
सिकंदर बेगम ने भी शानदार इमारतों की तामीर करवाई. उन्होंने लाल मोती मस्जिद, मोती महल और शौकत महल बनवाया. उन्होंने भी अपनी मां की तरह अवाम की भलाई के लिए बहुत से काम किए. उन्होंने एक चिकित्सा विभाग स्थापित करवाया, जिसमें एक यूनानी चिकित्सा अधिकारी तैनात किया गया.
उनके शासनकाल में रियासत का पहला सर्वेक्षण भी किया गया. उन्होंने रियासत को तीन ज़िलों और 21तहसीलों में तक़सीम किया. हर ज़िले के लिए एक राजस्व अधिकारी और हर तहसील के लिए एक प्रशासक नियुक्त किया गया. उन्होंने रियासत का 30 लाख का क़र्ज़ भी चुकाया. उन्होंने एक सीमा शुल्क कार्यालय, एक सचिवालय, एक ख़ुफ़िया नेटवर्क, एक टकसाल और एक डाक सेवा भी स्थापित करवाई, जो रियासत को समूचे भारत से जोड़ती थी. उन्होंने एक आधुनिक न्यायपालिका भी स्थापित की.
उन्होंने शिक्षा ख़ासकर लड़कियों की तालीम को बढ़ावा दिया. उन्होंने मदरसा सुलेमानी और विक्टोरिया स्कूल खुलवाये. उन्होंने रियासत के हर ज़िले में कम से कम एक उर्दू और हिन्दी माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की. उन्होंने साल 1847 में एक मजलिस-ए-शूरा यानी संसद की शुरुआत की.
इसका मक़सद ओहदेदारों, रईसों और आलिमों से मिलकर जनहित के क़ानून बनाना और सुधारों के लिए सलाह देना था. पहले इसके कामकाज की भाषा फ़ारसी थी, लेकिन साल 1862में उर्दू को इसकी जगह दे दी गई.0वे घोड़े पर बैठकर रियासत का दौरा किया करती थीं. वे सेना, अदालतों, दफ़्तरों, टकसाल और ख़ज़ाने का जायज़ा लिया करती थीं. उन्हें शिकार खेलने का भी शौक़ था. उन्होंने बाघों का शिकार किया. उन्हें खेलों में भी दिलचस्पी थी. वे पोलो खेलती थीं. वे बेहतरीन तलवारबाज़, तीरंदाज़ और लांसर थीं.
अंग्रेज़ों से दिल्ली की जामा मस्जिद ख़ाली करवाई
सिकंदर बेगम को घूमना भी बहुत पसंद था. उन्होंने देशभर का दौरा किया और तीन बार वायसरॉय से मुलाक़ात की. वे 22जनवरी 1862को अपने दिल्ली सफ़र के दौरान जामा मस्जिद भी देखने गईं. उस वक़्त दिल्ली की जामा मस्जिद को ब्रिटिश फ़ौज की घुड़साल में तब्दील कर दिया गया था. दरअसल 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने इसे बंद कर दिया था. उन्हें डर था कि कहीं मुसलमान इकट्ठे होकर उनके ख़िलाफ़ साज़िश न रचें.
उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से इस मस्जिद को हासिल किया. उन्होंने मस्जिद की साफ़-सफ़ाई करवाई और इसमें शाही इमाम नियुक्त किया.
वे हज करने वाली पहली भारतीय शासक थीं. वे भोपाल में मस्जिद बनवाना चाहती थीं, लेकिन ज़िन्दगी ने उन्हें इसकी मोहलत नहीं दी. 30अक्टूबर 1868को किडनी फ़ेल हो जाने से उनकी मौत हो गई. उन्हें भोपाल के फ़रहत अफ़ज़ा बाग़ में सुपुर्दे ख़ाक किया गया. बाद में उनकी बेटी शाहजहां बेगम ने उनकी इस ख़्वाहिश को पूरा किया.
शाहजहां बेगम
भोपाल रियासत की तीसरी नवाब का नाम शाहजहां बेगम था. वे भी अपनी नानी क़ुदसिया बेगम और मां सिकंदर बेगम की तरह ही योग्य शासक थीं. उन्होंने अपनी नानी और मां के जनहित के कामों को आगे बढ़ाया. उन्होंने शिक्षा को बढ़ावा दिया और रियासत में विद्यालय खुलवाए. उन्होंने शासकीय नौकरी के लिए स्कूल और कॉलेज के दस्तावेज़ों को अनिवार्य कर दिया. उन्होंने होशंगाबाद और भोपाल के बीच रेलवे लाइन के निर्माण आदि परियोजनाओं में भारी निवेश किया.
उन्हें भी इमारतें बनवाने का बहुत शौक़ था. उन्होंने भोपाल में बहुत सी इमारतें बनवाईं, जिनमें नूर मस्जिद, नूर महल, ताज महल, बेनज़ीर मंज़िल, क़स्र-ए-सुल्तानी महल और ताजुल मस्जिद आदि शामिल हैं. ताजुल मस्जिद देश सबसे बड़ी मस्जिदों में शुमार होती है.
