रोशनआरा/ इमानुद्दीन
पसमान्दा महिलाओं की दयनीय स्थिति के लिए सबसे ज्यादा अगर जिम्मेदार कोई संस्था है तो वह है आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड. जो 15 वर्ष की आयु में शादी की अर्हता का समर्थन करती है. वैसे तो आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक गैर-सरकारी संस्था है. वह अपना मुख्य उद्देश्य शरीयत कानूनों की हिफाजत करना बताती है. लेकिन यह अपनी स्थापना काल से मुस्लिम समाज में हर सुधार की विरोधी रही है. इसकी स्थापना 1972 में इंदिरा गांधी के दौरान की गयी थी.
शायद शाहबानो का केस आज ज्यादातर लोग न जानते हों. इस मामले में पति के दूसरे शादी करने पर गुजारा भत्ता देने की बात कही गयी थी जो कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार यह मांग शरीयत कानून के खिलाफ बताया गया था.
जिसके लिए देश भर में इस संगठन ने भारी आंदोलन चलाया था जिसके आगे राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को झुकना पड़ा था. 62 वर्ष की वृद्ध शाहबानो जिसके 5 बच्चे थे जिसके पति मुहम्मद अहमद खान ने 1978 में तलाक दिया था.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मुस्लिम समाज में समाज सुधार के प्रति क्या दृष्टिकोण है इसी से अंदाजा लगा सकते हैं. साथ ही कांग्रेस सरकार की अमानवीय अशराफ तुष्टिकरण ने मुस्लिम समाज में सुधारवादियों का ऐतिहासिक रूप से गला घोटा था. भले ही यह अपने आपको गैर राजनीतिक संगठन बताती है, यह पूर्ण रूप से मुस्लिम कुलीन अशराफों की सामाजिक एवं राजनीतिक संस्था ही है. यह संस्था विभिन्न रूपों में मुस्लिम शासन काल से मुस्लिम समाज का अंग रही है. भले ही इसकी स्थापना 1972 में हुई हो.
मुस्लिम विधि में विवाह की आयु
विवाह की आयु सीमा मुस्लिम विधि के अनुसार 15 वर्ष मानी गयी है-‘‘15वर्ष से कम आयु के लड़के या लड़की का अभिभावक ऐसे वयस्क से विवाह की संविदा कर सकता है, परन्तु इस अवस्था में यह भी जरूरी है वयस्क सात वर्ष से कम न हो.’’अमीर अली का कहना है कि ‘‘हनफी और शिया दो सम्प्रदायों में पुरूषों और स्त्रियों के मामलों में पन्द्रह वर्ष की आयु पूरी कर लेने पर वयस्कता की उपधारणा कर ली जाती है, बशर्ते कि यह साबित करने के लिए वयस्कता इससे पहले प्राप्त कर ली गई है, कोई साक्ष्य न हो.
शिया स्त्री के मामले में वयस्कता की आयु मासिक धर्म के साथ-साथ शुरू हो जाती है और प्रत्यक्ष साक्ष्य के अभाव में उपधारणा यह होती है कि मासिक धर्म 9 और 10 साल तक की आयु में शुरू हो जाता है. सादिक अली खाँ बनाम जयकिशोरी नामक शिया वाद में, प्रिवी काउन्सिल के मान्य न्यायमूर्ति ने यह निर्णय लिया कि ‘‘लड़की के मामले में वयस्कता नौ साल की आयु में प्राप्त हो जाती है.’’
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के अनुसार अधिकांश लड़कियों की शादी 14, 15, 16 के उम्र में हो जाती है. वर्तमान समय में सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग की उस याचिका पर विचार करने पर सहमत हो गया जिमसें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गयी है.
हाई कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि एक लड़की मुस्लिम विधि के अनुसार 15 वर्ष की आयु में विवाह के बन्धन में बंध सकती है.भारतीय संविधान के होते हुए भी आज मुस्लिम समाज का बहुतायत पसमांदा समाज विवाह के मामले में शरीयत कानूनों के हिसाब से चलता है.
आजादी के बाद भारत में प्रगतिशील आंदोलन तीव्र होने कारण मुस्लिम समाज का अशराफ समुदाय को डर सताने लगा कि कहीं मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियां हमें चुनौती न देने लगे. इसलिए उसने इस समाज को शरीयत के नाम पर अशराफों के हित साधने वाले नियमों को लागू करने का बीड़ा उठाया.
किसी समाज को अगर कमजोर करना है तो उसकी रीढ़ तोड़ दो. समाज की नींव औरत होती है. उसने औरतों को शिकंजे में कसने के लिए प्रयास शुरू किये.
विवाह के लिए 15 वर्ष की उम्र क्यों अनुचित है?
