मलिक असगर हाशमी / नई दिल्ली
हैदराबाद के मौलाना आजाद उर्दू विश्वविद्यालय से लेकर दिल्ली के कई साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान संगोष्ठियां एवं अध्ययन के माध्यम से यह तलाश ने लगे हैं कि उर्दू और दीनी साहित्यिक में गैर-मुस्लिमों का किस हद तक योगदान रहा है. अब बारी है कि यह खोजने की कि किस हद तक मुसलमानों का हिंदी और दूसरे धर्मों के साहित्य के विस्तार में योगदान रहा है. यदि दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेले को पैमाना मान लिया जाए तो निराशी होगी.
विश्व पुस्तक मेले के 3,4,5-किसी भी पवेलियान का चक्कर लगा आएं, यह देखकर नाउम्मीदी बढ़ जाएगी कि हिंदी साहित्य में मुसलमानों का योगदान ना के बराबर है. इसकी जगह मेले में उर्दू साहित्य में दूसरे समुदाय के साहित्यकारों का योगदान अधिक देखने को मिला.
नई वाली हिंदी प्रकाशक के पंडाल में नई पीढ़ी के साहित्यकार अधिक जुट रहे हैं. पुस्तकों के साथ युवा सेल्फी भी लेते मिले, पर यहां भी मुस्लिम युवा वर्ग का अभाव नजर आया.नई वाली हिंदी प्रकाशक के शैलेश जी से जब इस संवाददाता ने पूछा कि क्या मुस्लिम युवा का हिंदी साहित्य में हाथ तंग क्यों है, विशेषकर मौजूदा दौर में ? निराशा भरे इस सवाल पर पानी डालने के अंदाज में वह बोले, ‘‘नहीं-नहीं. कई मुस्लिम लेखक हैं जो हिंदी में लिख रहे हैं.’’
संवादादता की निराशा को दूर करने के लिए उन्हांेने शेल्फ में सजी सैकड़ों किताबों के जखीरे से दो-चार किताबें हाथ पर धर कर बोले,‘‘ देखिए, हैं न हिंदी में लिखने वाले मुस्लिम साहित्यकार.’’
यह किताबें थीं काफिराना, जिसके लेखक थे गफ्फार अत्तार. एक अन्य किताब थी आधे सफर का हमसफर, जिसके लेखक थे शहादत. तीसरी पुस्तक थी वसीम अकरम की लिखी ‘नैन बंजारे’. अलग बात है कि चौथी पुस्तक ‘सिस्टर लिसा की रन पर रूकी हुई रात’ की लेखिका विजयश्री तनवीर थीं.
इस पुस्तक को देखकर जब उनसे सवाल किया गया कि यह तो मुसलमान नहीं हैं ? वह बात टालने की गरज से बोले,‘‘ हां, पर मुसलमानों के विषय पर अधिक लिखती हैं.’’मौजूदा दौर में हिंदी साहित्य में मुसलमानों के योगदान की खोज में इस संवददाता ने कई बड़े प्रकाशकांे के पांडाल खंगाले, पर कुछ विशेष हाथ नहीं लगा.
हद यह कि हिंदी के बाल साहित्य में भी मुसलमानों का उल्लेखनीय योगदान नजर नहीं आया. इकराता पब्लिकेश में तमाम तरह के बाल साहित्य मौजूद हैं. विशेषकर छोटे बच्चांे के लिए, जिसमें चित्रों के साथ छोटी, छोटी कहानियों के माध्यम से नैतिकता और जागरूकता के पाठ पढ़ाए गए हैं. इस स्टाल में भी सैकड़ों किताबों में केवल नाहिदा काजमी की ‘ वो नारंगी घर’ नजर आई.
बोधि प्रकाशन के पवेलियन में किताबों की भीड़ में ‘बहादुरशाह जफर: जीवन, युग और शख्सियत’ नजर आई. इसके लेखक हैं असलम परवेज. संवाद प्रकाशन के पवेलियन में पुस्तकों के बीच ‘भारतीय मुसलमान‘ एवं जंग ए आजादी में मुस्लिम समाज’ का योगदान’, नजर आईं. मगर इसके लेखक कोई मुसलमान नहीं बल्कि विलियम डब्ल्यू हंटर और राघव शरण शर्मा आदित्य थे.
साहित्य को समाज का आईना कहा जाता है. विश्व पुस्तक मेले में आकर अनुभव हुआ कि एक कौम अपने समाज का आईना दिखाने में पूरी तरह विफल है. भारत में हिंदी सर्वाधिक बोली और पढ़ी जाती है. मगर मुस्लिम समाज इस भाषा का इस्तेमाल अपनी बातें कहने में उतना सफल नहीं, जितना वक्त की जरूरत है.
प्रकाशन संस्थान के मनोज जी इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘‘ अपनी बातें दूसरों तक सही तरीके से पहुंचानी है तो हिंदी को माध्यम बनाना ही होगा.’’ वह कहते हैं कि शायद यही वजह है कि अब पुराने इतिहासकारों पर उंगली उठाई जा रही है कि उन्होंने अपने हिसाब से भारतीय इतिहास को प्रस्तुत किया है, जिसकी वजह से अब भ्रम की स्थिति है.