हिंदुस्तान के हुनरमंदः कश्मीरी सूट और शॉल पर कशीदे का करिश्मा करता है शिल्पकार एजाज का खानदान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 03-03-2023
अपनी दुकान पर कशीदे के करिश्माई एजाज
अपनी दुकान पर कशीदे के करिश्माई एजाज

 

अर्चना

शिल्पकार के. एजाज हुसैन के दादा महीने भर दूसरे के लिए तैयार करके थे माल, 15-20रुपए कमा पाते थे, तीसरी पीढ़ी ने संभाला पुश्तैनी काम, खुद शुरू किया बिजनेस, लाखों में कारोबार, 60-70 लोगों को दिया है रोजगार

 

श्रीनगर के रहने वाले शिल्पकार एजाज हुसैन के दादा दिवंगत मोहम्मद जान दूसरों के लिए काम करते थे. अपने घर बैठकर सुई से पशमीना शॉल और शूट आदि की कढ़ाई किया करते थे.

 

महीने भर कड़ी मेहनत करने के बाद परिवार का खर्च चलाने के लिए बड़ी मुश्किल से उन्हें 15-20रुपए मिल पाते थे. धीरे धीरे समय बदला. अब तीसरी पीढ़ी के शिल्पकार एजाज हुसैन ने खुद अपना पुश्तैनी काम को संभाला और वह लाखों की कमाई कर रहे हैं.

 

हुसैन ने श्रीनगर में शोरूम भी खोल रखा है. 60-70लोगों को रोजगार देकर उनके परिवार का भी पालन-पोषण कर रहे हैं. देश के विभिन्न राज्यों में अपने उत्पाद की सप्लाई करते हैं. और विभिन्न राज्यों में लगने वाले मेलों में भी हिस्सा लेते हैं.

 

वर्ष 2004में जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा राज्यस्तरीय पुरस्कार से उन्हें नवाजा जा चुका है. 48वर्षीय शिल्पकार एजाज हुसैन के परिवार के संघर्ष और सफलता की कहानी देशभर के हुनरमंदों के लिए प्रेरणास्रोत हो सकती है.

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दादा ने दूरदराज के गांवों में जाकर सीखी कशीदाकारी

 

राज्य पुरस्कार विजेता शिल्पकार एजाज हुसैन बताते हैं कि उनके दादा दिवंगत मोहम्मद जान आजादी के पहले दूरदराज के गांवों में जाकर शिल्पकारी सीखते थे. 8-10साल तक वह संघर्ष करते रहे. फिर बड़े बड़े कारोबारियों के यहां पश्मीना शॉल और राज्य के पारंपरिक ड्रेस शूट पर कढ़ाई का काम करने लगे.

 

वह महीने भर काम करते थे. तब बड़ी मुश्किल से 15-20रुपए मेहनताना मिल पाता था. उन्होंने बताया कि दादा काम लाकर घर पर बैठकर घुटने पर रखकर बारीकी से कढ़ाई किया करते थे. कई बार तो एक शॉल में कढ़ाई पूरी करने में महीने भर लग जाते थे. 

 

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दस साल की उम्र में पिता ने सीखी कारीगरी

एजाज बताते हैं कि उनके वालिद दिवंगत मोहम्मद युसुफ खान ने दस साल की उम्र में दादा मो. जान से कारीगरी सीखी. इसके बाद दादा की मदद करने लगे. अब परिवार की कमाई थोड़ी बढ़ गई. कुल मिलाकर 150से 200रुपए कमाई होने लगी.

 

लेकिन समस्या यह थी कि दोनों पिता-पुत्र के पास कोई तालीम नहीं थी. उन्हें बाजारों के बारे में भी उतनी जानकारी नहीं थी. नतीजतन, उनकी दो पीढ़ी दूसरों के लिए ही काम करके परिवार पालती रही. पहले पैसों और सुविधाओं दोनों की कमी थी. समय के साथ बदलाव आया.

 

पहले मजदूरी करके पैसे इकट्ठा किए, फिर शुरू किया काम

 

एजाज बताते हैं कि उनके घर में इतनी पूंजी नहीं थी कि वह अपना काम आसानी से शुरू कर पाते. उन्होंने आठवीं तक किसी तरह पढ़ाई करने के बाद परिवार का हाथ बंटाने के लिए दूसरे के यहां मजदूरी करना शुरू किया.

 

करीब पांच साल तक दूसरे के यहां मजूदरी करके कुछ पैसे इकट्ठा किए. काम पुश्तैनी था इसलिए शॉल, शूट या दुपट्‌टे पर नक्काशी सीखने में ज्यादा परेशानी नहीं आई. दादा और पिता को देख-देखकर काम सीख गए.

