मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली
बसंत पंचमी का त्यौहार हर साल खास महत्व रखता है, लेकिन इस बार यह दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन दरगाह पर विशेष रूप से मनाया गया, जहाँ गंगा-जमुनी तहजीब और भाईचारे का अनूठा उदाहरण देखने को मिला. इस मौके पर दोनों समुदायों के लोग पीले कपड़ों में सजे-धजे नजर आए और फूलों से लदी दरगाह ने वातावरण में रंग और खुशबू भर दी. इस अवसर पर शास्त्रीय कव्वाली और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों ने इस धार्मिक आयोजन को और भी यादगार बना दिया.
हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हर साल बसंत पंचमी के दिन विशेष आयोजन होते हैं. इस दिन दरगाह को पीले फूलों से सजाया जाता है और हजरत निजामुद्दीन औलिया एवं अमीर खुसरो की मजारों पर पीले रंग की चादर चढ़ाई जाती है. यह परंपरा कई दशकों से चली आ रही है. इस दिन यहां परंपरागत सूफी कव्वाली का आयोजन किया जाता है, जिसमें गायन और संगीत का अद्भुत संगम देखने को मिलता है.
हजरत निजामुद्दीन औलिया चिश्तिया सिलसिला के सूफी संत थे, जिन्होंने प्रेम, भाईचारे और मानवता का संदेश दिया. उनका जन्म 1228 में उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में हुआ था और वे ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य थे. इस अवसर पर दरगाह में आयोजित कार्यक्रमों ने उनकी शिक्षा और विचारों को फिर से जीवित किया, जो आज भी लोगों के दिलों में ताजे हैं.
बसंत पंचमी का इतिहास और हजरत निजामुद्दीन की विशेषता
दरगाह के सज्जादानशीं ख्वाजा सैय्यद मोहम्मद निजामी ने बताया कि हजरत निजामुद्दीन औलिया को कोई औलाद नहीं थी और उनका अपने भांजे तकी उद्दीन से बहुत लगाव था.
जब तकी उद्दीन का निधन हो गया, तो हजरत निजामुद्दीन बहुत दुखी हो गए. इस समय के बाद अमीर खुसरो, जो उनके प्रिय शिष्य थे, ने अपने गुरु को खुश करने के लिए एक अनोखी पहल की.
खुसरो ने देखा कि कुछ महिलाएं पीले कपड़े पहनकर और पीले फूल लेकर मंदिर जा रही थीं. जब उन्होंने उनसे पूछा, तो महिलाओं ने बताया कि वे भगवान को प्रसन्न करने के लिए पीले फूल चढ़ाने जा रही हैं.
यह देख कर खुसरो ने भी हजरत निजामुद्दीन को खुश करने के लिए पीला कपड़ा पहना और सरसों के पीले फूल लेकर उनके पास पहुंचे.
इस दौरान उन्होंने 'सकल बन फूल रही सरसों' गाने के साथ नृत्य किया. इस दृश्य को देखकर हजरत निजामुद्दीन मुस्कुराए, और तभी से दरगाह पर बसंत पंचमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाने लगा.
दरगाह की सजावट और खास आयोजन
बसंत पंचमी के दिन हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में विशेष रूप से पीले रंग का इस्तेमाल होता है. इस दिन हरी चादर की जगह पीली चादर चढ़ाई जाती है और गुलाब की पंखुड़ियों के बदले गेंदे के फूलों की पंखुड़ियां बिछाई जाती हैं.
इस परंपरा के बारे में सज्जादानशीं सैय्यद अनीस ने बताया कि यह परंपरा 700 साल पहले शुरू हुई थी और तब से हर साल यह त्यौहार उसी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है.
“खुसरो की बसंत” महफिल
इस दिन की खासियत "खुसरो की बसंत" की महफिल है, जो हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर आयोजित होती है. इस महफिल में शास्त्रीय कव्वाली पेश की जाती है, और इस बार भी ऐसा ही हुआ. "खुसरो की बसंत" महफिल में सैय्यद जफर अहमद खान, आजम खान, कमाल साबरी सारंगी, अमीन खान, साकिब खान और मन्नान खान जैसे कव्वालों ने अपनी गायकी से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया.
कव्वाल साकिब खान ने बताया कि यह सिलसिला हर साल बसंत पंचमी के अवसर पर आयोजित होता है और इस बार यह आयोजन और भी खास था, क्योंकि अमीर खुसरो के दरबार में सूफी कव्वाली पेश करने का अवसर मिल रहा था.
भाईचारे और प्रेम का संदेश
बसंत पंचमी का यह पर्व सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश भी है. इस दिन यहां विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोग एक साथ इकट्ठे होते हैं, और आपसी प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हैं। दरगाह पर हर साल बड़ी संख्या में लोग आते हैं और इस अद्भुत एकता को महसूस करते हैं.
सज्जादानशीं ख्वाजा सैय्यद मोहम्मद निजामी ने कहा कि इस दिन सभी धर्मों के लोग एकजुट होकर दरगाह में हाजिरी देते हैं, और यह दर्शाता है कि हम सभी एक ही मालिक के पैदा हुए इंसान हैं. यह पर्व धर्म से ऊपर उठकर सभी को एकता, प्रेम और सद्भाव का संदेश देता है.
हजरत निजामुद्दीन दरगाह में मनाई गई सूफी बसंत पंचमी ने फिर से यह साबित कर दिया कि भारतीय संस्कृति में गंगा-जमुनी तहजीब का अद्भुत मेल है.
यह आयोजन न सिर्फ एक धार्मिक पर्व है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक उत्सव भी है, जो हर साल न केवल मुसलमानों, बल्कि सभी समुदायों को जोड़ता है और आपसी भाईचारे का संदेश फैलाता है.
इस दिन की महफिलों, कव्वालियों और रंग-बिरंगे फूलों के साथ दरगाह की सजावट ने यह दिखा दिया कि भारत में विविधता के बीच एकता कायम है, और यह हमें हमारे सांस्कृतिक धरोहर को समझने और सम्मानित करने का अवसर देती है.