नजमा हेपतुल्ला ने शिकागो से आवाज द वाॅयस को सुनाई बचपन की कहानी, बोलीं- गर्मियों में दरख़्तों पर चढ़ना याद है

Story by  फिरदौस खान | Published by  [email protected] | Date 25-05-2024
Najma Heptulla: I miss climbing trees in summer.
Najma Heptulla: I miss climbing trees in summer.

 

-फ़िरदौस ख़ान

ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा बचपन होता है. बचपन की यादें हमारे दिलो-दिमाग़ पर नक़्श हो जाती हैं. और जब बात गर्मियों की छुट्टियों की हो तो फिर कहना ही क्या. इस बाबत आवाज़ द वाॅयस ने जानी मानी राजनीतिज्ञ और लेखिका नजमा हेपतुल्ला से फ़ोन पर ख़ास बातचीत की. वे फ़िलहाल अमेरिका के शिकागो में अपनी बेटी के घर रह रही हैं. इस दौरान उन्होंने अपने बचपन की बहुत सी यादें सांझा कीं.

नजमा हेपतुल्ला कहती हैं कि हमें सालभर गर्मियों की छुट्टी का इंतज़ार रहता था, क्योंकि गर्मियों की छुट्टियों में हमें अपने रिश्तेदारों के घर जाने का मौक़ा मिलता था. हमारी एक फूफी का ब्याह मुम्बई में हुआ था और एक फूफी का ब्याह लखनऊ में हुआ था.

किसी साल हम मुम्बई जाते तो किसी साल लखनऊ जाते थे. मुम्बई में उस वक़्त आज जैसी भीड़भाड़ नहीं होती थी. चौड़ी स्याह सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां बहुत अच्छी लगती थीं. कहीं किसी फ़िल्म की शूटिंग हो रही होती तो वहां उसे देखने के लिए लोगों की भीड़ जमा रहती.

मुम्बई का ज़िक्र समन्दर के बग़ैर अधूरा है. दिन में हम मुम्बई घूमते और शाम को समन्दर किनारे जाते. वहां समन्दर की लहरों के साथ अठखेलियां करते. रेत के घर बनाते, जिसे समन्दर की लहरें अपने साथ बहा ले जाती थीं. हम भेल पूरी खाते, वड़ा पाव खाते, पाव भाजी और आइसक्रीम भी खाया करते थे.  

             
najma

वे कहती हैं कि भोपाल में हमारा घर तालाब के किनारे था. घर बहुत बड़ा था और उसका आंगन भी बहुत ही बड़ा था. घर में बग़ीचा था. बग़ीचे में फलों के बहुत से दरख़्त थे. इनमें आम, अमरूद, जामुन और शहतूत के भी दरख़्त थे.

जैसे आम पर बौर आता और शहतूत पकने लगते तो हम समझ जाते कि अब गर्मियों की छुट्टियां आने वाली हैं. गर्मियों की छुट्टियों में हम ख़ूब मस्ती करते, शरारतें करते, धमा चौकड़ी करते. आम के दरख़्त पर चढ़ते और कैरी तोड़ते. फिर उसे नमक लगाकर खाते. दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़कर खाने का जो मज़ा था, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. आज भी फलों के दरख़्तों को देखकर बचपन में उन पर चढ़ना याद आता है.  

वे बताती हैं कि हमारे घर में फुलवारी भी बहुत थी. बाक़ायदा एक माली उनकी देखभाल करता था. इनमें बेला, गुलाब और मोगरा समेत बहुत से फूलों के पौधे व बेलें थीं. हमारा घर ही नहीं, बल्कि आसपास का इलाक़ा भी इन फूलों की ख़ुशबू से महकता रहता था.

अम्मी को मोगरा के फूल पहनने का बहुत शौक़ था. वे चांदी के तार की बालियों में मोगरा के फूलों को पिरोकर कानों में पहना करती थीं और बालों में मोगरा के गजरे भी लगाती थीं. हमारे घर से बहुत से लोग फूल ले जाते थे और फिर उनके गजरे व हार बनाकर उन्हें बेचते थे. ये एक नेक काम था. हमारे वालिद के कहने पर हमारा माली उन्हें रोज़ फूल तोड़कर देता था.  

वे बताती हैं कि हम गर्मियों की छुट्टियों में अपने गांव भी जाया करते थे. हमारा गांव भोपाल से आठ-दस किलोमीटर के फ़ासले पर था. वहां हमारे फलों के बाग़ थे, जिनमें आम, अमरूद और संतरे हुआ करते थे. यहां भी हम दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़ते और खाते थे.

