हबीबुल्लाह के एक प्रयास से बदल गई बिहार के सीवान और गोपालगंज के गांवों की तस्वीर

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 24-08-2024
 Siwan and Gopalganj are flourishing with the money of migrants
Siwan and Gopalganj are flourishing with the money of migrants

 

अभिषेक कुमार सिंह /पटना/ वाराणसी

बिंदुसार बुजुर्ग गांव के रहने वाले हबीबुल्लाह ने कभी सोचा नहीं होगा कि उनकी एक पहल उनके इलाके की तस्वीर बदलने की वजह बन जाएगा. बात 1979 की है, जब हबीबुल्लाह की स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं हुई थी. लेकिन किसी ने विदेश में कमाने का जिक्र छेड़ा, तो हबीबुल्लाह उसी साल ड्राइवर की नौकरी करने के लिए कतर चले गए.

इस गांव ही नहीं, सीवान जिले से खाड़ी देशों में जाने वाले हबीबुल्लाह पहले शख्स बन गए थे. हबीबुल्लाह ने एक-एक करके अपने चार भाइयों को कतर बुला लिया. और अब वह ड्राइवर का काम नहीं करते, बल्कि दुबई में अपने भाइयों के साथ मिलकर कांच निर्माण का छोटा उद्योग लगा चुके हैं और खुद का बिजनेस चला रहे हैं. उनके बेटे शाहिद के पास एमिटी यूनिवर्सिटी, नोएडा से प्रबंधन की डिग्री है.

हबीबुल्लाह ने कतर जाकर नौकरी और तरक्की दोनों हासिल की, तो उनकी नजीर उनके गांव में ही नहीं, बल्कि अगल-बगल के गांवों में भी दी जाने लगी. उनकी देखा-देखी उनके गांव और आसपास की बस्तियों जैसे चकिया, चांदपल्ली और भादा से कई लोगों ने अच्छी कमाई वाली नौकरी के लिए खाड़ी देशों का रुख किया. और तब से यह सिलसिला जारी है.

अब हर घर का, कोई न कोई एक व्यक्ति या रिश्तेदार अरब देशों में काम करता है और आज वे अपने परिवार और बच्चों को उच्च शिक्षा और सामाजिक विकास में निरंतर प्रयासरत हैं.

सीवान से सटे गोपालगंज जिले का गांव इंदरावा अबेदुल्लाह जिले के दूसरे सामान्य गांवों जैसा ही है, लेकिन इस गांव में एक शानदार चार मंजिला मकान है, जो सामान्यतया छोटे और कच्चे मकानों वाले इस गांव में कुछ अलग ही दिखता है. यह मकान 40 वर्षीय भीम सिंह और उनके छोटे भाई आशु ने बनवाया है.

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खास बात यह कि इस साधारण गांव में 60 लाख की लागत से बने इस मकान के हर मंजिल पर चार कमरों का पूरा सुसज्जित फ्लैट बना हुआ है. भीम सिंह और आशु सिंह का मकान चर्चा का विषय इसलिए है, क्योंकि इंदरवा अबेदुल्लाह में कुछ साल पहले तक दोनों भाइयों का परिवार मिट्टी के बने कच्चे घर में रहते थे.

अंग्रेजी अखबार बिजनेस टुडे में छपी एक खबर के मुताबिक, आशु और भीम सिंह के पिता गांव में ही एक किराने की दुकान चलाते थे. इस दुकान से उन्हें हर महीने 4,000 रुपये की कमाई हो जाती थी, जो उनके 10 लोगों के परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी नहीं थी. 

साल 2006 में भीम सिंह ने गांव के कई युवाओं के नक्शेकदम पर चलते हुए विदेश में नौकरी पाने का फैसला किया. पांच बहनों वाले सिंह कहते हैं, ‘‘यहां पर कुछ कमाई नहीं हो रही थी.’’

उन्हें दोहा, कतर में कंसोलिडेटेड कॉन्ट्रैक्टिंग इंटरनेशनल कंपनी में पाइप फिटर की नौकरी मिल गई. उन्होंने ट्रैवल एजेंटों, वीजा और यात्रा संबंधी अन्य जरूरतों पर लगभग 62,000 रुपये का खर्च पूरा करने के लिए दोस्तों और एक स्थानीय साहूकार से उधार लिया. 

वह कहते हैं, ‘‘मैंने इसे सिर्फ दो महीने में लौटा दिया.’’ उनकी शुरुआती सेलरी 35,000 रुपये थी. उन्होंने एक स्नैक (नाश्ता) का काउंटर भी खोला और 10,000 रुपये और ज्यादा कमाई होने लगी.

चूँकि सिंह की कंपनी उनके भोजन, कपड़े और रहने का खर्च उठाती थी. इसलिए वह अपनी लगभग पूरी तनख्वाह बचा ले जाते थे और उसे हिंदुस्तान में अपने परिवार को भेज देते थे. इसके बाद, 2009 में, आशु ने भी गांव छोड़ दिया और नेशनल कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करने के लिए सऊदी अरब चला गया और हर महीने 32,000 रुपये घर भेजने लगा.

