राजेबागस्वार दरगाह में 50 सालों से जारी गणेशोत्सव, धार्मिक सौहार्द का अनूठा उदाहरण

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 11-09-2024
Ganeshotsav is being celebrated at Pirsaheb Rajebagswar Dargah for 50 years
Ganeshotsav is being celebrated at Pirsaheb Rajebagswar Dargah for 50 years

 

प्रज्ञा शिंदे
 
गणेशोत्सव बस कुछ ही घंटे दूर है. पूरे महाराष्ट्र में गणेशोत्सव का जश्न चल रहा है. गणेशोत्सव के मौके पर महाराष्ट्र में हर जगह धार्मिक सौहार्द और हिंदू मुस्लिम एकता की कई कहानियां देखने को मिलती हैं. उनमें से ही एक है सातारा जिले के खटाव तालुका में मौजूद राजबागस्वार दरगाह जिसे खातगुण दरगाह के नाम से भी जाना जाता है.
 
यह दरगाह सूफी संत पीर साहब राजेबागस्वार की दरगाह है. यह दरगाह पूरे महाराष्ट्र में लोकप्रिय है. पूरे महाराष्ट्र से हिंदू मुस्लिम श्रद्धालुओं का यहाँ हमेशा तांता लगा रहता हैं.
 

इस दरगाह से जुडी एक कहानी मशहूर है. सामाजिक कार्यकर्ता संपत देसाई बताते हैं, "इस गांव की मानाबाई नाम की एक नवविवाहिता रोज रात को आठ-दस मील दूर स्थित वडगांव में अपने मायकेवाले मुस्लिम साधु पुरुष से मिलने जाती थी.
 
उसकी श्रद्धा और निश्चय भक्ति देखकर वह साधु पुरुष जो पीर राजेसाहेब बागसवार के नाम से जाने जाते थे, यहां कटगुण में नींबू के पेड़ में प्रकट हुए. उस पेड़ का तना आज भी कांच के बक्से में श्रद्धा से बंद करके रखा हुआ है. उसी के बगल में पीर राजेसाहेब बागसवार की दरगाह है. दरगाह के सामनेही मानाबाई और उनकी बहू ताराबाई की समाधि हैं. दरगाह पर चादर चढ़ाने वाले अधिकतर भक्त हिंदू समाज के हैं."
 
गांव में करीब 70-80 हिंदू परिवार और सिर्फ 5-6 ही मुस्लिम परिवार हैं. लेकिन फिर भी यहां पीर साहब राजेबागस्वार दरगाह का उर्स बड़े पैमाने पर मनाया जाता है. मंडल कार्यकर्ता प्रवीण लावंड कहते हैं, “इस दौरान राज्य भर से सैकड़ों भक्त उर्स के लिए यहां आते हैं. सभी धर्मों के नागरिक यहां आते हैं और राजेबागस्वार के दरबार में मन्नत मांगते हैं.”
 
उरुस के बारे में आगे बात करते हुए वे कहते हैं, ''राजेबागस्वार दरगाह का उर्स पांच दिनों तक चलता है. इस दौरान राज्य भर से हजारों श्रद्धालु दरगाह पर आते हैं. इन पांच दिनों में से प्रत्येक दिन की एक विशेष विधि होती है.
 
पहले दिन दरगाह पर सफेदी की गई. अगले दिन समाधि पर संदल यानी चंदन लगाया जाता है. तीसरे उर्स, तो दिन ध्वज पालकी गांव में घुमाई जाती है. अंतिम दिन पाकलनी नामकी विधि की जाती है. उर्स में कव्वाली का जंगी प्रोग्राम भी होता है.”
 
 
दरगाह के आहाते में गणपति मंडल 

दरगाह के आहाते में एक गणपति मंडल है, जिसे 'गणेश सेवा मंडल दर्गा' कहा जाता है. इस मंडल के माध्यम से यहां 1975 से भगवान गणेश की स्थापना की जाती है. इस साल गणेश सेवा मंडल दर्गा 50 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है.
 
