दिलचस्प कहानी: 1964 से क्यों जावेद अख्तर ने पहना हुआ है दोस्त का दिया कड़ा

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 31-05-2024
Interesting story: Why Javed Akhtar has been wearing the bracelet given by his friend since 1964
Interesting story: Why Javed Akhtar has been wearing the bracelet given by his friend since 1964

 

ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली 
 
क्या आप जानते हैं कि हिंदी सिनेमा के जाने-माने स्क्रीन राइटर और लिरिसिस्ट जावेद अख्तर 1964 से एक कड़ा पहनते हैं. जो अब उनकी कलाई पर हमेशा ही सजा नजर आता है. मगर इस कड़े में ऐसी क्या खास बात है कि जावेद अख्तर कहते हैं कि "मेरी मौत तक ये कड़ा मेरे हाथ में रहेगा". ये कड़ा उनकी जीवनशैली में काफी लम्बे वक़्त से शामिल है. दरअसल ये जावेद अख्तर का फैशन नहीं बल्कि इस कड़े से उनकी एक भावुक कहानी जुडी है. 
 

जावेद अख्तर और मुश्ताक सिंह दोनों दोस्त साथ भोपाल के साफिया कॉलेज में एक साथ पढ़ते थे. और इसी बचपन के खास दोस्त ने जावेद अख्तर को ये कड़ा दिया था. 
 
जावेद अख्तर के अनुसार "मैं 16 साल का था जब घर छोड़ दिया और 20 साल तक मुझे मेरे दोस्तों ने पाला". वे कहते हैं कि "मेरा एक दोस्त था मुश्ताक सिंह बड़ा धार्मिक, उसके साथ मैंने न जाने कितनी बार गुरुद्वारे का हलवा खाया. उसने मुझे अपना कड़ा दिया था, जो मैंने 1964 में पहना था और यह मेरी मौत तक मेरे हाथ में रहेगा".
 
इंडस्ट्री में कामयाबी के बाद इससे पहले कि वह मुंबई आए. उनके सिख दोस्त, मुश्ताक सिंह, यूके के लिए रवाना हो चुके थे. मुश्ताक सिंह ने उन्हें यह कड़ा उपहार दिया था. इस कड़े को अब जावेद अख्तर अपनी कलाई से मरते दम तक नहीं उतरने वाले.
 
नहीं दी कभी सैफिया कॉलेज की फीस
मैं सैफिया कॉलेज से पढ़ा, लेकिन मैंने वहां कभी फीस नहीं दी. कॉलेज से लगी हुई एक मस्जिद थी, जिसमें मुझे एक कमरा दे दिया गया था, उसमें भी मैं फ्री रहा. इससे ज्यादा पास मस्जिद के मैं कभी नहीं गया. हालांकि, बाद में रिनोवेशन के समय वो कमरा तोड़ दिया गया. मेरी इस शहर से जुड़ी हुई बहुत सारी यादें हैं. 
 
 
महान योगदान
पंजाब में रहते हुए, साहित्य और कविता में पंजाबियों के योगदान के बारे में बात न करना बेहद मुश्किल है. उत्तर प्रदेश के रहने वाले अख्तर मानते हैं कि कैसे यूपी और पंजाब के लेखकों ने अक्सर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश की है, लेकिन फिर भी उन्होंने साहित्य में पंजाबियों के समृद्ध योगदान की प्रशंसा की. उन्होंने कहा, “उनका काम असाधारण है. मैं ऐसे कई पंजाबियों से मिला हूं जिन्होंने कहा कि उनके पास उर्दू में एक विशेष अख़बार है क्योंकि उनके दादा कोई अन्य भाषा नहीं पढ़ते थे. मैं अक्सर उनसे पूछता था कि उन्होंने उर्दू पढ़ना और सीखना क्यों बंद कर दिया.'' उन्होंने जोर देकर कहा, "ज़बान धर्म की नहीं होती, क्षेत्र की होती है."