हम बेतवा नदी के पास जाते और लोगों को तैराकी करते हुए देखते. बहुत से लोग उसमें तैराकी करते थे. बहुत से बच्चों ने भी तैराकी सीख ली, लेकिन हम किनारे से ही उन्हें तैरते हुए देखते. कभी पानी में उतरने की हिम्मत ही नहीं हुई या यूं कहें कि तैराकी सीखने का मन ही नहीं हुआ.

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भोपाल में हमारे घर के पास तालाब था, इसलिए अकसर हम तालाब किनारे चले जाते. हम तालाब से बड़ों के साथ मछलियां पकड़ते थे. जिस दिन तालाब से मछलियां पकड़ी जातीं, उस दिन अच्छी दावत होती. मछली का क़ौरमा बनता और मछली को तला भी जाता था.        

वे बताती हैं कि उन दिनों एसी नहीं हुआ करते थे. घरों में कमरों और दालानों में ख़स की चिक डाली जाती थी. फिर उन पर पानी का छिड़काव किया जाता था. इसकी वजह से गर्म हवा ठंडी हो जाती थी और घर में ठंडक बनी रहती थी. लू की वजह से हमें गर्मियों की भरी दोपहरी में बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी. इसलिए हम घर के भीतर ही रहते और दोपहर ढलने का इंतज़ार करते.   

आंगन में तख़्त बिछे होते थे. उन पर सफ़ेद चादरें बिछी होतीं और गाव तकिये क़रीने से लगे हुए होते थे. शाम को घर के सब लोग इन्हीं पर बैठते थे. तालाब की वजह से आंगन में ठंडी हवाओं के झोंके आते थे, जो बहुत ही भले लगते थे.       

वे बताती हैं कि गर्मियों में हम छत पर सोया करते थे. शाम को छत की साफ़-सफ़ाई की जाती. फिर पानी छिड़का जाता, ताकि छत ठंडी हो सके. छत पर दरियां बिछाई जातीं. फिर उन पर चादरें बिछाई जातीं और तकिये रखे जाते. मिट्टी की सुराहियां रखी जातीं, गिलास रखे जाते. हम बच्चे अपनी-अपनी छोटी सुराहियां  अपने सिरहाने रख लिया करते थे, ताकि रात में प्यास लगे तो अपनी ही सुराही से पानी पी लें.

बचपन के किसी ख़ूबसूरत और न भूलने वाले वाक़िये के बारे में पूछने पर वे बताती हैं कि उनकी ख़ाला ने उनका दाख़िला केजी में करवाया था. वहां टीचर ने उन्हें एक किताब दी. उन्होंने घर आकर पूरी किताब पढ़ ली और अगले दिन स्कूल जाकर अपनी टीचर से कहा कि मैंने पूरी किताब पढ़ ली है. इसलिए मुझे पढ़ने के लिए एक किताब और चाहिए. इस पर टीचर ने हैरान होकर कहा कि यह किताब तो तुम्हें पूरे साल पढ़नी थी.

नजमा साहिबा बचपन से ही पढ़ाई में बहुत अच्छी थीं. वे बताती हैं कि गर्मियों की छुट्टियों के आग़ाज़ में ही वे अपना होमवर्क मुकम्मल कर लिया करती थीं. उन्हें गर्मियों की छुट्टियों में स्कूल खुलने का इंतज़ार रहता था. छुट्टियों में उन्हें स्कूल और स्कूल की सखियों की ख़ूब याद आती थी. वे बताती हैं कि भोपाल में पढ़ाई ख़ासकर लड़कियों की पढ़ाई पर ख़ास तवज्जो दी जाती थी.

उन्हें किताबें ख़ासकर शायरी पढ़ने का बहुत शौक़ रहा है. उनके पसंदीदा शायरों में इक़बाल, मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर और फ़ैज़ भी शामिल हैं. उन्हें उनकी ग़ज़लें आज तक याद हैं. वे इक़बाल साहब के अशआर मुलाहिज़ा

फ़रमाती हैं-

अज़ान अज़ल से तेरे इश्क़ का तराना बनी
नमाज़ उसके नज़ारे का इक बहाना बनी
अदा-ए-दीदे-सरापा नयाज़ है तेरी
किसी को देखते रहना नमाज़ है मेरी


(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)