मुस्लिम समाज में पसमांदा महिलाएं पैदा होते ही जब तक उसकी शादी न हो जाए उसकी परवरिश इस प्रकार की जाती है कि वह न चाहते हुए भी मानसिक रूप से औरत बन ही जाती है. पसमांदा पुरुष की आर्थिक स्थिति खराब होने एवं सामाजिक दबाव के कारण उसका पिता उसकी पढ़ाई बीच में ही छुड़वाकर शादी कर देता है.
हालांकि हिंदू समाज से प्रभावित होकर पसमांदा समाज अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा देने के बाद शादी कर रहे हैं. लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है. वर्तमान समाज में पढ़ाई का खर्च इतना महंगा है कि गरीब पसमांदा खर्च उठा भी नहीं पाता.
पसमांदा लड़की के 15वर्ष देखते-देखते गुज़र जाते हैं. 1 से 5 वर्ष अपने ही घर के लोगों को पहचानने में लग जाता है. जब वह स्कूल जाने लगती है तो कक्षा 10तक आते-आते उसका जब थोड़ा सा ही सामाजिक ज्ञान विकसित हो पाता है तब जिम्मेदारी का सबसे बड़ा बोझ विवाह का बंधन उसके मत्थे मढ़ दिया जाता है.
(सच्चर कमेटी की रिपोर्ट देखें तो वे स्कूलों का मुंह भी नहीं देख पाती. जो मदरसे चलते हैं वे आधुनिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के विरोधी हैं.)जब पसमांदा लड़की हिन्दू महिला-पुरुष सहपाठियों को देखते हुए डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वकील, शिक्षक, आईएएस बनने के सपने बुन ही रही होती हैं तभी उसकी शादी कर दी जाती है.
सपने की हत्या! सपने की हत्या ही नहीं एक ऐसे जीवन की शुरुआत जिसकी चाह इतनी जल्दी शायद ही कोई स्त्री करे! कहने के लिए विवाह एक कांट्रेक्ट है जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए प्रगतिशील मुस्लिम थकते नहीं अघाते. विवाह के बारे में हेदाया क्या कहता है-
‘‘विवाह एक विधिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा स्त्री और पुरुष के बीच समागम और बच्चों की उत्पत्ति तथा औरसीकरण पूर्णतया बैध एवं मान्य होते हैं.’’4इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विवाह का लक्ष्य सन्तानोत्पत्ति है. इससे इंकार करने का साहस लड़की थोड़ा जुटा भी लें लेकिन वह कुछ भी नहीं कर सकती. पति का घर, अपने पिता का घर जिसे वह छोड़कर आयी है, और सबसे बड़ा अशराफों के शरीयत के नियम, सब उसके सामने खड़े हो जाते हैं. रो-धोकर वह इस जिंदगी को अपना लेती है.
जब वह मैके वापस आती है तो अपने हिन्दू महिला सहपाठियों को जो अपने कैरियर के लिए स्कूल और कोचिंग कर रहे होते हैं. वह उन्हें देखकर आहें भरने के अलावा कुछ नहीं कर सकती. अपने सहपाठियों से मिलने पर उसके सामने जो सवाल उपस्थित होंगे क्या वह बताना चाहेगी. इस हालत में नौकरी चाकरी की तो बात ही छोड़ दीजिए. आधुनिकता के इस दौर में हिन्दू समाज की महिलाओं के सामने वह कहीं भी अपने आपको खड़ा नहीं पाती हैं.
कुछ ही वर्ष में बच्चे भी हो जाते हैं. बच्चों की परवरिश का जिम्मा भारतीय समाज में स्त्री का ही होता है. लेकिन पसमांदा महिलाओं के लिए थोड़ा इसलिए कठिन हो जाता है क्योंकि वे इस समय अपरिपक्वता की स्थिति में होती हैं.
इस हालत में बच्चों की परवरिश करना, अगर लड़की हो जाए तो, पूरी तरह से डिप्रेशन का कारण बन जाता है. मानसिक रोग का शिकार सर्वाधिक मुस्लिम महिलाएं (जिसमें बहुतायत पसमांदा है) ही क्यों हैं? यह भी एक बड़े शोध का विषय है. जिसके तार इसी सवाल से जुड़े हुए हैं.
औरत की जीवन स्थिति का पसमांदा बच्चों पर नुकसानदेह असर पड़ता है. बच्चे के व्यक्तित्व के निर्माण में माताओं की सबसे बड़ी भूमिका होती है. क्योंकि बच्चे भावनात्मक रूप से माता से ज्यादा जुड़े होते हैं.
बच्चों की क्षण-क्षण की आवश्यकताएं एवं माता-पिता का उसके प्रति व्यवहार व्यक्तित्व की नींव तैयार करते हैं. माता की कम उम्र एवं उसकी अपरिपक्वता के कारण बच्चों की परवरिश आसामान्य ढंग से होती है. जिसके परिणामस्वरूप विरासत में पसमांदा को कमजोर शरीर एवं व्यक्तित्व मिलता है.
