आवाज द वॉयस/ नई दिल्ली
ऐसे दौर में जब डिजिटल बीट्स और क्षणभंगुर रुझान अक्सर संगीत पर हावी हो जाते हैं, ग़ज़ल की कालातीत शान को महान जोड़ी - उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन एक मार्गदर्शक मिलते हैं.
भारतीय शास्त्रीय और अर्ध-शास्त्रीय संगीत में अपने असाधारण योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित हुसैन बंधुओं ने ग़ज़ल गायन की कला को पोषित करने और उसे आगे बढ़ाने में पाँच दशक से ज़्यादा का समय बिताया है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि इसकी आत्मा पीढ़ियों तक गूंजती रहे.
जयपुर घराने से आने वाले और अपने पिता उस्ताद अफ़ज़ल हुसैन से प्रशिक्षित ये भाई गीतात्मक गहराई और शास्त्रीय कला के पर्याय बन गए हैं. पद्मश्री और कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हुसैन बंधु न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में दर्शकों को मंत्रमुग्ध करना जारी रखते हैं.
उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन ने आवाज़-द वॉयस में हमारे साथ बैठकर अपनी यात्रा, प्रेरणाओं और ग़ज़ल की विकसित होती शैली पर विचार किया.
हमारी बातचीत के कुछ अंश:
कहा जाता है कि संगीत दिलों को जोड़ता है और सीमाओं को पार करता है. भारत को एकीकृत करने में इसकी भूमिका के बारे में आपके क्या विचार हैं?
मोहम्मद हुसैन: संगीत एक सार्वभौमिक भाषा है. चाहे भजन हो या सूफी संगीत, हर रूप को आत्मा, भक्ति और क्षमा के साथ गाया जाना चाहिए. यह सार केवल एक सच्चे उस्ताद से सीखने से आता है.
अहमद हुसैन: बिल्कुल. संगीत की कोई सीमा नहीं होती. यह उन दिलों को छूता है, जहाँ शब्द विफल हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे शायरी. हमारी गंगा-जमुनी तहजीब अनूठी है और केवल भारत में ही पाई जाती है. हमने दुनिया भर में प्रदर्शन किया है, लेकिन यहाँ हमें जो प्यार मिलता है, उसकी तुलना किसी और से नहीं की जा सकती. शोहरत खरीदी जा सकती है, लेकिन भारतीय दर्शकों का स्नेह अमूल्य है. किसी भी कलाकार के लिए यह देश सबसे बड़ा मंच प्रदान करता है, बदले में यह केवल मेहनत की माँग करता है.
आपने गजल और भजन दोनों को खूबसूरती से संतुलित किया है. हमें इस यात्रा के बारे में बताएँ.
अहमद हुसैन: एक व्यक्ति जीवन में कई भूमिकाएँ निभाता है, पिता, पुत्र और मित्र, लेकिन आत्मा एक ही रहती है. इसी तरह, जब हम गजल गाते हैं, तो दया होनी चाहिए; जब हम भजन गाते हैं, तो समर्पण होना चाहिए. जैसा कि फ़रीद टोंकी ने खूबसूरती से लिखा है, "रास्ते अलग-अलग हैं, ठिकाना तो एक है, मंज़िल हर एक शाखा को पाना तो एक है." मंदिर और मस्जिद अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन मंज़िल एक ही है.
पद्म श्री पुरस्कार प्राप्त करके कैसा लगा?
मोहम्मद हुसैन: 17जनवरी 2018को हमें पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. बाद में, 5अप्रैल 2023को हमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से पद्म श्री मिला. और 30नवंबर 2023को हमें महात्मा ज्योतिराव फुले विश्वविद्यालय द्वारा ग़ज़ल में डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई. प्रत्येक सम्मान हमारे उस्तादों और हमारे माता-पिता के आशीर्वाद का है.
अहमद हुसैन: पुरस्कार केवल उपलब्धियाँ नहीं हैं; वे ज़िम्मेदारियाँ हैं. एक बार सम्मानित होने के बाद, आपको उस विरासत को निभाना चाहिए. निरंतर रियाज़ और विनम्रता महत्वपूर्ण हैं.
आज की भागदौड़ भरी दुनिया में संगीत अक्सर थेरेपी बन जाता है. मानसिक स्वास्थ्य में इसकी भूमिका को आप किस तरह देखते हैं?
अहमद हुसैन: संगीत ध्यान है. चाहे आप गाएँ या सुनें, यह आपको ऐसी दुनिया में ले जाता है जहाँ चिंता और उदासी नहीं होती. यह आपको शांति से भर देता है.