उनकी ज़िन्दगी में यह मुकम्मल नहीं हो सकी. बाद में उनकी बेटी सुल्तान जहां बेगम ने इसे मुकम्मल करवाया. शाहजहां बेगम ने अपने वालिद जहांगीर मुहम्मद ख़ान और मां सिकंदर बेगम का मक़बरा भी बनवाया. उन्होंने इंग्लैंड में भी एक मस्जिद की तामीर करवाई थी, जिसे शाहजहांनी मस्जिद कहा जाता है.
वे हुकुमरान होने के साथ-साथ एक अच्छी लेखिका भी थीं. उन्होंने ऊर्दू में कई किताबें लिखीं. उनके उत्कृष्ट कार्यों व उपलब्धियों के लिए उन्हें साल 1872 में नाइट ग्रैंड कमांडर बनाया गया था. उन्होंने 16 जून 1901 को इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया.
सुल्तान जहां बेगम
भोपाल रियासत की चौथी नवाब का नाम सुल्तान जहां बेगम था. उन्होंने अपनी मां शाहजहां बेगम की मौत के बाद हुकूमत संभाली. उन्होंने अपने बड़े बेटे नवाब मुहम्मद नसरुल्लाह ख़ान के साथ मिलकर हुकूमत की. वे अपनी मां, नानी और परनानी की तरह ही योग्य शासक थीं.
वे शिक्षित थीं और शिक्षा की अहमियत को बहुत अच्छी तरह समझती थीं. उन्हें भी अपनी मां की तरह पढ़ने और लिखने का बहुत शौक़ था. उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी. उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी कई किताबें लिखीं.उन्होंने साल 1905में इंदौर में शाही दंपत्ति वेल्स के राजकुमार और राजकुमारी से मुलाक़ात की और उन्हें सम्मानित किया.
साल 1911 में इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम की मौत हो गई. जॉर्ज पंचम का नये राजा के रूप में राज्याभिषेक किया जाना था. इस समारोह में शिरकत करने के लिए उन्हें लन्दन में बुलाया गया. इस मौक़े पर उन्हें मैडल देकर सम्मानित किया गया. उन्होंने बेसहारा महिलाओं के लिए भी सराहनीय काम किए.
उन्होंने विधवा और निराश्रित महिलाओं के लिए साल 1905 में एक कला विद्यालय शुरू किया. वे महिलाओं के अधिकारों के प्रति सजग थीं और उन्हें जागरूक करना चाहती थीं. उन्हें साल 1914में अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन का अध्यक्ष मनोनीत किया गया. उन्होंने साल 1918 में अखिल भारतीय मुस्लिम महिला संगठन का गठन किया. वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की संस्थापक कुलाधिपति थीं. इस पद पर पहुंचने वाली वे पहली भारतीय महिला थीं.
उन्होंने शिक्षा के साथ-साथ कृषि को भी बढ़ावा दिया और सिंचाई व्यवस्था को बेहतर बनाया. उन्होंने सेना, पुलिस और न्यायपालिका का भी विस्तार किया. उन्होंने साल 1922 में एक कार्यकारी और विधान परिषद की स्थापना की और नगरपालिकाओं के लिए चुनाव शुरू करवाए.
उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव के बहुत से काम किए. उन्होंने अपनी मां शाहजहां बेगम की तरह सांची के प्राचीन बौद्ध स्तूप के संरक्षण के लिए आर्थिक सहायता दी. उन्होंने साल 1919 में वहां स्थित पुरातत्व संग्रहालय को भी वित्तीय सहायता दी. बाद में इसे सांची संग्रहालय का नाम दिया गया.
साल 1902 से 1928 के दौरान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे जॉन मार्शल ने अपनी किताब ‘अ गाइड टू सांची’ में इस आर्थिक सहायता का ज़िक्र करते हुए सुल्तान जहां बेगम की सराहना की है. 9 जुलाई 1858 को जन्मी सुल्तान जहां बेगम का निकाह अहमद अली ख़ान बहादुर से हुआ था.
उन्होंने साल 1926 में अपने सबसे छोटे इकलौते जीवित बेटे मुहम्मद हामिदुल्लाह ख़ान को हुकूमत की ज़िम्मेदारी सौंप दी. वे भोपाल रियासत के आख़िरी नवाब थे. सुल्तान जहां बेगम ने 12 मई 1930 को अपने क़स्र-ए-सुल्तानी महल में आख़िरी सांस ली.
देश की आज़ादी के बाद साल 1956में भोपाल रियासत को मध्य प्रदेश में मिला लिया गया. मुहम्मद हामिदुल्लाह ख़ान के तीन बच्चे थे. उनकी दूसरी बड़ी बेटी साजिदा सुल्तान का निकाह पटौदी परिवार के आठवें नवाब इफ़्तिख़ार अली ख़ान से हुआ था. उनके बेटे मंसूर अली ख़ान पटौदी प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी थे. उन्होंने प्रसिद्ध अभिनेत्री शर्मिला टैगोर से शादी की थी. प्रसिद्ध अभिनेता सैफ़ अली ख़ान इसी ख़ानदान के चश्मो-चिराग़ हैं.
भोपाल की शानदार ऐतिहासिक इमारतें इस बात की गवाह हैं कि यहां की मुस्लिम महिला शासकों ने किस आन-बान और शान से हुकूमत की थी.
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)