आज इस परिवार में सभी भाई-बहनों की शादी हो चुकी है. उनकी एक बड़ी बहन कहती हैं, ‘‘हर बहन की शादी में उस समय हमें कम से कम 5 लाख रुपये का खर्चा आया. विदेशों में कमाए गए पैसे से यह संभव हो सका.’’

सिंह अकेले नहीं हैं, जो अपने गांव में विदेश की कमाई से नया घर बनाया है. आज की तारीख में इस गांव की हर गली में निर्माण कार्यों की गतिविधि देखी जा सकती है. 

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वहां के मुसलमानों में यह बदलाव स्पष्ट रूप से दिखता है, क्योंकि अब मुस्लिम समुदाय के परिवारों ने अपने बच्चों को शिक्षित करने पर काफी झुकाव दिखाया है. विदेशों में नौकरी कर रहे लोग अपने बच्चों को प्रोफेशनल कोर्स के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों और शहरों में पढ़ने भेज रहे हैं.

ऐसी ही एक मिसाल हैं मोहम्मद इलियास. अखोपुर गांव के मोहम्मद इलियास 1989 में ड्राइवर बनकर दोहा गये थे. उनके बेटे के पास एक निजी विश्वविद्यालय से प्रबंधन की डिग्री है. 

हालांकि, लड़कियों को अभी भी इस इलाके में दीनी तालीम यानी इस्लामी शिक्षा ही दी जाती है. लेकिन गांव के लोगों को उम्मीद है कि महिलाओं के लिए भी हालात बेहतर होंगे. सीवान के मीरगंज में एक सामुदायिक नेता और व्यवसायी मोहम्मद अली इमाम राईन कहते हैं, ‘‘हम उन्हें शिक्षित करना चाहते हैं. सर्वांगीण विकास के साथ मानसिकता बदल जाएगी.’’

द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, गोपालगंज और पड़ोसी सीवान जिले में अनुमानित 80 प्रतिशत स्थानीय अर्थव्यवस्था विदेशों में अप्रवासी श्रमिकों से भेजे गए पैसों पर निर्भर है. वास्तव में, बिहार आप्रवासियों के लिएकृखासकर पश्चिम एशिया जाने वाले लोगों के लिए नए हॉटस्पॉट के रूप में उभरा है.

बिंदुसार के इंजीनियरिंग छात्र मोहम्मद सद्दाम कहते हैं, ‘‘खाड़ी देशों में हर घर में कम से कम दो सदस्य होते हैं. उनमें से अधिकांश राजमिस्त्री, सहायक, बढ़ई, फिटर और ड्राइवर के रूप में काम करते हैं.’’ एक अन्य ग्रामीण का दावा है, ‘‘सीवान की अर्थव्यवस्था खाड़ी से भेजे गए धन के इर्द-गिर्द घूमती है.’’

प्रवासी मामलों के मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार, बिहार से आप्रवासी कामगारों की संख्या 2006 में 36,493 थी जो 2022 में 2.13 लाख लोग बाहर विदेशों में कामकाज कर रहे हैं.

सिर्फ इसी जिले में विदेशों से भेजे गए धन के सालाना 4,800 करोड़ रुपये होने का अनुमान है, जिसमें पिछले कुछ वर्षों में वृद्धि देखी गई है. मनी ट्रांसफर की दुकानें तेजी से बढ़ी हैं, वहां कई बड़े-बड़े आलीशान महलनुमा कोठियां और फार्म हाउस जैसी प्रॉपर्टी लोगों ने बना ली हैं. कई घरों में कारों का बेड़ा और कई प्रकार के आग्नेयास्त्र हैं.

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माइग्रेशन और डेवलपमेंट पर वर्ल्ड बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 में विदेशों में कमाई करके भारतीयों की ओर से 100 अरब डॉलर से ज्यादा की राशि भारत भेजने का अनुमान है. ये राशि करीब 8 लाख करोड़ रुपये होती है.  भारत में, औपचारिक चैनल के माध्यम से विदेशों से धन भेजने के मामले में बिहार पांचवें स्थान पर है. जो करीबन 4 अरब डॉलर है. 

सीईआईसी में प्रकाशित ‘बिहारः कैपिटल रेमिटेंसेस’ नामक रिपोर्ट के दर्ज किए गए आंकड़ों के अनुसार, बिहार में 2023 में करीब 100 मिलियन रुपए विदेशों से भेजे गए जो 2022 में भेजे गए 16.4 मिलियन रुपए से काफी ज्यादा है.

हालांकि, बिहार सरकार के पास प्रवासियों पर जिला-वार आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन ट्रैवल एजेंटों का अनुमान है कि गोपालगंज और सीवान में राज्य में विदेशों से भेजे जा रही रकम का 70 फीसद हिस्सा आता है.

पिछले कुछ वर्षों में बिहार में अप्रवासी श्रमिकों द्वारा विदेशों से भेजे जा रही रकम में लगातार बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है और सीवान और गोपालगंज जैसे उच्च आप्रवासी जिलों की अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहा है.