मोहम्मद हुसैन: जैसा कि मोमिन खान मोमिन ने लिखा है, "तुम मेरे पास हो जाओ, जब कोई दूसरा नहीं होता." संगीत एक साथी है. जब आप इसमें डूब जाते हैं, तो बाकी सब कुछ आनंद में बदल जाता है.
जयपुर से मुंबई तक के अपने सफ़र के बारे में बताएँ.
अहमद हुसैन: हम जयपुर घराने से हैं, जहाँ संगीत की सात पीढ़ियाँ हैं. हमारे पिता, स्वर्गीय उस्ताद अफ़ज़ल हुसैन खान साहब, हमारे गुरु और मार्गदर्शक दोनों थे. उनका मानना था कि संगीत को गुरुकुल में पूर्ण समर्पण के साथ सीखना चाहिए. सच्ची शिक्षा गुरु के पास जाने से मिलती है, उन्हें बुलाने से नहीं.
मोहम्मद हुसैन: हमने 1959में शुरुआत की. हमारे पिता ने हमें जानबूझकर संघर्ष कराया, हमारी परीक्षा लेने के लिए नहीं, बल्कि हमें मूल्य सिखाने के लिए. हालांकि वे हमें आसान रास्ता दिखा सकते थे, लेकिन उन्होंने हमें लंबी यात्रा के लिए तैयार करना चुना. हमने मुंबई में 20साल तक संघर्ष किया, लेकिन आखिरकार, इसने हमें सब कुछ दिया.
आपने आकाशवाणी के साथ बाल कलाकार के रूप में शुरुआत की. क्या आपको अपना पहला गाना याद है?
अहमद हुसैन: हां, हमने 1959में शुरुआत की थी. वह पहला गाना और हमें मिली सराहना आज भी हमारी यादों को संजो कर रखती है. हमें डिप्लोमा और सर्टिफिकेट दिए गए; वे पल हमारे करियर की नींव थे.
(भाईयों ने गाना गाया, उनकी आवाज़ में अभी भी उन शुरुआती सालों की मासूमियत और आकर्षण झलकता है.)
आपका पहला एल्बम गुलदस्ता मशहूर है. कोई किस्सा?
अहमद हुसैन: गुलदस्ता 1978 में बना था. हमने अंबिकापुर में आकाशवाणी के निदेशक दिवंगत अमीक अहमद हन्नाफी के अनुरोध पर "मैं हवा हूं, कहां वतन मेरा" गाया.
मोहम्मद हुसैन: बाद में, महान पद्मश्री सितारा देवी जी ने हमें कल्याणजी-आनंदजी से मिलवाया. हमने 1979 में एल्बम रिकॉर्ड किया था और इसे 1980 में रिलीज़ किया गया था. इसे आज भी पसंद किया जाता है - यह ब्रह्मांड की ओर से एक उपहार है.
वीर ज़ारा के लिए गाने का आपका अनुभव कैसा रहा?
अहमद हुसैन: यश चोपड़ा जी चाहते थे कि हम कव्वाली गाएँ. हम झिझक रहे थे, यह हमारा सहज क्षेत्र नहीं था. लेकिन उनका मानना था कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित कोई भी व्यक्ति कुछ भी गा सकता है. गीत हमारे पिता ने रचा था, बोल जावेद अख्तर ने लिखे थे, और यह बहुत ही सुंदर निकला.
मोहम्मद हुसैन: गुलशन कुमार ने एक बार हमसे पूछा कि क्या हम भजन जानते हैं. हम खुश हो गए! उन्होंने हमारी इच्छा का सम्मान किया और रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो में प्रवेश करने से पहले अपने जूते भी उतार दिए. अब हमारे पास पाँच भजन एल्बम हैं. चाहे वह ग़ज़ल हो या भजन, यह हमेशा कला के प्रति समर्पण के बारे में रहा है.
आप महत्वाकांक्षी गायकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
हुसैन ब्रदर्स: हम अभी भी संगीत के छात्र हैं. लेकिन अगर हम साझा कर सकें, तो कला धैर्य, विनम्रता और समर्पण की मांग करती है. प्रसिद्धि या धन के पीछे मत भागो. ज्ञान प्राप्त करो, और अपने उस्ताद का ईमानदारी से पालन करो. बाकी सब अपने आप हो जाएगा.
और विदा लेते समय, हमारे दिल से एक दोहा:
“मेहरबान हो के बुला लो हमें चाहो जिस दम,
हम गए वक्त नहीं हैं कि आ भी न सकें.”
उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की विरासत सिर्फ़ उनके संगीत पर ही नहीं बनी है, बल्कि उनके द्वारा दर्शाए गए मूल्यों पर भी आधारित है - विनम्रता, अनुशासन और कला के प्रति गहरा सम्मान. उनकी आवाज़ में, ग़ज़ल ज़िंदा है - शाश्वत, सुंदर और हमेशा गूंजती हुई.
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