श्रीनगर से तस्वीरें और रिपोर्ट बासित जरगर
कश्मीर घाटी की हसीन वादियों में स्थित अनंतनाग जिले का ऐशमुकाम गांव हर साल मार्च-अप्रैल के बीच एक अनोखी रौशनी से जगमगा उठता है. यह अवसर होता है 15वीं शताब्दी के प्रसिद्ध सूफी संत हज़रत जैन-उद-दीन वली के वार्षिक उर्स का, जिसे बड़ी श्रद्धा, उत्साह और अद्वितीय परंपराओं के साथ मनाया जाता है.
ऐशमुकाम की पहाड़ी पर स्थित एक प्राचीन गुफा, जहां दरगाह भी स्थापित है, उर्स के दौरान आस्था और रहस्य का केंद्र बन जाती है. इस दरगाह पर न केवल मुसलमान बल्कि हिंदू, सिख और अन्य धर्मों के अनुयायी भी बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं.
सभी के हाथों में होती हैं जलती हुई मशालें – यह परंपरा उस ऐतिहासिक क्षण की स्मृति है जब संत जैन-उद-दीन वली ने गुफा में ध्यान के लिए प्रवेश किया था. वहां रहने वाले सांपों व सरीसृपों को बाहर जाने का आदेश दिया था.
कौन थे हज़रत जैन-उद-दीन वली?
जैन-उद-दीन वली का जन्म जिया सिंह नामक एक राजपूत राजकुमार के रूप में हुआ था. वे पड़ोसी किश्तवाड़ जिले के एक हिंदू शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे. अनंतनाग जिले की आधिकारिक वेबसाइट और स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, जिया सिंह बचपन में एक गंभीर बीमारी से पीड़ित हो गए थे.
उनकी मां, जो बेटे के स्वास्थ्य को लेकर अत्यंत चिंतित थीं, कश्मीर के एक प्रसिद्ध सूफी संत शेख नूरुद्दीन नूरानी उर्फ नूरदीन रेशी के पास गईं. उन्होंने बच्चे के लिए प्रार्थना की, लेकिन एक शर्त रखी — यदि बच्चा ठीक हो जाए, तो उसकी मां उसे कश्मीर लेकर आएगी और सूफी मार्ग पर चलने का अवसर देगी.
आध्यात्मिक मार्ग पर पहला कदम
जिया सिंह वास्तव में चमत्कारिक रूप से ठीक हो गए, लेकिन उनकी मां वादा भूल गईं. जल्द ही लड़का दोबारा बीमार पड़ गया. तब एक रात, उन्होंने सपने में वही फकीर देखा.
वादा याद आया. फिर उन्होंने बेटे को कश्मीर लाया, जहां दोनों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया. इस प्रकार जिया सिंह बन गए हज़रत जैन-उद-दीन वली, और उन्होंने शेख नूरदीन रेशी के संरक्षण में आध्यात्मिक साधना शुरू की..
गुफा और सांपों का रहस्य
एक दिन, उनके आध्यात्मिक गुरु ने उन्हें ध्यान के लिए ऐशमुकाम की गुफा में भेजा. जब वे वहां पहुंचे, तो गुफा में सांपों और विषैले जीवों का बसेरा था. किंवदंती है कि संत ने उन्हें आदेश दिया और वे सभी जीव गुफा से बाहर निकल गए. इसके बाद से यह स्थान "पवित्र गुफा" के रूप में प्रसिद्ध हो गया.
आज भी जिंदा है वह परंपरा
उसी क्षण की स्मृति में आज भी हर साल यह उर्स आयोजित होता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु मशालों की रौशनी के साथ गुफा तक पहुंचते हैं. यह रिवायत न सिर्फ सूफी प्रेम की मिसाल है बल्कि धार्मिक एकता, सहिष्णुता और सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक भी बन चुकी है.
क्यों है यह उर्स खास?
यह उर्स केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर है जो हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करता है.
यहां लोग किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधते.
दरगाह में हर धर्म के लोग आकर दुआएं मांगते हैं, मन्नतें पूरी करते हैं.
स्थानीय युवाओं, महिलाओं और बच्चों की सक्रिय भागीदारी इस आयोजन को जन-उत्सव बना देती है.
ऐशमुकाम का यह उर्स हमें यह सिखाता है कि आस्था की कोई सरहद नहीं होती. जैन-उद-दीन वली की कहानी सिर्फ एक सूफी संत की नहीं, बल्कि आध्यात्मिक खोज, धर्म के प्रति समर्पण और मानवता के मार्गदर्शन की मिसाल है.
और इसीलिए, हर साल मार्च-अप्रैल में जब पहाड़ों की गुफा मशालों की रोशनी से जगमगाती है, तो सिर्फ दरगाह ही नहीं, पूरी घाटी प्रेम और एकता के उजाले से भर जाती है.