राजेबागस्वार दरगाह परिसर में गणेश मंडल की स्थापना में शामराव लावंड, लालासो लावंड, दत्तात्रय गाडगे आदि बुजुर्गों ने प्रमुख भूमिका निभाई. इसपर दरगाह प्रबंधन और मुस्लिम समुदाय ने तुरंत ही हामी भर दी और १९७५ में, दरगाह परिसर के भीतर 'गणेश सेवा मंडल दरगाह' मंडल की स्थापना की गई.
 
इस दरगाह की देखरेख और प्रबंधन जिसे मुजावरी कहा जाता है, 1765 से लावंड नामक हिंदू परिवार द्वारा किया जाता है. 
 
गणेशोत्सव में होते है विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम

1975 से चले आ रहे इस गणेशोत्सव में हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों का भी अहम स्थान रहा है. वर्तमान में बुजुर्ग मंडली ने धार्मिक सद्भाव की इस परम्परा  को नई पीढ़ी को सौंप दिया है. नई पीढ़ी के ओंकार लावंड, अक्षय लावंड, प्रणव लावंड, शिवम जाधव, राशिद अत्तार, परवेज़ अत्तार आदि नौजवान उर्स के पांच दिन और गणपति के दस दिनों तक निस्वार्थ सेवा देते हैं.
 
गणेशोत्सव के दौरान दरगाह परिसर में दोनों समुदाय की ओर से विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करते है. इस कार्यक्रम के तहत धार्मिक पूजा के अलावा संगीत, नृत्य, नाटक, एकांकी नाटक जैसी कई तरह की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है. इस त्यौहार के माध्यम से बना भाईचारा और धार्मिक संस्कृति वर्षों से ग्रामीणों को एकजुट रखती आ रही है.
 
ग्रामीणों ने पेश किया अनोखा उदाहरण 

गणेश सेवा मंडल दरगाह के पदाधिकारी सुनील लावंड कहते हैं, ''यह दरगाह हिंदू-मुस्लिम सौहार्द से स्थापित की गई है. यहां हिंदू-मुस्लिम समुदाय के कई त्योहार एक साथ मनाए जाते हैं.” वह आगे कहते हैं, ''यहां उर्स भी बहुत उत्साह से मनाया जाता है. पीर साहब राजेबागस्वार दरगाह का उर्स मार्च के अंतिम सप्ताह या अप्रैल के पहले सप्ताह में होता है. इस अवसर पर सैकड़ों भक्त दरगाह में एकत्रित होते हैं.''  
 
पूर्व स्वास्थ्य पर्यवेक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता हाजी मुबारक शेख हर साल दरगाह के उर्स में शामिल होते है. दरगाह की धार्मिक परंपरा के बारे में वह बताते हैं, “ हजारो हिंदू और मुस्लिम श्रद्धालु हर साल दरगाह आते हैं.
 
कुछ मन्नत मांगते हैं तो कुछ खिराजे अकीदत पेश करते है. दरगाह समिति ने पचास साल पहले अपने परिसर में गणपति मंडल के लिए जगह उपलब्ध कराकर समाज के लिए एक महान उदाहरण स्थापित किया था. सद्भाव की यह परंपरा आज भी जारी है, यह देखकर निश्चित रूप से खुशी होती है.”
 
इस गांव के लोग न केवल त्योहारों के दौरान एक साथ आते हैं बल्कि एक-दूसरे के पारिवारिक समारोहों में भी बड़े स्नेह के साथ भाग लेते हैं. ये सभी ग्रामीण गांव में एक परिवार की तरह रहते हैं. यह समय की मांग है कि, अन्य गांवों के हिंदू-मुस्लिम भाई खातगुण के ग्रामीणों का उदाहरण लें और अपने-अपने गांवों में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए एक साथ आएं.
 
हिन्दू-मुस्लिम समुदाय ने एक छत के नीचे आकर आस्था और विश्वास पर आधारित सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक एकता को कायम रखा है. खातगुण गांव द्वारा दिया गया मेल-मिलाप की यह सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक एकता का संदेश न केवल महाराष्ट्र के लिए बल्कि पूरे के लिए एक मिसाल है. धूमिल धार्मिक माहौल के समय में, यह सामाजिक सद्भाव वास्तव में सुकून देने वाला है.