—ज़ाहिद खान
बुराई पर अच्छाई की जीतका प्रतीक त्यौहार 'विजयदशमी'हर साल पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है. दशहरे से पहले कई जगह 'रामलीला' होती हैं. एक दौर था, जब 'रामलीला' सभी के आकर्षण का केन्द्र हुआ करती थीं. लोगों को इसका साल भर इंतज़ार रहता था. अदाकारी के शौक़ीन 'रामलीला' में अपना पार्टकरने के लिए महीनों तैयारी करते थे.
इसके लिए बाकायदा चंदा होता और वे इंतज़ाम मेंजुट जाते. 'रामलीला' की शुरुआत से ही लोग पूरीअकीदत से इसे रात—रात भर देखते थे. लेकिनदेखते—देखते वक़्त बदला, लोगों कीदिलचस्पियाँ भी बदल गईं. नई पीढ़ी में 'रामलीला' का वह पहले जैसा क्रेज नहीं रहा. तथाकथित आधुनिकता की बयार, बाजारवाद और जिंदगी की जद्दोजहद ने हमारे तमाम त्यौहारोंसे उनकी रौनक छीन ली.
त्यौहार भी औपचारिक होकररह गए. इन त्यौहारों पर अब पहले जैसा जश्न, साम्प्रदायिक सद्भाव और चेहरे पर कहीं ख़ुशियाँदेखने को नहीं मिलतीं. साम्प्रदायिक सद्भाव,ख़ुलूस, मुहब्बत,आपसी भाईचारा औरहमारे त्योहारों को भी जैसे ज़माने की नज़र लग गई.
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के निवासी मेरे नाना शमशेर खाँ अपने नगर में हर साल दशहरे पर होने वाली 'रामलीला' में रावण का किरदार अदा करते थे. नानी के घर की दीवार पर आज भी रावण के गेटअप में उनकी एकआकर्षक तस्वीर लगी हुई है. इस तस्वीर कोदेखने से एहसास होता है कि अपने गेट अप और मेकअप के लिए नाना,
किस क़दर ख़ास तैयारी किया करते थे. उस ज़माने में यानी आज से चार—पॉंच दशक पहले,जब मेकअप और ड्रेसें परंपरागत तौर पर बनाईजाती थीं. सीमित संसाधनों में अत्याधिक प्रभाव पैदा करनेके लिए क्या—क्या जुगत भिड़ाना पड़ती होगी . इस तस्वीर कोदेखने से पता चलता है.
शमशेर खाँ
इस तस्वीर के अलावादीवार पर एक और तस्वीर लगी हुई है, इस तस्वीर मेंनाना कंस के गेटअप में बाल कन्हैया को एक हाथ से ऊपर उठाए हुए हैं. टीकमगढ़ की चार दशक से ज़्यादा पुरानी यह 'रामलीला' और 'कृष्ण लीला'तो मैंने नहीं देखी. लेकिन बचपन की एक बात, जो मुझे अभी तक याद है, नाना दीपावली पर लक्ष्मी जी की पूजा भी करते थे.
पूजा के बाद हम बच्चों को खीलें—बताशे और मिठाइयां मिलती. भले ही नाना के इंतकाल के बाद, उनके घर में यह परंपरा खत्म हो गई हो. लेकिन इस रिवायत को मेरी मॉं ने हमारे यहां जिंदा रखा. हमारे छोटे से नगर शिवपुरी में भी उन दिनों, दो जगह पर 'रामलीला' खेली जाती थी.
मॉं दोनों ही रामलीला में हम बच्चों को साथ ले जातीं. जिसका हम जी—भरकर लुत्फ़ उठाते. ख़ास तौर पर भगवान राम, उनकी वानर सेना और रावण की सेना के बीच चलने वाला युद्ध हमबच्चों को ख़ूब पसंद आता. उन दिनोंरामलीला का ख़ुमार मोहल्ले के बच्चों पर इस क़दर छा जाता कि बांस की पतली डंडियोंके छोटे—छोटे धनुष—बाण बनाकर आपस में खेला करते.
कुछ बच्चे गदाबनाकर, जिसे हम सोठा कहते थेहनुमान जी का अभिनय करते. जिस मोहल्ले मेंमेरा बचपन गुजरा, वहहोली—दीवाली—रक्षाबंधन गोया कि हर त्यौहार, मज़हब की तमाम दीवारों से ऊपर उठकर, हम पूरे जोश—ओ—ख़रोश से मनाते थे. आज भी यहपरम्परा टूटी नहीं है.
बस उन्हें मनाने का अंदाज़ बदल गया है. 'रामलीला' में अदाकारी के जानिब नाना के जुनून, ज़ौक़ और शौक़ की कुछ दिलचस्प बातें, मेरी मॉं अक्सर बताया करती हैं. मसलन नाना 'रामलीला' के लिए घर से ही तैयार हो कर जाया करते थे. उन्हें रामायण की तमाम चौपाइयां मुँह ज़बानी याद थी.
रावण के अलावा 'रामलीला' में वे ज़रूरत केमुताबिक और भी किरदार निभा लिया करते थे. रावण का किरदार उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िरतक निभाया. उनकी बीमारी की हालत मेंभी 'रामलीला' के संयोजकों ने उनसे नाता नहीं तोड़ा. उनकी नाना से गुज़ारिश होती कि वे बस तैयार होकर, रामलीला स्थल पर आ जाएं.
बाक़ी वे संभाल लेंगे.जैसा कि अमूमनहोता है, मंच पर आते ही हर कलाकारजिंदा हो जाता है. वह अपने किरदार में इस तरह ढल जाता है, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो. ऐसा ही नाना के साथ होता और वे बीमारी की हालत में भी अपनारोल अच्छी तरह से निभा जाते.
सबसे दिलचस्पबात, जिसे मेरी मां ने बताया,नाना के निधन के बाद एक मर्तबा दशहरे के वक्तवह टीकमगढ़ में ही थीं. दशहरा का जुलूसनिकला, तो ज़ाहिर है कि वे उसेदेखने पहुँची. जुलूस देखा, तो उन्हें काफ़ी निराशा हुई और उन्होंने पास हीखड़ी एक बुजुर्ग महिला से बुंदेली बोली में पूछा, ''काहे अम्मा ऐसा जुलूस निकलत, ईमें रावण तो हैई नईएं ?
''बुजुर्ग महिला ने इस सवालका जवाब देते हुए कहा, ''का बताएं बिन्नू,रावण ही मर गया.''मॉ ने हैरानी से पूछा,''रावण मर गया !''''हां बेन ! रावणमर गया. जो भईय्या रावण का पार्ट करत थे, वे नहीं रहे। वे नहीं रहे, तो रामलीला भी बंद हो गई.''