जो काम उर्दू वाले नहीं कर सके वह संजीव सराफ कर रहे हैं, बोले जावेद अख्तर

Story by  मोहम्मद अकरम | Published by  [email protected] | Date 10-12-2023
Rajiv Saraf is doing the work which Urdu people could not do, said Javed Akhtar
Rajiv Saraf is doing the work which Urdu people could not do, said Javed Akhtar

 

मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली

रेख़्ता फ़ाउंडेशन ने उर्दू के लिए जो काम किया है और जो कर रहे हैं वह वाकई काबिल ए तारीफ़ है. पूरी दुनिया में रेख़्ता ने उर्दू को पहुंचाया है, कई देशों में रेख़्ता के माध्यम से बहुत सारे लोग उर्दू सीख रहे हैं. इसके लिए संजय सर्राफ की जितनी तारीफ की जाए कम हैं. बहुत सारी जगहों पर उर्दू को सरकारी भाषा का दर्जा दिया गया है लेकिन वहां भी उर्दू की खिदमत रेख़्ता की तरह नहीं होती है और संजीव सर्राफ जैसे लोग नहीं हैं.
 
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उक्त बातें रेख़्ता फाउंडेशन के 8वें संस्करण शुभारंभ के अवसर पर कवि, हिन्दी फिल्मों के गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने कही.उन्होंने ने कहा कि रेख़्ता ने उर्दू के फैलाव के लिए जो काम किया है उसका उदाहरण नहीं मिलता है. दुनिया में बहुत सारी जबानें हैं लेकिन उर्दू के विकास, उसे लोगों तक पहुंचाने के लिए जो काम हो रहा है वह बधाई के पात्र है.
 
उन्होंने रेख़्ता की मकबूलियत के बारे में कहा कि पूरी दुनिया में रेख़्ता ने जो लोगों के अंदर जगह बनाई है वह काबिल ए तारीफ़ है. मैं जब मुंबई एयरपोर्ट से आ रहा था तो लोगों ने पुछा कि आप रेख़्ता में जा रहे हैं. इस अवसर पर गीतकार जावेद अख्तर ने अपनी नज़्म “वो कमरा याद आता है” पढ़ा तो लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल अदबी हो गया. 
 
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मैं जब भी 

ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में तप कर 
मैं जब भी 
दूसरों के और अपने झूट से थक कर 
मैं सब से लड़ के ख़ुद से हार के 
जब भी उस एक कमरे में जाता था 
वो हल्के और गहरे कत्थई रंगों का इक कमरा 
वो बेहद मेहरबाँ कमरा 
जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था 
 
जैसे कोई माँ 

बच्चे को आँचल में छुपा ले 
प्यार से डाँटे 
ये क्या आदत है 
जलती दोपहर में मारे मारे घूमते हो तुम 
वो कमरा याद आता है 
दबीज़ और ख़ासा भारी 
कुछ ज़रा मुश्किल से खुलने वाला वो शीशम का दरवाज़ा 
कि जैसे कोई अक्खड़ बाप 
अपने खुरदुरे सीने में 
शफ़क़त के समुंदर को छुपाए हो 
वो कुर्सी 
और उस के साथ वो जुड़वाँ बहन उस की 
वो दोनों 
दोस्त थीं मेरी 
वो इक गुस्ताख़ मुँह-फट आईना 
जो दिल का अच्छा था 
वो बे-हँगम सी अलमारी 
जो कोने में खड़ी 
इक बूढ़ी अन्ना की तरह 
आईने को तंबीह करती थी 
वो इक गुल-दान 
नन्हा सा 
बहुत शैतान 
 
उन दिनों पे हँसता था 

दरीचा 

या ज़ेहानत से भरी इक मुस्कुराहट 
और दरीचे पर झुकी वो बेल 
कोई सब्ज़ सरगोशी 
किताबें 
ताक़ में और शेल्फ़ पर 
संजीदा उस्तानी बनी बैठीं 
मगर सब मुंतज़िर इस बात की 
मैं उन से कुछ पूछूँ 
सिरहाने 
नींद का साथी 
थकन का चारा-गर 
वो नर्म-दिल तकिया 
मैं जिस की गोद में सर रख के 
छत को देखता था 
छत की कड़ियों में 
न जाने कितने अफ़्सानों की कड़ियाँ थीं 
वो छोटी मेज़ पर 
और सामने दीवार पर 
आवेज़ां तस्वीरें 
मुझे अपनाइयत से और यक़ीं से देखती थीं 
मुस्कुराती थीं 
उन्हें शक भी नहीं था 
 
एक दिन 

मैं उन को ऐसे छोड़ जाऊँगा 
मैं इक दिन यूँ भी जाऊँगा 
कि फिर वापस न आऊँगा 
मैं अब जिस घर में रहता हूँ 
बहुत ही ख़ूबसूरत है 
मगर अक्सर यहाँ ख़ामोश बैठा याद करता हूँ 
वो कमरा बात करता था