दानिश अली / श्रीनगर
श्रीनगर शहर से लगभग 70 किलोमीटर दक्षिण में स्थित कुलगाम जिले के छोटे और शांत गांव बेहिबाग में दुख एक निरंतर तूफान की तरह बदल गया है. कभी जीवन की चहल-पहल से जीवंत रहने वाला यह गांव अब दुख और दर्द की चीखों से गूंज रहा है. हवा में उदासी छाई हुई है और लोग खुद को असहनीय नुकसान के बीच पाते हैं.
3 फरवरी की शाम को, हिंसा ने 39 वर्षीय पूर्व सैन्यकर्मी मंजूर अहमद वाघे के दरवाजे पर दस्तक दी, जिन्होंने कभी अपने देश की रक्षा की थी और अब सेवानिवृत्त जीवन जी रहे हैं.
संदिग्ध आतंकवादियों ने उनके परिवार पर गोलीबारी की, जिसमें उनकी पत्नी आइना अख्तर, 32, और भतीजी साइना हमीद, 13, घायल हो गईं. वाघे की अस्पताल में मौत हो गई, जबकि अन्य दो अभी भी अस्पताल में भर्ती हैं.
एक राजनीतिक कार्यकर्ता जावेद बेग ने शोक संतप्त परिवार की ये तस्वीरें एक्स पर पोस्ट कीं:
— Javed Beigh (@JavedBeigh) February 4, 2025
जैसे ही मंज़ूर की हत्या की खबर फैली, गांव के लोग न केवल शोक मनाने के लिए बल्कि एक समुदाय के रूप में एकजुट होकर दुख, गुस्से और न्याय की मांग करने के लिए एक साथ आए. मंज़ूर सेना में राइफलमैन थे और 2021 में सेवानिवृत्त हुए. वह मवेशियों का व्यवसाय करते थे और आतंकवादियों के हमले से पहले अपने परिवार के साथ शांति से रहते थे. उनके चार बच्चे थे - तीन बेटे और एक बेटी. एक बुज़ुर्ग ग्रामीण ने कहा, "वह एक बहादुर व्यक्ति थे जो कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुए." "वह शांति से रहना चाहते थे.
उन्होंने उन्हें हमसे क्यों छीन लिया?" पड़ोसी मंज़ूर को सबसे मददगार पड़ोसी के रूप में याद करते हैं - चाहे वह टूटी हुई बाड़ को ठीक करना हो, किसी बुज़ुर्ग किसान की मदद करना हो या किसी संकट में फंसे व्यक्ति को सांत्वना देना हो - वह हमेशा हर जगह मौजूद रहते थे. उनके बचपन के दोस्त ने कहा, "वह ऐसे व्यक्ति थे जो कभी 'नहीं' नहीं कहते थे." उनकी पत्नी आइना अस्पताल के बिस्तर पर लेटी हुई थीं और अपने पति की यादों को समेटे हुए थीं. "वह बस एक साधारण जीवन चाहते थे," वह अपने आंसुओं के बीच फुसफुसाती हैं. "वह इसके लायक नहीं थे."
अगर गांव के दुख को किसी एक व्यक्ति में व्यक्त किया जा सकता है, तो वह मंजूर की मां जैनब होंगी. वह अपने घर के फर्श पर बैठी हैं, आगे-पीछे हिल रही हैं, उनकी आंखें रोने से सूज गई हैं.
“मुझे मुआवजा नहीं चाहिए,” वह फुसफुसाते हुए और दर्द से भरी आवाज में कहती हैं. “मुझे न्याय चाहिए. मुझे मेरा बेटा वापस चाहिए.” पड़ोसियों में से कोई उनका हाथ थामे हुए है; दूसरा उनकी आंखों से आंसू पोंछ रहा है.
अंतिम संस्कार बेहिबाग ने पिछले कई सालों में नहीं देखा था. सैकड़ों लोग इकट्ठा हुए, पुरुष और महिलाएं, युवा और बूढ़े, सभी के चेहरे उदास थे. कुछ ने न्याय की मांग करते हुए बैनर लिए हुए थे; अन्य लोग चुपचाप खड़े थे, जो घटनाओं के मोड़ को समझ नहीं पा रहे थे.
मंजूर के शव को आखिरी बार गांव से होकर ले जाया गया. जब उसके चाहने वाले उसे अंतिम विदाई दे रहे थे, तो शोक में डूबे लोगों की चीखें हवा में गूंज रही थीं. “उसे जीना चाहिए था,” बगल से देख रहे एक बुजुर्ग व्यक्ति ने बड़बड़ाते हुए कहा. “उसे यहीं अपने बच्चों के साथ बूढ़ा होना चाहिए था. यह उचित नहीं है.”
कभी सड़कों पर खेलने वाले बच्चे, चौड़ी और आंसुओं से भरी आंखों से अंतिम संस्कार जुलूस को देख रहे थे. वे मंजूर को एक दयालु चाचा के रूप में जानते थे.
यह त्रासदी नेतृत्व के उच्चतम स्तरों पर किसी की नजर से नहीं बची. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शोक संतप्त वाघे परिवार को फोन किया, हमले की निंदा की और इसे आतंक का कायराना कृत्य बताया. उन्होंने उन्हें सरकार के समर्थन का आश्वासन दिया, वादा किया कि जिम्मेदार लोगों को न्याय का सामना करना पड़ेगा.
उनके एक रिश्तेदार ने कहा, "हम फोन कॉल की सराहना करते हैं." "लेकिन हम चाहते हैं कि यह हिंसा खत्म हो. कोई और बेटा इस तरह न मरे."
कश्मीर के कई लोगों की तरह बेहीबाग के लोग भी हिंसा से थक चुके हैं. उन्होंने बहुत सी जानें जाते देखी हैं, बहुत से परिवार बिखरते देखे हैं. इस बार यह नुकसान ज़्यादा व्यक्तिगत है. मंजूर उनके अपने थे. वह उनके साथ रहे थे, उनके साथ हँसे थे, उनके साथ सपने देखे थे.
एक स्थानीय दुकानदार ने भावुक स्वर में कहा, "यह सिर्फ़ मंज़ूर के बारे में नहीं है." "यह हम सबके बारे में है. हम कब तक अपने बेटों को दफ़नाते रहेंगे?"
गाँव ने न्याय की मांग करने और यह सुनिश्चित करने की कसम खाई है कि मंज़ूर की मौत सिर्फ़ एक और आंकड़ा बनकर न रह जाए. वे जवाबदेही चाहते हैं; वे जवाब चाहते हैं, और सबसे बढ़कर, वे शांति चाहते हैं.
अंतिम संस्कार में एक युवक ने कहा, "हम अपने और लोगों को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते." "हम मंज़ूर की मौत को व्यर्थ नहीं जाने देंगे."
मंज़ूर अहमद वाघे अपने बच्चों के लिए प्यार, साहस और लचीलेपन की विरासत छोड़ गए हैं. निश्चित रूप से वे अपने पिता की दयालुता, बहादुरी और देशभक्ति की कहानियाँ सुनकर बड़े होंगे.