 

पैसे जमा होने के बाद उन्होंने लद्दाख में मिलने वाला पश्मीना ऊन मंगाना शुरू किया और खुद का कारोबार धीरे-धीरे शुरू किया.

 

39 साल पहले संभाला काम, अब लाखों में कारोबार

 

शिल्पकार एजाज कहते हैं, “करीब 39 साल पहले 1984 में अपना कारोबार शुरू किया. पहले तैयार माल बेचने में परेशानी होती थी तो बाजारों में जाकर कर सामान बेचते थे.”

 

एजाज कहते हैं कि उन्होंने 8-9 साल की उम्र ही शिल्पकारी का गुण सीखना शुरू किया था. अब वह संघर्ष करके हर महीने लाखों की कमाई करते हैं. दो-दो हैंडलूम लगा रखे हैं. इस पर काम करने के लिए 60-70 लोगों को को नौकरी दे रखी है.

 

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लद्दाख से ऊन मंगाकर कश्मीर में करते हैं बुनाई

एजाज बताते हैं कि वह पश्मीना शॉल के लिए ऊन लद्दाख से मंगाते हैं. उसकी बुनाई और शिल्पकारी कश्मीर में करते हैं. उन्होंने बताया कि वह पश्मीना शॉल, शूट, स्टॉल, जाकेट, कुर्ती आदि में नक्काशी करके बाजारों में बेचते हैं.

एक पीस बनाने में कम से कम दस दिन और अधिकतम तीन साल तक का समय लगता है. खासकर पशमीना शॉल बनाने और नक्काशी करने में ढाई से तीन साल तक समय लगता है. एजाज ने बताया कि नक्काशी करने से पहले कपड़े के ऊपर खाका डालते हैं फिर उसमें हाथ से कढाई करते हैं. 

 

इन इन राज्यों में करते हैं सप्लाई

 

एजाज अपने पश्मीना शॉल, शूट, स्टॉल, जाकेट और कुर्ती दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, राजस्थान, असम, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, मणिपुर आदि राज्यों में सप्लाई करते हैं.

 

उनका कहना है कि इसी पुश्तैनी हुनर से आज उनके परिवार का जीवकोपार्जन अच्छी तरह से हो रहा है. उनका कहना है कि पहले हुनर हाट में देश के शिल्पकारों को अपने हुनर दिखाने का मौका मिलता था. शिलपकारों की आमदनी भी अच्छी होती थी. लेकिन इसके बंद होने से थोड़ी परेशानी जरूर हुई है.

 

सरकार से मिल रहा सहयोग

 

एजाज बताते हैं उन्हें केंद्र एवं राज्य सरकार से अच्छा सहयेाग मिल रहा है. सरकार उनके प्रोडक्ट की मार्केटिंग के लिए अवसर प्रदान कर रही है. देश के जिन जिन हिस्सों में मेला अथवा प्रदर्शनी आदि लगते हैं उन्हें जाने का अवसर दिया जाता है.

 

उनकी मांग है कि सरकार हुनर हाट को फिर से शुरू करे, ताकि शिल्पकारों को इसका लाभ मिल सके.

 

उन्होंने बताया कि अपना कारोबार करने में उन्हें अब किसी आर्थिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. वह कहते हैं कि कारोबार संभालने के लिए पूरे परिवार के छह सदस्य इसी काम में लगे हैं. साथ ही 60-70लोगों को काम करने के लिए रखा गया है. ताकि मांग की सप्लाई को पूरा किया जा सके.

 

छह लाख तक कीमत की बनाते हैं पशमीना शॉल

 

एजाज कहते हैं, कि वह असली पश्मीना शॉल दो तरह की बनाते हैं. पहली, बिना किसी नक्काशी की और दूसरी नक्शाकेदार. बगैर नक्काशी वाले शॉल की कीमत करीब 9500तक की होती है. जबकि नक्काशाीदार शॉल की कीमत करीब पांच से छह लाख तक की होती है.

 

वह बताते हैं कि उनके कई ग्राहक विभिन्न राज्यों के महानगरों में हैं. महंगी वाली शॉल ऑन डिमांड बनाई जाती है. इसके अलावा वह निर्यातकों के लिए भी माल तैयार करते हैं. दुनियाभर के अधिक ठंड वाले देशों में भी पश्मीना शॉल भेजी जाती है.

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(हिंदुस्तान के हुनरमंद सीरीज में हम देश के शिल्पकारों, दस्तकारों और कारीगरों की कहानियां आपको एक श्रृंखला के रूप में पेश करेंगे. आप की राय और टिप्पणियों का इंतजार रहेगाः संपादक)