वेस्टर्न यूनियन के क्षेत्रीय उपाध्यक्ष और एमडी, दक्षिण एशिया, किरण शेट्टी के मुताबिक, सीवान और गोपालगंज में सबसे ज्यादा विदेशी प्रेषण सबसे ज्यादा प्राप्त करने वाले जिले बन चुके हैं, जहां सऊदी अरब से सबसे अधिक धन भेजा जाता है, इसके बाद संयुक्त अरब अमीरात, कतर, ओमान और कुवैत का स्थान है.

सीवान और गोपालगंज के सुदूर गांव अपनी आलीशान इमारतों, मनी ट्रांसफर की दुकानों और मुद्रा विनिमय केंद्रों के साथ बिहार के इन कस्बों-गांवों को एक नया ही अंदाज और नया रूप दे रहे हैं. इन जिलों में वेस्टर्न यूनियन के साथ अनुबंध करने वाले डाकघरों की संख्या लगभग 400 तक है.

अंग्रेजी अखबार ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट में, अनिल कुमार, जिन्हें हाल ही में बिहार से झारखंड में पोस्ट मास्टर जनरल (व्यवसाय विकास और विपणन) के रूप में स्थानांतरित किया गया था, कहते हैं कि सीवान-गोपालगंज सामान्य डाकघर (एक क्षेत्र) को 2014-15 में वेस्टर्न यूनियन के माध्यम से 62,000 अंतरराष्ट्रीय मनी ऑर्डर प्राप्त हुए थे.

एक स्थानीय बैंकर का कहना है, वेस्टर्न यूनियन के माध्यम से 1 लाख से अधिक लोगों द्वारा वहां धन भेजा जाता है. बेशक, देश में बिहार में रोजगार की कमी से जूझ रही श्रमशक्ति ने विदेशों का रुख किया है. लेकिन अपने खून और पसीने की कमाई से गोपालगंज और सीवान जिलों में समृद्धि की नई इबारत लिखी जा रही है. 

लेकिन विदेश जाकर नौकरी करने के इस चलन के कुछ दूसरे असर भी हुए हैं. कुछ बुजुर्गों को चिंता है कि नौजवान नौकरी के चक्कर में उच्च शिक्षा उपेक्षा कर रहे हैं और प्लेसमेंट एजेंसियों को भुगतान करके विदेशों में नौकरियां चुन रहे हैं. 

स्थानीय लोगों को खेत में काम करने के लिए खेतिहर मजदूरों की कमी होने लगी है. गोपालगंज के लाइन बाजार गांव के लक्ष्मी नारायण सिंह कहते हैं, ‘‘हमारे पास लगभग 90 एकड़ जमीन है लेकिन उस पर काम करने के लिए बहुत कम मजदूर हैं.’’ हालांकि खुद सिंह के भाई दुबई में कंस्ट्रक्शन बिजनेस चलाते हैं, लेकिन उनका कहना है. ‘‘अब और जमीन ख़रीदना कोई बुद्धिमानी भरा निर्णय नहीं है. इसे कौन जोतेगा?’’

फिर भी, कामकाजी आबादी के बाहर जाने और विदेशों से भेजे गए पैसों ने इस इलाके की तस्वीर में खुशहाली के रंग भर दिए हैं. यहां के बाजारों में विभिन्न ब्रांडों की दुकानें सज गई हैं. महिलाएं सौंदर्य प्रसाधनों पर पैसा खर्च कर रही हैं और किसान ट्रैक्टर और अन्य कृषि उपकरण खरीद रहे हैं. टीवी और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री भी बढ़ रही है.

गोपालगंज हो या सीवान दोनों जिलों में लगभग हर घर के पास बताने के लिए एक कहानी है. अली इमाम एक गरीब महिला का किस्सा सुनाते हैं, जिसे वह कभी-कभार एक या दो रुपये दे दिया करते थे. वह कहते हैं, लगभग छह महीने तक वह नहीं दिखी और फिर वह मेरी दुकान पर आई और मैंने उसके लिए एक सिक्का निकाला. उसने पहली बार मेरी आँखों में देखा और कहा, ‘‘बाबू अब ये नहीं चाहिए, मेरे दो बेटे खाड़ी देश अरब में चले गए हैं.’’

इन दोनों जिलों में नौकरी के लिए गए नौजवानों में हिंदू और मुस्लिम जैसी कोई बात नहीं दिखती और न ही कोई अंतर समझ आता है. हिंदू हो या मुस्लिम, जिसको जब जहां जरूरत हुई, उसने मदद मांगी और खाड़ी देशों में सेटल हो चुके यहां के लोगों ने भी जाति और धर्म का कोई अंतर किए बिना नौजवानों को वहां काम पर लगाया. 

यही वजह है कि हबीबुल्लाह के नक्शे कदम पर चले भीम सिंह का चार मंजिला मकान हो या इलियास के बच्चों की शिक्षा, समृद्धि और खुशहाली की ऐसी इबारतें अब इन जिलों में साफ-साफ उगती हुई दिख रही हैं.