मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली
वर्तमान स्थिति में हम संवाद के पक्ष में हैं. हमारी राय है कि सबके साथ संवाद होना चाहिए. एक ऐसा संयुक्त अभियान चलना चाहिए कि देश का हर धागा एक-दूसरे से जुड़ जाए. जमीयत उलमा-ए-हिंद के बुजुर्गों ने 100 वर्षों से आधिकारिक तौर पर और दो वर्षों से अनौपचारिक रूप से देश को एकजुट करने की कोशिश की. देश की महानता को अपनी जान से ज्यादा प्रिय बनाया.
उक्त बातें जमियत ए उलेमा ए हिन्द के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने जमीयत के प्रधान कार्य़ालय में आयोजित वर्तमान स्थिति पर संवाद विषय पर अपने संबोधन में कही.
देश का संविधान धर्मनिरपेक्षता आधार
सुप्रसिद्ध सामाजिक विचारक विजय प्रताप ने अपने विचार व्यक्त करते कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद ने जो बलिदान दिए हैं, वह व्यर्थ नहीं गए. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि भारत के विभाजन के अत्यंत साम्प्रदायिक वातावरण के बावजूद देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष आधार पर बनाया गया.
इस्लामिक शिक्षाओं और विचारों का जो विकास भारत में हुआ, बड़े-बड़े इस्लामी विचारक यहां जन्मे, जिनके उल्लेख के बिना वैश्विक स्तर पर इस्लाम का जिक्र अधूरा और अपूर्ण है. इसके अलावा देश के विकास के जितने विषय हैं,
उनमें मुसलमानों की देश के अन्य लोगों की तरह बड़ी भूमिका है. इसलिए हमें वर्तमान परिस्थितियों से निराश होने की जरूरत नहीं है. हर समुदाय के साथ ऐसी स्थितियां होती हैं. जो समुदाय जागरूकता का परिचय देता है, वह हालात से निपटने में सक्षम होता है.
संविधान को सही अर्थों में लागू करें
सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील संजय हेगड़े ने कहा कि हम एक अजीब दौर में हैं. आज लोग संविधान को बदलने की बात कर रहे हैं, इसलिए जरूरी है कि संविधान की रक्षा की जाए. यह तभी संभव है, जब हम संविधान को सही अर्थों में लागू करें. संविधान को समाप्त करने वालों को यह संदेश दें.
संवाद की सफलता
प्रो. डॉ. सौरभ बाजपेयी ने कहा कि मुझे इतिहास के अध्ययन के दौरान जिन संस्थानों पर गर्व महसूस हुआ. उनमें से एक जमीयत उलेमा-ए-हिंद भी है. इस संस्था के नेता हजरत मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने पाकिस्तान बनने का विरोध किया.
उनके साथ इस देश के अधिकांश मुसलमान थे. यह बात सत्य से परे है कि 90 प्रतिशत मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया. वह आम मुसलमान नहीं थे, बल्कि सामंत मुसलमान थे, जिनको वोट देने का अधिकार था. दिल्ली की जामा मस्जिद के पास पाकिस्तान समर्थकों और विरोधियों की एक सभा हुई. समर्थन करने वालों की सभा में केवल पांच सौ लोग थे और जो विरोधी थे, जिनका नेतृत्व जमीअत उलमा कर रही थी,
उनकी सभा में दस हजार की भीड़ थी. उन्होंने कहा कि जो कौम अपना इतिहास भुला देती है, वह खुद को मिटा देती है. भारत के अधिकांश मुसलमानों ने विभाजन का विरोध किया था, यह एक इतिहास है. एक तरफ केवल मुस्लिम लीग थी तो दूसरी तरफ जमीअत उलमा के साथ 19 मुस्लिम संगठन थे.
इसलिए देश पर मुसलमानों का अधिकार उतना ही है जितना किसी और का. उन्होंने कहा कि आपसी संवाद तभी सफल होगा जब दोनों पक्ष अपनी विचारधारा और सोचने का तरीका सही कर लें.
अहिंसा के खिलाफ चुप रहना नहीं
सुप्रसिद्ध लेखिका रजनी बख्शी ने मौजूदा हालात में गांधीवादी अहिंसा आंदोलन की वकालत की. कहा कि अहिंसा का मतलब अत्याचार के खिलाफ चुप रहना नहीं है. न ही इसके लिए किसी को महात्मा बनने की जरूरत है. हमें बुरे से बुरे लोगों में भी अच्छाई का भाव जागृत करना है. बुराई की वजह से किसी व्यक्ति से नफरत नहीं करनी है.
सभी वर्गों और संगठनों का महासंघ बने
आईटीएम यूनिवर्सिटी ग्वालियर के संस्थापक चांसलर रमाशंकर सिंह ने कहा कि वर्तमान संघर्ष कोई साम्प्रदायिक नहीं, बल्कि यह देश के अस्तित्व की लड़ाई है. हमें ऐसी स्थितियों से मुकाबला करने के लिए सभी वर्गों और संगठनों का महासंघ बनाना चाहिए.
इस देश में साधु-संतों और सूफियों के साझा संदेश तैयार कर के नई पीढ़ियों तक पहुंचाएं और आजादी के नायकों और उनके बलिदान को हर वर्ग तक पहुंचाएं. हमारी लड़ाई जिस ताकत से है, वह बहुत संगठित है, उसका तंत्र सुबह की शाखा से शुरू होता है, वह नई पीढ़ियों के बीच पहुंचते हैं, उन्हें मानसिक रूप से प्रशिक्षित करते हैं और हमने जो खाली जगह छोड़ दी है, उसे वह अपने रंग से भरते हैं.
संवाद का क्या फायदा है ?
जाने-माने ईसाई नेता जॉन दयाल ने कहा कि आज सांप्रदायिकता देश की व्यवस्था का हिस्सा बनती जा रही है, यहां अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होता है और फिर सजा भी उन्हें ही दी जाती है. देश के संविधान ने अल्पसंख्यकों के अधिकार तय कर दिए हैं, अगर यह अधिकार छीन लिए गए तो संवाद का क्या फायदा है?
सिख इंटरनेशनल फोरम के सदस्य सरदार दया सिंह ने कहा कि मुसलमान जो आज हालात का सामना कर रहे हैं, हमने पूर्व में भी ऐसे हालात देखे हैं, हम मुसलमानों के साथ खड़े हैं बल्कि हर प्रताड़ित व्यक्ति के साथ खड़े हैं.
संवाद की आवश्यकता पर जोर दिया गया
संगोष्ठी में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी हस्तियों, अर्थशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, विचारकों और प्रोफेसरों ने भाग लिया। सभा में देश के सामने मौजूद साम्प्रदायिकता की चुनौती, सामाजिक ताने-बाने के बिखराव और इसके रोकथाम के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा की गई और जमीनी स्तर पर काम करने और संवाद की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की गई.
अंत में जमीअत उलम-ए-हिंद के महासचिव मौलाना हकीमुद्दीन कासमी ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया। ओवैस सुल्तान और मेहदी हसन ऐनी ने मेहमानों का स्वागत किया और उनकी मेहमानदारी की। जमीअत उलमा-ए-हिंद के सचिव मौलाना नियाज़ अहमद फारूकी ने संगोष्ठी का संचालन किया.