एहसान फाजिली/श्रीनगर
जब देहरादून में रहने वाले संजय पंडिता अपने परिवार के हिंसाग्रस्त कश्मीर से पलायन के 35साल बाद सप्ताहांत पर नई दिल्ली से श्रीनगर के लिए उड़ान भर रहे थे, तो वे चिंतित थे.वे दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में अपने पैतृक गांव मुर्रान में जीवन को फिर से जीने के मिशन पर निकले थे.
उनका परिवार - पत्नी और दो बेटे - और लगभग 100 से अधिक कश्मीरी पंडित अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए मुर्रान के इस मिशन में उनके साथ शामिल हुए.उनके परिवारों ने वर्ष 1989-90 में कश्मीर में पाकिस्तान आधारित हिंसा के विस्फोट के बाद अपने घर, जमीन और सब कुछ छोड़ दिया था.संजय पंडिता एलआईसी में काम करते हैं. अपने मुस्लिम पड़ोसियों के साथ कुछ दिन बिताना चाहते थे और अनुभव करना चाहते थे कि वे अपने गांव में न रहकर क्या खो रहे हैं.
यह पहल संजय पंडिता, चंद्र मोहन भट और संजय कौल के दिमाग की उपज थी, जो उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में रहते हैं.उन्होंने उस अवसर का लाभ उठाया जिस पर ग्रामीणों ने पारंपरिक रूप से ब्ररीमोएज (देवी) के स्थानीय मंदिर में हवन का आयोजन किया.गांव के बीचो बीच स्थित मंदिर में चिनार नदी के किनारे ताजे पानी का एक झरना भी है.कश्मीर में शांति की वापसी के बाद वे अपने पैतृक गांव में जीवन को फिर से जीने का मौका देना चाहते थे.
डेढ़ महीने के भीतर योजना तैयार हो गई और कार्यक्रम के आयोजन के लिए सभी व्यवस्थाएं अंतिम रूप ले ली गईं.कुछ स्थानीय हिंदू जो कभी-कभार अपने गांव में आते थे, उन्होंने स्थानीय लोगों से व्यवस्था करने में बहुत मदद की.समुदाय के पलायन के बाद गांव में सिर्फ पांच हिंदू परिवार रह गए हैं.
यह पुलवामा शहर से पांच किलोमीटर दूर स्थित है, जो कुछ साल पहले तक विद्रोही हिंसा का केंद्र था.संजय पंडिता ने आवाज़-द वॉयस को बताया कि वह मुसलमानों को खुले हाथों से उनका स्वागत करते देखकर अभिभूत थे.उन्होंने बताया कि कैसे स्थानीय मुसलमानों - पुरुष, महिलाएं और युवा - ने आंसू भरी आंखों और भावुकता के साथ उनका स्वागत किया., "यह मूल निवासियों का पहले जैसा पुनर्मिलन था; हमारे स्नेह में कोई मिलावट नहीं थी."
यह उन भाइयों के पुनर्मिलन जैसा है जो 1989-90 की सर्दियों में बिछड़ गए थे (वह दौर जब आतंकवाद ने कश्मीर को हिलाकर रख दिया था और कुछ चुनिंदा हत्याओं और मस्जिदों से हिंदुओं से धर्म परिवर्तन करने, भागने या मरने की घोषणाओं के बाद हिंदू भाग गए थे.)
संजय पंडिता ने मुर्रान से फोन पर बात करते हुए आवाज़-द वॉयस को बताया,“सभी मुसलमानों ने हमें खुले हाथों से बधाई दी. गले मिले और फूट-फूट कर रोए..यह एक निर्णायक क्षण था जिसमें हम सभी ने प्यार और स्नेह महसूस किया.वे हवन से पहले और उसके दौरान मंदिर परिसर में भी गए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि धार्मिक समारोह के लिए आवश्यक सभी चीजें सही जगह पर हों”.
