नैना सुहानी/ मुजफ्फरपुर, बिहार
मासिक धर्म एक ऐसा विषय है जिस से ग्रामीण इलाकों में अनगिनत अंधविश्वास और पुरानी सोच जुड़ी हुई है. सामाजिक प्रतिबंध के कारण यहां ऐसे विषयों पर बात करना भी पाप माना जाता है. जिस वहज से महिलाएं सही जानकारी के अभाव में बीमारियों का शिकार हो जाती हैं और उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. माहवारी के समय किशोरियों के साथ-साथ गरीब महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करना काफी आवश्यक है.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (2015-2016) की रिपोर्ट की मानें तो ग्रामीण इलाकों में 48.5 प्रतिशत महिलाएं सेनेटरी नैपकिन (पैड) का उपयोग करती हैं. जबकि शहरी क्षेत्रों में 77.5 प्रतिशत महिलाएं इसका इस्तेमाल करती हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सैनिटरी नैपकिन को लेकर उम्रदराज महिलाओं की सोंच रूढियों से भरी पड़ी है. वे अपने बीच भी माहवारी के संबंध में बात करने से सकुचाती हैं. अंदरूनी अंगों की स्वच्छता के प्रति शर्म महसूस करती हैं. नतीजतन घर की किशोरियां भी खुलकर बातें करने में गुरेज करती हैं.
बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले से 37 किलोमीटर दूर गोविंदपुरी गांव का बसैठा पंचायत इसका एक उदाहरण है, जहां महिलाओं और किशोरियों के बीच भी माहवारी को लेकर आपस में बातचीत करने में शर्म महसूस की जाती है. गांव की नई पीढ़ी भी पुरानी मान्यताओं और परंपराओं का पालन करती है. इस संबंध में गांव की 32 वर्षीय अनीता कहती है कि मासिक धर्म के दौरान पूजा-पाठ नहीं किया जाना चाहिए.
मंदिरों में प्रवेश और यहाँ तक कि पूजन सामग्री को छूना भी पाप है. इस प्रथा को सही ठहराते हुए वो यह कहती है कि महिलाएं उस दौरान अशुद्ध होती हैं जिन्हें हरेक चीजों से अलग रहना होता है. खाने की वस्तु भी नहीं छूनी चाहिए. जब अनीता से पैड्स के बारे में पूछा गया तो उसने कहा कि वो अपने पैड्स शौचालय की टंकी में प्रवाहित कर देती है.
एक अन्य महिला चंपा देवी कहती हैं कि मासिक के दौरान श्रृंगार की वस्तु छूने से भी वो खराब हो जाती है. यहां की कई महिलाओं की बीच ऐसी मान्यता है कि मासिक धर्म के दौरान नहाने से गर्भाशय में पानी चला जाता है और जान का खतरा हो जाता है. इसलिए इस दौरान गांव की कई महिलाएं और किशोरियां नहाती नहीं हैं.
50 वर्षीय मीरा कहती हैं कि गांव में लड़कियों को माहवारी के बारे में कुछ नहीं बताया जाता है क्योंकि यह बात करने का विषय नहीं है. बच्चों और पुरुषों के बीच तो यह बातें करना भी गुनाह है. माहवारी के दौरान कामकाज़ी महिलाओं को खेतों में काम करने जाने नहीं दिया जाता है और पैसों की तंगी के कारण कोई जाए तो उन्हें भगा दिया जाता है.
महिलाओं को पीरियड क्यों होता है और कैसे होता है? इस विषय पर आज भी ग्रामीण इलाके की महिलाएं और किशोरियां अनजान हैं. गोविंदपुर गांव में तो इस विषय पर बात करना भी पाप माना जाता है. किसी भी किशोरी को इससे जुड़े सवाल पूछने की मनाही है.
