फ़िरदौस ख़ान
खाना इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत है. ये खाना ही तो है, जिसके लिए इंसान घर से बेघर होता है. वे अपना घरबार छोड़कर देस से परदेस जाता है और रोज़ी-रोटी की तलाश में न जाने कहां-कहां भटकता फिरता है. देखा जाए तो दुनिया में काम की शुरुआत ही खाने से हुई है. पहले इंसान पेट भरने के लिए शिकार किया करता था. फिर खेतीबाड़ी करने लगा और अब न जाने कितने ही काम करता है.
जीने के लिए खाना बेहद ज़रूरी है. इसीलिए सभी मज़हबों में खाना खिलाने को बहुत ही सवाब का काम माना जाता है. इस्लाम की बात करें तो अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि खाना खिलाया करो और सलाम को आम करो, चाहे उससे जान पहचान हो या न हो.
जब लोग माल व दौलत के पीछे भाग रहे हैं और ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमा लेना चाहते हैं, तो इस दौर में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ख़िदमते ख़ल्क़ के जज़्बे के साथ काम कर रहे हैं. उनका मक़सद मुनाफ़ा कमाना नहीं है, बल्कि वे चाहते हैं कि उन्हें बस उनकी मेहनत- मशक़्क़त का पैसा मिल जाए.
वे इतने में ही ख़ुश हैं और ये उन पर अल्लाह का करम है कि उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं है. ऐसे ही एक शख़्स का नाम है फ़ज़लुर रहमान क़ुरैशी. दिल्ली के जामा मस्जिद इलाक़े में उनका रहमतुल्लाह होटल अंग्रेज़ों के ज़माने से लोगों को मुनासिब दाम में खाना खिला रहा है. ये रिवायत उनके वालिद हाजी रहमतुल्लाह के वक़्त से चली आ रही है. इसे फ़क़ीरों और ग़रीबों का होटल भी कहा जाता है.
रहमतुल्लाह होटल के मालिक फ़ज़लुर रहमान क़ुरैशी का कहना है कि अंग्रेज़ों के ज़माने में यहां बहुत ग़रीबी थी. बंटवारे के वक़्त ज़्यादातर अमीर लोग तो पाकिस्तान चले गए, लेकिन मज़दूर तबक़ा यहीं रह गया. उनमें दस्तकार भी शामिल थे. उनकी हालत बहुत ही ख़स्ता थी.
उन्हें दोनों वक़्त भरपेट खाना भी नहीं मिल पाता था. हालत ये थी कि ग़रीबों को त्यौहारों के मौक़ों पर भी अच्छा और लज़ीज़ खाना नसीब नहीं होता था. रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अच्छा खाना खाने के बारे में तो वे सोच भी नहीं सकते थे.उनके वालिद हाजी रहमतुल्लाह को ये सब देखकर बहुत अफ़सोस होता था.
वे चाहते थे कि ग़रीबों को भी उनकी पसंद का अच्छा खाना मिले. रोज़ाना घर से खाना पकवाकर ग़रीबों को खिलाना मुमकिन नहीं था. इसलिए उन्होंने होटल खोलने का फ़ैसला किया. उन्होंने ये अहद किया कि वे ऐसा होटल खोलेंगे, जिसमें ग़रीबों को मुनासिब दाम में अच्छा खाना मिल सके. वे चाहते थे कि ग़रीब लोग भी अपने घरवालों के साथ यहां आकर खाना खायें.
वे अपने दोस्तों और अपने रिश्तेदारों को भी यहां लाकर अच्छा और लज़ीज़ खाना खिलाएं. उन्होंने होटल खोला और हर चीज़ के बहुत ही वाजिब दाम रखे. लोग उनके होटल में आकर खाना खाने लगे. लोग यहां से खाना लेकर भी जाने लगे.वे बताते हैं कि ये होटल अंग्रेज़ों के ज़माने से है, लेकिन इसका लाइसेंस साल 1960में बना. इसकी वजह ये है कि इससे पहले लाइसेंस नहीं बना करते थे.
