धुले का ‘खुनी गणपति’ कैसे बना हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 14-09-2024
How did Dhule's 'Khooni Ganapati' become a symbol of Hindu-Muslim unity
How did Dhule's 'Khooni Ganapati' become a symbol of Hindu-Muslim unity

 

फजल पठान

महाराष्ट्र को एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा प्राप्त है, जहाँ हर त्योहार बड़े आनंद और उत्साह के साथ मनाया जाता है. इन त्योहारों में सबसे प्रमुख त्योहार है गणेशोत्सव. सार्वजनिक मंडलों के साथ-साथ घर-घर में गणपति बप्पा की स्थापना की जाती है. राज्य में गणपति के कई प्राचीन मंदिर हैं, जिनके पीछे रोचक इतिहास है. इन्हीं मंदिरों में से एक है धुले शहर का 'खूनी गणपति मंदिर', जिसे हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है. इस विशेष लेख में हम आपको बताएंगे खूनी गणपति मंदिर के अनोखे इतिहास के बारे में...

खूनी गणपति का इतिहास

धुले के इस प्राचीन गणपति को "मनाचा गणपति" के रूप में जाना जाता है. पूर्व विधायक के अनुसार, यह मान्यता है कि धुले के पुराने क्षेत्र में पांजरा नदी बहती है. 200साल पहले, जब नदी में बाढ़ आई, तब गणपति की मूर्ति बाढ़ के पानी में बहकर आई थी. इसके बाद, इस मूर्ति को पांजरा नदी के किनारे स्थापित कर दिया गया और यहाँ मंदिर का निर्माण हुआ.

मंदिर कार्यकारी सदस्य सेवालाल ढोले के अनुसार, 127साल पुरानी इस परंपरा की शुरुआत 1904में हुई थी. उस समय गणपति विसर्जन की शोभायात्रा धुले की पुरानी शाही जामा मस्जिद से गुजरती थी, जिसे लेकर विवाद हुआ.

इस विवाद ने हिंसक रूप ले लिया, और ब्रिटिश पुलिस ने भीड़ पर गोलीबारी की, जिसमें कुछ लोगों की मौत हो गई. इस घटना के बाद यह मान्यता बनने लगी कि गणपति शोभायात्रा के दौरान मस्जिद के पास खून-खराबा होता है. इसी वजह से इस गणपति को "खूनी गणपति" के नाम से जाना जाने लगा.

कब हुई उत्सव की शुरुवात

'खूनी गणपती' उत्सव की शुरुआत 1865में मानी जाती है. 1895में ब्रिटिश शासन के दौरान लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की परंपरा को शुरू किया था. सेवालाल ढोले ने बताया कि धुले में 'खांबेटे गुरुजी' नामक एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने तिलक से प्रेरणा लेकर समाज को एकजुट करने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत की. तब से यह उत्सव धुले में मुख्य स्थान पर लगातार मनाया जाता है.

धुले शहर के मध्य क्षेत्र में 'खूनी गणपति' की स्थापना की जाती है, और यह उत्सव आज भी निरंतर चलता आ रहा है. गणेशोत्सव के दौरान शहर के विभिन्न समुदायों के लोग एकत्रित होते हैं, और सभी मिलकर इस पारंपरिक त्योहार को हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. खूनी गणपति की शोभायात्रा पारंपरिक वाद्य यंत्रों जैसे टाळ और मृदुंग के साथ निकाली जाती है, जो इस उत्सव की खास पहचान है.

हर साल इस उत्सव में शहर के सभी समाजों के लोग एकत्रित होते हैं, और खूनी गणपति की आगमन मिरवणूक (शोभायात्रा) ढोल-ताशों और पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ निकाली जाती है. खास बात यह है कि इस शोभायात्रा के दौरान गुलाल का इस्तेमाल नहीं किया जाता और इसे पूरी तरह से पारंपरिक तरीके से मनाया जाता है.

मुस्लिम समुदाय करता है गणपति जुलुस का स्वागत

खूनी गणपति की मिरवणुक (जुलुस) का स्वागत अब मुस्लिम समुदाय द्वारा किया जाता है. पहले इस मिरवणुकी का इतिहास हिंदू-मुस्लिम संघर्ष से जुड़ा था, लेकिन आने वाली पीढ़ियों ने एक-दूसरे के धर्म का आदर करते हुए एक नया इतिहास रचा है. जहां पहले मस्जिद के सामने से मिरवणूक निकलने पर संघर्ष हुआ करता था, अब उसी जगह पर सौहार्दपूर्ण माहौल बना है.

विसर्जन की मिरवणूक जब जामा मस्जिद के सामने से गुजरती है, तब मस्जिद के मौलाना खुद मस्जिद के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर गणपति का स्वागत करते हैं. मुस्लिम समुदाय के लोग फूलों की वर्षा करके मिरवणूक का स्वागत करते हैं. जूना धुलिया स्थित इस ३९० साल पुरानी मस्जिद को शाही (खूनी) मस्जिद के नाम से जाना जाता है. मस्जिद के मुस्लिम कार्यकर्ताओं बताते है की यह परंपरा कई वर्षों से चली आ रही है. वे कहते हैं, "अल्लाह की दुआ से हम दोनों समुदाय इस त्योहार को मिलकर हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. यहाँ किसी भी प्रकार की अनुचित घटना नहीं होती."

मस्जिद के सामने आरती होने के बाद गणपति की मूर्ति विसर्जन के लिए आगे बढ़ती है. स्थानीय लोगों के अनुसार, जब गणपति की मूर्ति मस्जिद के सामने पहुंचती है, तो मूर्ति भारी हो जाती है, जो एक अद्वितीय परंपरा औ चमत्कार माना जाता है. इस प्रकार, यह गणपति हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन गया है.

विसर्जन जुलूस में ढोल-मृदंग और बारह पावली

अनंत चतुर्दशी को गणपति की विसर्जन जुलूस पालकी से निकलती है. इस मौके पर पारंपरिक ढोल-मृदंग की आवाज में तीन पावली और बारह पावली नृत्य भक्तों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है. विशेष बात यह है कि जुलूस में कभी भी बैंड पार्टी या डीजे का उपयोग अब तक नहीं किया गया है.

5000 लोगों में होता है प्रसाद का वितरण

त्योहारों और देवता के नाम पर प्रसाद का भी महत्व होता है. गणपति को नैवेद्य अर्पित करने के लिए मोदक दिए जाते हैं. खूनी गणपति मंडल पांच हजार भक्तों को प्रसाद का वितरण करता है.

इस बारे में सेवालाल ढोले कहते हैं, “पिछले कई वर्षों से इस गणपति स्थान पर हिंदू-मुस्लिम भाई बड़े पैमाने पर भंडारा (प्रसाद) का आयोजन करते हैं. गणपति की कृपा और मुस्लिम भाइयों की मदद से हर साल कम से कम 5000भक्तों को प्रसाद वितरित किया जाता है.”

आज समाज में कई मुद्दों पर तनाव देखा जा सकता है, लेकिन महाराष्ट्र में आज भी ऐसी सार्वजनिक मंडलियाँ हैं जो धार्मिक सद्भाव बनाए रखने का कार्य कर रही हैं. खूनी गणपति का रक्तरंजित इतिहास और वहां के हिंदू-मुस्लिम कार्यकर्ताओं ने इतिहास से सीख लेते हुए धार्मिक सद्भाव की नई राह दिखाई है, जो सभी के लिए प्रेरणादायक है.