यहां तक कि वह घर की महिलाओं से भी यह प्रश्न नहीं पूछ सकती है. केवल परंपराओं के अनुसार माहवारी शुरू होने के समय लड़कियों को डेढ़ लोटा पानी से स्नान करवाया जाता है. इसके बाद उसे घर के कई सामानों को छूने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है.
ऐसा नहीं है कि सरकार इन भ्रांतियों को समाप्त करने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही है. बिहार में आंगनवाड़ी की सेविकाओं को लड़कियों और महिलाओं बीच जागरूकता फैलाने की जिम्मेदारी मिली होती है.
इसके लिए उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जाता है. लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और होती है. गांव की महिलाएं बताती हैं कि उन्हें इस विषय में कोई जानकारी सेविका द्वारा नहीं दी जाती है. दरअसल प्रशिक्षण के बावजूद गोविंदपुरी गांव की सेविका खुद माहवारी को लेकर उसी अंधविश्वास में जकड़ी हुई है, जिससे मुक्त कराने की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी गई है.
विशेषज्ञों का मानना है कि माहवारी महिलाओं के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है. इसमें सृष्टि के निर्माण के बीज होते हैं. जिन्हें पीरियड नहीं आता है वे ना जाने कितने डॉक्टर के पास इलाज के लिए भटकती रहती हैं.
मंदिर और ओझा-गुणी के पास जाकर झाड़-फूंक करने में हजारों रुपए खर्च करती हैं. दूसरी ओर इस दौरान स्वच्छता का ध्यान न रखने और सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल नहीं करने से महिलाओं और किशोरियों को कई तरह की बीमारियों का सामना भी करनी पड़ती है. खासकर ग्रामीण महिलाएं और किशोरियां माहवारी के समय स्वास्थ्य के प्रति जागरूक नहीं होती हैं.
बहुत सी मजदूरी करने वाली महिलाओं के पास इतने पैसे भी नहीं होते कि वह ऐसे समय में सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल कर सके. परिणामतः वह गंदे कपड़े, कागज आदि का इस्तेमाल कर खुद को बीमारी का घर बना लेती हैं.
स्वच्छता और संक्रमण से बचने के लिए डॉ हेमनारायण विश्वकर्मा बताते हैं कि पीरियड के दौरान साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. अत्यधिक रक्तस्राव होने पर चिकित्सक की राय लेनी चाहिए. रक्तस्राव होने के समय सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल आवश्यक है. यदि उपलब्ध न हो तो साफ और कीटाणुमुक्त किया गया कपड़ा का इस्तेमाल किया जा सकता है.
बिहार सरकार ने फरवरी 2015 से सरकारी स्कूलों में लड़कियों के ड्राॅप आउट की दर कम करने एवं स्वास्थ्य व स्वच्छता में बेहतर सुधार के लिए ‘मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य कार्यक्रम’ के तहत 8वीं से 10 वीं कक्षा तक की किशोरियों में मुफ्त सैनिटरी नैपकिन बांटने की घोषणा की थी.
इस योजना के तहत स्कूली किशोरियों को व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए प्रति साल 150 रुपए भुगतान करने की भी योजना थी, जिसे अब बढ़ाकर 300 रुपए कर दिया गया है.
बिहार सरकार द्वारा इस कार्यक्रम के लिए अनुमानतः 37 लाख से अधिक छात्राओं के बीच लगभग 60 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों की मजदूर व गरीब महिलाओं के स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए इस प्रकार की कोई योजना दूर-दूर तक नहीं दिखती है.
फलस्वरूप अभावग्रस्त महिलाएं आज भी पुराने कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. किसानों के खेतों में काम करने वाली महिलाओं के पास दो जून की रोटी जुटा पाना मुश्किल है, ऐसे में वह भला बाज़ार से सैनिटरी नैपकिन कैसे खरीदेंगी? सरकार को जहां इस दिशा में काम करने की ज़रूरत है वहीं माहवारी से जुड़ी गलत अवधारणाओं को दूर करने के लिए भी विशेष कार्य योजना बनाने की ज़रूरत है.