उन्होंने कहा, “यह सब प्यार और स्नेह से भरा हुआ था.” स्थानीय मस्जिद के वरिष्ठ सदस्यों ने आने वाले हिंदुओं के साथ आधा दिन बिताया.सभी लोग गाँव में देवी को समर्पित प्राचीन मंदिर के लॉन में एकत्र हुए.भले ही मंदिर परिसर के अंदर 100 लोगों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी. संजय पंडिता ने कहा. “हम में से कई लोग मुसलमानों के घरों में रह रहे हैं.मुझे ऐसा लग रहा है,जैसे समय पीछे चला गया है.”
सभी आने वाले ग्रामीणों ने शामियाना, शौचालय और हवन की व्यवस्था करने के लिए पैसे दिए थे.मुर्रान गांव कभी 80 कश्मीरी पंडित परिवारों का घर था.नौकरियों और आजीविका के अवसरों की तलाश में से पलायन से संख्या घटकर 35 परिवार रह गया था.इनमें से 35 हिंसा के मद्देनजर भाग गए और केवल पांच यहीं रह गए.
संजय पंडिता( 65), जिन्हें गांव के बुजुर्ग और उनके साथी निका लाल के नाम से जानते थे, ने कहा, “गांव में पहुंचने पर लगभग 100 महिलाओं का एक बड़ा समूह हमसे मिलने आया था.पुनर्मिलन के भावनात्मक दृश्य थे.” “उन सभी ने मुझे और दूसरों को पहचाना. उन्हें हमारे उपनाम याद थे.वे मुझे निका लाला कहते थे.” 11-12 जून को हवन का आयोजन किया गया था, जिसमें दूर-दराज के गांवों से कश्मीरी पंडितों ने हिस्सा लिया.
स्थानीय लोगों ने अपने मेहमानों के लिए अखरोट, बादाम, कश्मीर में उगाए जाने वाले खास सूखे मेवे और खास तौर पर लंबी कश्मीरी मिर्च लाई, जो अपने रंग और कम तीखेपन के लिए जानी जाती है.मुसलमान हिंदुओं के साथ शाकाहारी भोजन के लिए मंदिर आए.मुसलमानों ने हवन समाप्त होने के बाद आगंतुकों को स्थानीय मस्जिद में मांसाहारी भोजन के लिए आमंत्रित किया.
कश्मीरी पंडितों के स्वागत में संगीत कार्यक्रम पेश करते स्थानीय छक्करी कलाकारों की टीम
हालांकि, समय की कमी के कारण, हिंदू हाई टी के लिए आए,क्योंकि उनमें से कई ने उसी दिन अपनी उड़ानें बुक कर ली थी.जैसे ही कश्मीरी पंडित मस्जिद में आए, उनका स्वागत लगभग 500 लोगों ने किया.संजय देहरादून के लिए अपनी उड़ान पर सवार होने के लिए गांव से निकलते समय भावुक थे.
स्थानीय मुस्लिम बिलाल अहमद ने आवाज़-द वॉयस को बताया कि जब उन्होंने हिंदुओं को झुंड में जाते देखा तो वे स्कूल में थे.उन्होंने अपने हिंदू दोस्तों को अपने बचपन की प्यारी यादों के रूप में याद किया.उन्होंने कहा कि उन्हें उनके माता-पिता ने यह भी बताया कि कैसे कश्मीर में बंदूक आने तक हिंदू और मुसलमान शांति और पड़ोसी के रूप में रहते थे.
बिलाल ने कहा, "अगर सेब की सिर्फ़ एक किस्म उगाई जाए तो उसका बाग अधूरा है; अगर सेब के कई पेड़ होंगे तो वह फलेगा-फूलेगा और ज्यादा पैदावार देगा." उनका इशारा हिंदुओं के वापस लौटने की ज़रूरत की ओर था.उन्होंने कश्मीर में सूफ़ी संप्रदाय के संस्थापक शेख नूरुद्दीन नूरानी का एक दोहा भी सुनाया, जिन्हें 15वीं सदी की शुरुआत में कश्मीर के हिंदू और मुसलमान पूजते थे, ताकि यह बताया जा सके कि कश्मीर को पूरा बनाने के लिए हिंदुओं को वापस लौटना चाहिए.