शकील बदायुनी की ग़ज़लों को समझने के लिए लोगों ने उर्दू सीखी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 04-08-2024
Birthday: People learned Urdu to understand Shakeel Badyuni's ghazals
Birthday: People learned Urdu to understand Shakeel Badyuni's ghazals

 

-ज़ाहिद ख़ान

शायर शकील बदायुनी को हम आज एक कामयाब फ़िल्मी नग़मा निगार के तौर पर जानते हैं.इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि फ़िल्मों में आने से पहले वह आपूर्ति विभाग में नौकरी करते थे.अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से ग्रेजुएशन के बाद उनकी यह नौकरी लग गई.

नौकरी भले ही लग गई, मगर शकील साहब की शे'र-ओ-शायरी से लगाव-मोहब्बत नहीं छूटी.एक तरफ़ नौकरी चलती रही,दूसरी ओर मुशायरों में भी हिस्सा लेते रहे.मुशायरों से उन्हें मुल्क भर में बे—पनाह शोहरत मिली.उस दौर में अदब के बाद सिनेमा अवाम में सबसे ज़्यादा मक़बूल था.

बड़े से बड़े अदीब और फ़नकार को सिनेमा अपनी ओर खींचता था.सिनेमा एक बड़ा माध्यम भी था, लोगों तक पहुंचने का.अपनी बात उन तक पहुंचाने का.लिहाज़ा शकील बदायुनी ने भी फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़माने के लिए यह सरकारी नौकरी छोड़ दी.

 साल 1946 में दिल्ली छोड़कर वह मुंबई चले गए.वहाँ उन्होंने फ़िल्म निर्माता एआर कारदार और मौसीक़ार नौशाद से मुलाक़ात की.तजुर्बेकार नौशाद ने उन्हें एक सिच्युएशन बतलाई और उस पर कुछ लिखने को कहा.

शकील ने फ़ौरन ही उस सिच्युएशन को नग़मे में ढाल दिया, ‘‘हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे.’’ यह नग़मा नौशाद को ख़ूब पसंद आया.कारदार साहब ने नौशाद के कहने पर फ़िल्म ’दर्द’ के गानों के लिए शकील बदायुनी को साइन कर लिया.

साल 1947मे आई फ़िल्म ’दर्द’ के इस टाइटल गीत के अलावा ‘‘अफ़साना लिख रही हूं दिले बेक़रार का, आंखों में रंग भरके तेरे इंतज़ार का….’’ उमा देवी उर्फ़ टुनटुन के गाए इस गीत ने पूरे मुल्क में धूम मचा दी.फ़िल्म के गीतों की कामयाबी के साथ ही शकील बदायुनी फ़िल्मी दुनिया में जम गए.

इस फ़िल्म से शुरुआत हुई मौसीक़ार नौशाद और नग़मा निगार शकील बदायुनी की जोड़ी की. इस शानदार जोड़ी ने आगे चलकर एक के बाद एक कई नए रिकॉर्ड क़ायम किए.‘दर्द’ के बाद साल 1951में इस जोड़ी की पिक्चर ‘दीदार’ आई.

इस फ़िल्म के भी सारे गाने सुपर हिट साबित हुए.ख़ास तौर पर ‘‘बचपन के दिन भुला न देना, आज हंसे कल रुला न देना….’’ जवां दिलों की धड़कन बन गया.नौशाद और शकील बदायुनी ने एक साथ बीस साल से ज़्यादा काम किया.

या यूं कहिए शकील ने अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक नौशाद की मौसीक़ी के लिए नग़मे लिखे.नग़मे भी एक से बढ़कर एक लाजवाब! आलम यह कि नौशाद और शकील बदायुनी की जोड़ी किसी भी फ़िल्म की कामयाबी की ज़मानत समझी जाती थी.

 ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘आदमी’, ‘राम और श्याम’, ‘पालकी’, ‘उड़नखटोला’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुग़ल-ए-आज़म’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘बैजू बावरा’, ‘कोहिनूर’ आदि सदाबहार फ़िल्मों के गीत-संगीत शकील और नौशाद के ही हैं.

शकील बदायुनी ने हिंदुस्तानी अवाम की बोली-बानी में वे गीत रचे, जो उनके दिल के क़रीब थे, तो कुछ ऐसे गीत भी लिखे, जो उन्हें ख़ूब पसंद आए. मिसाल के तौर पर फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ और ‘मदर इंडिया’ की स्टोरी की मांग के मुताबिक़ गीत, लोक धुनों पर रचे जाने थे.जिसमें भी फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ के सारे गीत भोजपुरी में लिखने की डिमांड थी.

शकील बदायुनी ने इस चुनौती को मंज़ूर किया.ऐसे-ऐसे गीत लिखे, जो ऑल इडिया हिट साबित हुए.‘‘दगाबाज तोरी बतियां..’’, ‘‘ढूंढ़ो-ढ़ूंढ़ो रे साजना’’ और ‘‘नैन लड़ जइहें तो मनवा मा….’’ समेत ‘गंगा जमुना’ के सभी गाने आज भी पसंद किए जाते हैं.

फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ की बड़ी कामयाबी के पीछे भी उसका गीत-संगीत था.इस गीत-संगीत को भी शकील-नौशाद की जोड़ी ने ही सजाया था.‘‘पी के आज प्यारी दुल्हनिया चली’’, ‘‘ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे’’, ‘‘होली आई रे’’, ‘‘दुख भरे दिन बीते रे भइया’’, ‘‘नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढ़ूंढ़ू रे सांवरिया’’ जैसे गाने लोक धुनों में होने के बावजूद सुपर हिट रहे.

 एक तरफ़ शकील बदायुनी ने इस तरह के गीत लिखे, तो दूसरी ओर ‘मुग़ल-ए-आज़म’, ‘मेरे महबूब’ और ‘चौदहवीं का चांद’ के गाने हैं.दोनों ही एक-दूसरे से जुदा.एक लोक की आवाज़, तो दूसरे शे'र-ओ-शायरी के रंग में डूबे हुए.

 एक नग़मा निगार की विविधता इन फ़िल्मों के गाने सुनकर समझी जा सकती है.‘‘प्यार किया तो डरना क्या..’’, ‘‘ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद ए मोहब्बत ज़िंदाबाद…’’(मुग़ल-ए-आज़म) ‘‘ऐ हुस्न ज़रा जाग तुझे इश्क़..’’, ‘‘मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की..’’(मेरे महबूब).

 फ़िल्मों में जब भजन लिखने की बारी आई, तो यहां भी शकील ने अपनी क़ाबलियत का सिक्का जमाया.‘‘ओ दुनिया के रखवाले…’’, ‘‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज..’’ (बैजू बावरा), ‘‘इंसाफ़ का मंदिर है, ये भगवान का घर है…’’ (अमर), ‘‘जय रघुनन्दन जय गोपाला..’’ (घराना).

शकील बदायुनी ने सबसे ज़्यादा गीत नौशाद के लिए लिखे.नौशाद के बाद उनकी जोड़ी संगीतकार रवि के साथ बनी.दोनों ने भी अपने चाहने वालों को कई बेहतरीन गाने दिए.‘चौदहवीं का चांद’, ‘दो बदन’, ‘घराना’, ‘नर्तकी’, ‘फूल और पत्थर’ आदि फ़िल्मों में इस जोड़ी ने कमाल कर दिखाया.

 लोगों को इस बात का तआज्जुब होगा कि शकील बदायुनी ने सबसे ज़्यादा सुपर हिट फ़िल्में नौशाद के साथ कीं, लेकिन उन्हें उन फ़िल्मों के लिए कोई अवार्ड नहीं मिला.उनको तीन बार फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला, जिसमें दो बार ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘घराना’ के संगीतकार रवि थे, तो फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ में संगीतकार हेमंत कुमार थे.

ये तीनों ही अवार्ड उन्हें लगातार तीन साल इन गानों ‘‘चौदहवीं का चांद हो या आफ़ताब हो..’’ (चौहदवीं का चांद, 1961), ‘‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं…’’ (घराना, 1962) और ‘‘कहीं दीप जले कहीं दिल…’’ (बीस साल बाद, 1963) के लिए मिले.इश्क़-मोहब्बत, दर्द-ग़म-जुदाई के मिले-जुले जज़्बात से शकील बदायुनी की ग़ज़लें और नग़मे आकार लेते थे.

एक शायर और गीतकार के तौर पर अवाम से उनका गहरा ताल्लुक रहा.फ़िल्मी गानों में भाषा, शिल्प और शायरी के मेयार से उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया.अवाम के ज़ौक और शौक़ को देखते हुए उन्होंने गाने रचे.

फ़िल्मों के अलावा शकील बदायुनी ने कई ऐसी शानदार ग़ज़लें ‘‘मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे’’, ‘‘ऐ मुहब्बत, तेरे अंजाम पे रोना आया..’’ भी लिखीं, जिन्हें ‘मलिका-ए-ग़ज़ल’ बेगम अख़्तर ने गाकर अमर कर दिया.

 मुल्क में ही नहीं पूरी दुनिया में उर्दू ज़बान को जिन शायरों ने ग़ज़लों, नज़्मों और फ़िल्मी नग़मों के हवाले से आगे बढ़ाया. उनमें शकील बदायुनी का नाम हमेशा अव्वल नंबर पर रहेगा.एक दौर ऐसा भी था कि उनकी ग़ज़लों और नग़मों की वजह से उर्दू ज़बान की मक़बूलियत बढ़ी.

 उनके नग़मों को प्यार-पसंद करने वालों ने उर्दू सीखी.उर्दू ज़बान अवाम में मक़बूल हुई.मगर अफ़सोस कि शकील बदायुनी को उर्दू अदब में वह एज़ाज़-एहतिराम और मुक़ाम नहीं मिला, जिसके वह हक़ीक़ी हक़दार थे.