वे कहते हैं कि उनके वालिद हाजी रहमतुल्लाह बहुत अच्छे बावर्ची थे. वे मुग़लाई खाने पकाने में माहिर थे. अमीर लोगों को तो मुग़लई खाना मिल जाया करता था, लेकिन ग़रीब इस नेअमत से महरूम थे. उन्होंने अपने हुनर का इस्तेमाल ग़रीबों के लिए भी किया. वे अपने होटल में अच्छे से अच्छा खाना पकाते थे. खाना पकाने में शुद्ध मसालों का इस्तेमाल किया जाता था और ये दस्तूर आज भी जारी है, क्योंकि खाने की लज़्ज़त का ताल्लुक़ मसालों से भी होता है. अच्छे मसाले खाने को लज़ीज़ बनाते हैं.
होटल में साफ़-सफ़ाई का ख़ास ख़्याल रखा जाता है. वे कहते हैं कि इस्लाम में पाकी को आधा ईमान कहा गया है. यानी सफ़ाई में आधा ईमान है और बाक़ी आधा ईमान दीगर चीज़ों में है. उनका ये भी कहना है कि इस्लाम में खाना खिलाने और सलाम की बहुत बड़ी फ़ज़ीलत है.
उन्हें इस बात की बेहद ख़ुशी है कि वे खाना खिलाने के काम से जुड़े हैं. होटल में बिरयानी, नहारी, क़ौरमा, क़ीमा, स्टू, कबाब व गोश्त से बने अन्य व्यंजनों के अलावा दाल और सब्ज़ी भी मिलती है. रोटी में नान, रुमाली रोटी, लच्छा परांठा, शीरमाल और बाकरखानी भी मिलती है. यहां दही बड़े भी मिलते हैं और गुलाब जामुन, जलेबी व अन्य मिठाइयां भी मिलती हैं. यहां बड़े के गोश्त के अलावा चिकन के व्यंजन भी मिलते हैं.
यहां नहारी, पाये, क़ौरमा, हरी मिर्च क़ीमा, स्टू और दाल क़ीमा 50रुपये में मिलता है. बिरयानी 40 रुपये में मिलती है. क़ीमा आलू मटर 35 रुपये और अंडे आलू 30 रुपये में मिलते हैं. शीरमाल, लच्छा परांठा और कुलचा भी 30 रुपये में मिलता है. चावल, छोले, दाल और सब्ज़ी 15 रुपये में मिल जाते हैं. नान और रुमाली रोटी पांच रुपये में मिलती है.
क़ाबिले- ग़ौर है कि यहां पर मुफ़्त में खाना खाने वाले ग़रीबों की भी भीड़ लगी रहती है. दोपहर से रात तक होटल के सामने न जाने कितने ही लोग बैठे रहते हैं. जो लोग ग़रीबों को खाना खिलाना चाहते हैं, वे यहां आते हैं और 25से 30रुपये में एक व्यक्ति को खाना खिला देते हैं. दो रोटी और एक सब्ज़ी 25 रुपये में मिल जाती है. इसी तरह चावल और छोले या चावल और दाल 30 रुपये में मिल जाती है. यानी 250 से 300 रुपये में 10 लोगों को आराम से खाना खिलाया जा सकता है.
इलाक़े के सत्तर साल के जमाल का कहना है कि वे बचपन से इस होटल को देखते आ रहे हैं. उन्होंने एक रुपये में यहां भरपेट खाना खाया है और दूसरों को खिलाया भी है. वहीं मनोज का कहना है कि वे अकसर यहां खाना खाने के लिए आते हैं. वे अपने दोस्तों के साथ भी यहां आते रहते हैं. वे कहते हैं कि यहां स्वादिष्ट व्यंजन वाजिब दाम में मिल जाते हैं. इस होटल में परिवार के साथ भी आया जा सकता है.
अगर आप जामा मस्जिद आएं, तो रहमतुल्लाह होटल आ सकते हैं, क्योंकि यहां पर आप मुनासिब दाम में अपनी पसंद का भरपेट खाना खा सकते हैं. जामा मस्जिद के गेट नम्बर तीन के सामने मटिया महल में बायें हाथ पर ये होटल है. होटल नम्बर 105. यहां जामा मस्जिद से पैदल जाया जा सकता है.
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)