बाल विवाह कैसे अशराफ के हित में काम करता है?
अगर इसे हम बाल विवाह मान लें (हालांकि अशराफ किसी भी सूरत में मानने को तैयार नहीं है.) तो समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह प्रथा कुलीन मुसलमानों के पक्ष में है. वह कैसे? पसमांदा की कम उम्र में शादी एवं बच्चे पैदा हो जाने पर उसकी सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियां सीमित हो जाती हैं.
वह नैतिक एवं मानसिक रूप से घर-गृहस्थी में इतना जकड़ जाता है कि वह देश-समाज एवं राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं ले पाता. यही तो अशराफ की चाल है पसमांदा को सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर करने की. इसके लिए बाल विवाह से बड़ा कोई हथियार नहीं हो सकता. जिसे वह शरीयत का नाम देकर अप्रत्यक्ष रूप से करवाता है.
मुस्लिम समाज में समाज सुधार के प्रति अशराफ बुद्धिजीवियों का रवैया
बाल विवाह कैसे मुस्लिम समाज के बहुलांश पसमांदा तबके के लिए दीमक की भांति है, अशराफ बुद्धिजीवियों को इसका अहसास भी नहीं होता. स्त्री आजादी की बात होती है, बाल विवाह रोकने की भी बात होती है लेकिन इन रिवाजों को समाज में कायम करने वाले अप्रत्यक्ष रूप से बाध्यकारी संस्था भारत के मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अशराफवादी चरित्र पर विमर्श क्यों नहीं होता? इस संस्था में क्यों अशराफ का ही प्रभुत्व है? इस संस्था के द्वारा व्याख्यायित शरीयत के कानून क्या कुरान के नियमों के अनुसार है?
लोग कहते हैं कि एक औरत का दर्द एक औरत ही समझ सकती है. महिलाओं के लिए भी आल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड बनाया गया है. क्या यह संस्था समूचे पसमांदा महिलाओं में समाज सुधार का कार्यक्रम चलाती है.
जवाब है नहीं? क्योंकि यह भी संस्था अशराफ महिलाओं के लिए आरक्षित है जो पसमांदा महिलाओं को कूपमंडूक बनाने का काम करती हैं. घर-घर कुरान की शिक्षाओं के प्रचार के नाम पर अशराफवादी विचारों को पोषित करने वाली किताबों का प्रचार-प्रसार करवाना इनका कार्य है.
इस संस्था में दलित/ओबीसी मुसलिम औरतों को शामिल नहीं किया जाता है. महिलाओं की यह संस्था पूरी तरह से अशराफ पुरूषों के नियंत्रण में चलता है. इस संस्था की स्थापना 2015 में हुई थी लेकिन 22 अक्टूबर 2022 को इस संस्था के महिला सदस्यों के राजनीतिक बयानबाजी के कारण इस संस्था को भंग कर दिया गया है.
अपने को सच्चा सेकुलर, समाजवादी, वामपंथी कहने वाले स्त्री आजादी के लिए दिन-रात बोलते-लिखते अघाता नहीं है, वह भी आल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अशराफ सामंती चरित्र पर चुप्पी साधे रहता है. सवाल नहीं खड़ा करता. वह सिर्फ तीन तलाक और साम्प्रदायिकता दो ही मुद्दे पर अपने को केन्द्रित रखता है. उर्दू शायरी एवं गजलों में गढ़े गये स्त्री छवियों में ही खोया रहता है.
साहिर लुधियानवी, कर्रतुल ऐन हैदर, इस्मत चुगताई, मंटो, जावेद अख्तर, कैफी आजमी, आरिफा खानम शेरवानी, कानूनविद् फैजान मुस्तफा, इतिहासकार इरफान हबीब, जेएनयू की शाहेल राशेद जैसे अनेकों अशराफ प्रगतिशीलों की मुस्लिम समाज में भरमार है, लेकिन वे कभी भी आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सामन्ती-मध्ययुगीन-जातिवादी चरित्र के खिलाफ आवाज नहीं उठाते?
संदर्भ : -
1. अकील अहमद, मुस्लिम विधि, पृ.59.
2. वही, पृ.सं.59
3. हिन्दुस्तान, 14जनवरी 2023
4. हिदाया, पृ.25
5. 22अक्टूबर 2022, टाइम्स आफ इंडिया
लेखिका
रौशन आरा
पसमांदा महिला सामाजिक कार्यकर्ता
वर्तमान समय में गोरखपुर में सावित्रीबाई फुले जन साहित्य केन्द्र की संयोजिका हैं
प्रूफ एवं सम्पादन इमामुद्दीन
इमानुद्दीन पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता है