रूहानियत और समावेशी संस्कृति की अद्भुत मिसाल पंजाब का डेरा बाबा मुराद शाह

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 20-02-2023
रूहानियत और समावेशी संस्कृति की अद्भुत मिसाल पंजाब का डेरा बाबा मुराद शाह
रूहानियत और समावेशी संस्कृति की अद्भुत मिसाल पंजाब का डेरा बाबा मुराद शाह

 

अमरीक 

पंजाब को गुरुओं-पीरों की धरती कहा जाता है. 'चढ़दे पंजाब' (भारतीय पंजाब) से लेकर 'लहंदे पंजाब' (पाकिस्तानी पंजाब) तक ऐसा कोई भी शहर, कस्बा व गांव नहीं मिलेगा; जहां कोई न कोई मजार, दरगाह या फकीरों से वाबस्ता पूजनीय स्थल न हो. परंपरागत धार्मिक स्थानों के अतिरिक्त सूफी मत से प्रभावित 'डेरों' की तादाद भी पंजाब में खूब है. इन सबके बीच जिला जालंधर के नकोदर में बसा 'डेरा मुराद शाह' सूफी-फकीरों से वाबस्ता सबसे अलहदा डेरा है जो जगप्रसिद्ध है. हर लिहाज से अपने किस्म से अनूठा.

विलक्षण और मकबूल सूफी मत ही इस डेरे की बुनियाद है. बेशक डेरा बाबा मुराद शाह तीन पीढ़ियों के रहनुमा देख चुका है और आज भी इस पवित्र स्थल पर उनकी निशानियां कायम हैं लेकिन इस डेरे की अपनी कोई किताब या लिखित फलसफा और तवारीख नहीं है.  इस बाबत जो कुछ है; वह पीढ़ी दर पीढ़ी जुबानी ही है और बेतहाशा सुना-सुनाया जाता है. इस डेरे की खसूसियतों में यह भी शुमार है कि पंजाब का लगभग हर बड़ा गायक और कव्वाल यहां आकर अपना फन जाहिर कर चुका है.

स्थापितों से लेकर नवोदित संघर्षशीलों तक. तकरीबन हर घराने का गायक-कव्वाल अपनी हाजिरी इस दरबार में लगा चुका है. शर्त बस यही रहती है कि वह बेसुरा न हो. पंजाब का बदला ही कोई ऐसा गायक या कव्वाल है जो किसी न किसी दरगाह, मजार या डेरे से जुड़ा हुआ न हो. इस बाबत डेरा बाबा मुराद शाह उनकी पहली ख्वाहिश है. यहां के सालाना उर्स एवं मेलों में आने वाले श्रद्धालुओं की तादाद लाखों में होती है.

वे पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली से ही नहीं बल्कि सुदूर विदेशों से भी आते हैं. नकोदर को एनआरआई पट्टी कहा जाता है. पंजाब के जिन कमोबेश छोटे शहरों से जाकर लोग रोजी-रोटी के लिए अमेरिका, कनाडा, जर्मन, ऑस्ट्रेलिया, इटली सहित अन्य देशों में बसे हैं-नकोदर उनमें अग्रणी है. इनमें से भारी तादाद में एनआरआई डेरा बाबा मुराद शाह में लगने वाले मेलों और उर्स में हिस्सेदारी के लिए सपरिवार आते हैं. इस मानिंद डेरा बाबा मुराद शाह का नाम दुनिया भर में मशहूर है. समावेशी संस्कृति की एक मिसाल यहां आकर भी देखिए कि इस डेरे में मेलों व सालाना उर्स के अतिरिक्त हजारों लोग वीरवार को आते हैं; उनमें हिंदुओं और सिखों की तादाद ज्यादा होती है.

मुसलमान भी अच्छी संख्या में यहां आते हैं. डेरा किसी भी किसी भी तरह के भेदभाव और अंधविश्वास से कोसों परे है. रूहानियत ही इसकी सबसे बड़ी खासियत है. डेरा बाबा मुराद शाह लुधियाना और जालंधर से तकरीबन 25 किलोमीटर के फासले पर है और अमृतसर से इसकी दूरी 105 किलोमीटर के करीब है. सूबे के किसी भी इलाके से आपने सार्वजनिक सवारी द्वारा यहां पहुंचना हो तो इतना कहना काफी है कि डेरा बाबा मुराद शाह जाना है! इस नाम का दीया पंजाब के कोने-कोन में रोशन है. नकोदर का एक शाब्दिक अर्थ 'इस जैसा न कोई दर' भी है.

जालंधर जिले का यह कस्बा नकोदर कभी लगभग बेआबाद था. आबाद हिस्सा भी पिछड़ा हुआ था. मुगल सल्तनत के कुछ वंशजों के कदम यहां पढ़ चुके थे लेकिन जैसे ही मुगलिया दौर खत्म हुआ तो नकोदर भी लगभग उजाड़ और लावारिस-सा हो गया.

पिछली पीढ़ियों के कुछ जानकार बताते हैं कि कोई छह या सात दशक पहले 'लहंदे पंजाब' (यानी अब पाकिस्तान) से एक सूफी फकीर बाबा शेरेशाह एकांत की तलाश में इबादत के लिए यहां आए. वह चाहते थे कि उनके इर्द-गिर्द ज्यादा लोग इकट्ठा न हों.

 

ताकि उनकी इबादत में खलल न डले. बाबा शेरशा अक्सर आला सूफी फकीर वारिस शाह की हस्तलिखित रचना 'हीर' पढ़ते नजर आते थे. जनश्रुति के अनुसार इनकार के बावजूद आसपास के कुछ लोग, इनमें से कुछ रसूखदार भी कहलाते थे, बाबा के सूफियाना रहन- सहन से प्रभावित होकर उनके पास आने लगे. इनमें से जैलदारों का परिवार भी था. वह इस सूफी-संत की खूब सेवा करता था. उसी परिवार का एक लड़का विद्यासागर था जो अपने तीन भाइयों में से सबसे ज्यादा पढ़-लिख कर नौकरी के लिए दिल्ली चला गया और वहां विद्युत विभाग में अधिकारी के पद पर तैनात हो गया.

एक मुस्लिम लड़की की सहकर्मी थी और उससे उन्हें रूहानी मोहब्बत हो गई. इजहार भी कर दिया लेकिन दोनों की शादी इसलिए नहीं हो सकी कि मजहब अलहदा थे. उदास-निराश विद्यासागर ने अवसाद में आकर नौकरी छोड़ दी और नकोदर चले आए. बताने वाले इस इत्तफाक का जिक्र भी करते हैं कि रेलयात्रा के दौरान वह 'हीर' पढ़ते रहे. नकोदर आकर वह बाबा शेरशाह से मिले तो उन्होंने विद्यासागर को रूहानियत के कई सबक सिखाए.

वह घरबार छोड़कर दिन-रात बाबा शेरेशाह के पास रहने लगे. 1947 के बंटवारे के वक्त बाबा शेरेशाह का सगा बेटा और बहु नकोदर आए और जिद करने लगे कि वह उनके साथ पाकिस्तान चलें. शेरेशाह विद्यासागर को अपना सबसे करीबी शागिर्द ही नहीं बल्कि बेटा भी मानते थे.

लेने आए अपने बहू-बेटे से उन्होंने कहा कि मैं तो फकीर हूं, कहीं भी चल दूंगा लेकिन पहले विद्यासागर से पूछ लो. पूछने पर विद्यासागर ने कहा कि मैं बाबाजी के बगैर नहीं रह पाऊंगा. तब बाबा शेरेशाह ने विद्यासागर को पास बुलाकर कहा कि फकीरों का कोई दर या मजहब नहीं होता. मेरे मोह में इस तरह मत पड़ो. रूहानियत का जो सबक मैंने सिखाया है, उसपर अमल करो. मुझे अगली किसी जगह जाने दो और तुम यहीं रहो.

किवदंती के मुताबिक बाबा शेरेशाह ने विद्यासागर से कहा कि मेरे बाद दुनिया तुम्हें याद रखेगी. तुम्हारा नाम रहती दुनिया तक आबाद रहेगा. तुम मेरी पीढ़ी के असली वारिस हो और आज के बाद दुनिया तुम्हें 'मुराद शाह' के नाम से याद रखेगी और जानेगी. जो भी तुम्हारे दर पर आएगा मुंह मांगी मुरादें पाएगा. इस तरह विद्यासागर 'बाबा मुराद शाह हो गए.' यह एक तरह से उनका गद्दीनशीन होना था. वह भी अपने मुर्शिद की मानिंद हीर पढ़ा करते थे.

जहां आज बाबा मुराद शाह का भव्य दरबार है, वहां कभी जंगल और एकमात्र कुआं हुआ करता था. धीरे-धीरे लोग मुराद शाह से मिलने आने लगे. संगीत से उन्हें बेपनाह लगाव था. रूहानी और 'विरह' संगीत से. मलेरकोटला के मशहूर कव्वाल करामत अली खान भी वहां जाकर कव्वालियां गाते थे और यह दौर कई-कई दिन तक अनवरत चलता था. बाबा मुराद शाह उन्हें सुनकर मस्त होते थे और खूब निहाल करते थे.     

                         

एक जनश्रुति और है. बाबा शेरेशाह ने एकबारगी मुराद शाह से कहा था कि जब कभी किसी दिन तुम्हारे पैर में कांटा चुभ गया, समझ लेना मैं दुनिया छोड़ गया. एक दिन मुराद शाह के पैर में कांटा चुभा तो उन्होंने मान लिया कि अब शेरेशाह इस फानी दुनिया से कूच कर चुके हैं. बाबा शेरेशाह ने उन्हें जब मुराद शाह का नाम दिया था, उस वक्त उनकी उम्र 24 साल थी. 28 साल की अल्पायु में ही बाबा मुराद शाह जी दुनिया से कूच कर गए.

महज चार साल में ही वह वली हो गए थे. 1960 में वह रुखसत हुए और तब तक स्टील फोटोग्राफी का दौर आ चुका था लेकिन पूरी दुनिया में बाबा मुराद शाह की सिर्फ एक ही फोटो आपको मिलेगी. वह फोटो भी उन्होंने फाड़ दी थी लेकिन उनके भाई ने उसे दोबारा जोड़ लिया. जिस्मानी अंत के बाद बाबा मुराद शाह को वहीं दफन किया गया, जहां आज विशाल डेरा है और उनके मुर्शिद बाबा शेरेशाह की दरगाह फिरोजपुर के पास है.

इससे पता चलता है कि शेरेशाह अन्य रूहानी फकीरों की तरह आवाजाही करते रहते थे लेकिन नकोदर के बहुतेरे लोग बाकायदा पुष्टि करते हैं कि एक बार जाने के बाद फिर वह कभी यहां नहीं आए. इतनी जानकारी जरूर है कि उनके वंशज पाकिस्तान में हैं. भारतीय पंजाब के सीमांत शहर फिरोजपुर के उस पार. मशहूर पंजाबी और बॉलीवुड गायक मास्टर सलीम के पिता और सूफी गायक कहलाने वाले गायक (अब सांसद) हंसराज हंस के उस्ताद पूर्णचंद शाहकोटी डेरा बाबा मुराद शाह के पुराने मुरीद हैं. इन दिनों जालंधर में रहते हैं. वह कहते हैं, "बचपन से मैं डेरा बाबा मुराद शाह जाता रहा हूं और मेरे गायन की विधिवत शुरुआत भी वहीं से हुई.

अपनी पत्नी और मास्टर सलीम के साथ भी मैं उस दरबार में जाकर गाया करता था. सलीम को मैं उसी दरबार की अमानत समझता हूं. बाबा मुराद शाह कूच कर गए तो उन्होंने लाडी साईं को अपना वारिस बनाया. वह मुराद शाह के भतीजे थे और उनका असली नाम विजय कुमार भल्ला था.

जब विजय कुमार भल्ला को लाडी साईं का नाम देकर गद्दीनशीन किया गया तो उस वक्त उनकी उम्र महज चौदह साल थी लेकिन वह रूहानियत के हर रंग से रंगे हुए थे. लाडी साईं ने अपने मुर्शीद की मजार को ऐसा गुलजार किया कि दुनिया देखती रह गई. मेरे देखते-देखते यह डेरा विस्तार पाता रहा. लाडी साईं भी संगीत में रहते थे.

आपने संगीत का उपासक भी कह सकते हैं. कोई भी गवैया उनके दर पर आ जाता था तो उसे वह जरूर सुनते और अपने मुर्शिद की तरह निहाल करके भेजते. मैं सपरिवार वीरवार और रविवार के दिन वहां जाकर गाता था. मेरा साथ पहले मेरी बीवी और उसके बाद सलीम देने लगा." शाहकोटी तस्दीक करते हैं कि हर छोटा-बड़ा पंजाबी गायक उनके दरबार में आकर प्रस्तुति दे चुका है.                             

अस्सी के आसपास गुरदास मान ने गाना शुरू किया. ठेठ पंजाबी पोशाक और हाथ में डफली उनकी पहचान थी. एक दिन साईं लाडी शाह के पास पंजाब के दो बड़े मकबूल गायक कुलदीप मानक और सुरिंदर छिंदा बैठे हुए थे कि लाडी शाह ने कहा कि वह (गुरदास मान) गायक लड़का जो डफली लेकर घूमता है, उससे कहना कि कभी आए. एक शूटिंग में छिंदा ने इस बाबत मान को बताया तो उनका कहना था कि जब बुलावा आएगा तो चला जाऊंगा.

गुरदास मान बताते हैं, "एक दिन मुझे महसूस हुआ कि मुझे बुलावा आया है और मैं सीधे साईं लाडी शाह के पास हाजिर हो गया. उस दिन के बाद मैं उनका मुरीद हो गया. वह मेरे सब कुछ थे." उस पहली मुलाकात के बाद गुरदास मान सैकड़ों बार डेरा बाबा मुराद शाह गए और वहां लगने वाले मेलों और उर्स में अपरिहार्य तौर पर गायन करते रहे. जब वह मंच से गाते थे तो साईं लाडी शाह बोरियों में भरे नोट उनपर वारा करते थे.

आलम यह रहता था कि पूरा मंच नोटों से भर जाता था. हालांकि हर गाने वाले को वहां नोटों की बड़ी-बड़ी थैलियों में से हुई बरसात से नवाजा जाता था और यह रिवायत साईं लाडी शाह के जाने के बाद आज भी कायम है.                                        अब गुरदास मान इस दरबार के गद्दीनशीं साईं के तौर पर भूमिका अदा कर रहे हैं. हालांकि जब साईं लाडी शाह ने रुखसती ली तब गुरदास मान विदेश में थे.

अपने मुर्शिद के जिस्मानी अंत की बाबत खबर पाते ही वह अपने सारे कार्यक्रम स्थगित करके सीधे नकोदर आए. अब गुरदास मान की अगुवाई में डेरा बाबा मुराद शाह से वाबस्ता रिवायतें उसी तरह निभाई जाती हैं. गुरदास मान कहते हैं, "मैं तो मामूली-सा सेवक हूं जो साईं जी के कहे मुताबिक हर काम को अंजाम देता हूं."       

        नकोदर में अभी कई दिवसीय मेला और उर्स होता है. एक रिवायत आज भी कायम है. मुराद शाह के वक्त से मलेरकोटला के करामत अली कव्वाल से रूहानी संगीत की महफिल शुरू होती थी. अब भी करामत अली के वंशज वहां सबसे पहले कव्वाली गाते हैं. पाकिस्तान से भी नामवर कव्वाल और गायक शिरकत करते हैं. खुद गुरदास मान आखिरी दिन कई-कई घंटे मस्त होकर वहां जाते हैं और बीच-बीच में साईं लाडी शाह की अनसुनी कुछ कहानियां हर बार बताते हैं.

गुरदास मान हर वक्त पांव में वे घुंघरू पहने रखते हैं जो साईं लाडी शाह ने उन्हें दिए थे. साईं लाडी शाह भी हरदम घुंघरू पहने हुए मिलते थे. वे घुंघरू उन्हें मुराद शाह ने पहनाए थे. खुद मुराद शाह हमेशा नंगे पांव चलते थे.                   

बाबा मुराद शाह डेरे में गुरदास मान के अतिरिक्त पंजाबी का हर छोटा-बड़ा गायक गायन-प्रस्तुति दे चुका है. हिंदुस्तान का तकरीबन हर बड़ा कव्वाल भी. वडाली बंधु भी हर साल यहां आते थे और अब लखविंदर वडाली से लेकर नूरां सिस्टर्स तक सभी आते हैं.

गुरदास मान कहते हैं, "जब तक कायनात रहेगी डेरा बाबा मुराद शाह में रूहानी महफिलें इसी तरह सजा करेंगीं." गुरदास मान इतनी व्यस्तता के बावजूद अब भी यहां अक्सर आते हैं और खुद अपने हाथों से सफाई तक की सेवा करते हैं. डेरे के लेखे-जोखे के लिए उन्होंने एक कमेटी बनाई हुई है. इसमें कुछ बड़े प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं.     

डेरा बाबा मुराद शाह में रूहानी महफिलें लगती हैं, गाने वालों पर उसी मानिंद पैसों (जिसे मुराद शाह, साईं लाडी शाह और अब गुरदास मान 'हकीकी' मानते हैं) की बरसात होती है. खूब मेहमान नवाजी की जाती है और दौलत के साथ-साथ तोहफों से भी निहाल किया जाता है. मास्टर सलीम ने दुनिया भर में बहुत नाम कमाया. वह कहते हैं, "मैं तो इस दरबार का कुत्ता हूं. दौलत-शोहरत जो भी मेरे पास आज है वह डेरा बाबा मुराद शाह की तथा साईं लाडी शाह की बदौलत है." उनके पिता उस्ताद गायक पूर्णचंद शाहकोटी कहते हैं कि कभी हमारे घर का चूल्हा तक नहीं जलता था लेकिन इस दरबार से इतना मिला कि आज हम बेशुमार लोगों को खिला सकते हैं.

उस्ताद गायक पूरनचंद वडाली के अनुसार, "पंजाब में सूफी गायन इसलिए भी जिंदा है कि यहां बाबा मुराद शाह सरीखे पीरों- फकीरों के डेरे हैं." नामवर गायक लखविंदर वडाली भावुक होकर कहते हैं, "आज मेरा मुकाम वह नहीं होता अगर इस रूहानी दरबार में मुझे गाने का मौका नहीं मिलता." नूरां सिस्टर्स भी मानतीं हैं कि उन्होंने डेरा बाबा मुराद शाह से बहुत कुछ पाया है. दौलत भी और शोहरत भी.                               

पंजाब में नकोदर को पीरों-फकीरों की सरजमीं कहा जाता है. यहीं बापू लाल बादशाह का डेरा भी है जिसके मुखिया अब हंसराज हंस हैं. वहां भी सालाना मेला और उर्स लगता है. जब से हंस ने बापू लाल बादशाह की दरगाह का कामकाज संभाला है, तब से इसकी नुहार बदल गई है और इसे भी आलीशान रुप दिया जा रहा है. वहां निर्माण कार्य अभी भी जारी है. इस डेरे में भी बड़े-बड़े गायक और कव्वाल हाजिरी लगाते हैं.

हंसराज हंस अब सांसद हैं लेकिन नियमित रूप से यहां आते हैं और डेरे की देखभाल करते हैं. प्रबंधतंत्र उन्हीं के हाथों में है. यहां भी सुदूर विदेशों तक से लोग मत्था टेकने आते हैं. इस डेरे का मूल संदेश भी 'रूहानी' है. बापू लाल बादशाह दरगाह और डेरा बाबा मुराद शाह में एक समानता और भी है कि इन दोनों में अंधविश्वास के लिए कोई जगह नहीं.

दोनों डेरे समावेशी संस्कृति की अपने आप में एक शिनाख्त हैं. जहां हिंदू-मुस्लिम, ईसाइयों और सिखों में कोई भेदभाव नहीं. लंगर की रिवायत भी यहां है और सभी समुदायों के लोग एक पंक्ति में लंगर ग्रहण करते हैं.     

                     

धार्मिक अथवा सामुदायिक नफरत की बात करने वालों को एकबारगी डेरा बाबा मुराद शाह की बाबत जरूर जाना चाहिए. इसकी बुनियाद एक मुस्लिम सूफी फकीर बाबा शेरेशाह ने रखी. गद्दीनशीन हुए एक हिंदू विद्यासागर जो दीक्षित होने के बाद बाबा मुराद शाह कहलाए और उसके बाद साईं लाडी शाह, जिनका फकीर बनने से पहले नाम विजय कुमार भल्ला था. गुरदास मान का जन्म सिख परिवार में हुआ.

अब वह बाबा शेरेशाह की लगाई शाखा को शिद्दत से सींच रहे हैं. इसी तरह बापू गुलाम बादशाह का झुकाव मुस्लिम मत की ओर था लेकिन आज हंसराज हंस उनके रूहानी वारिस हैं. हंस का जन्म एक दलित सिख परिवार में हुआ था.

दोनों डेरे इस परंपरा को बरकरार रखे हुए हैं कि "बुल्लेया की जाना मैं कौन...!" (यह श्लोक महान सूफी बाबा बुल्ले शाह का है जो कहते हैं कि बुल्ले शाह मैं नहीं जानता कि मेरी जातपात क्या है, मैं तो सिर्फ रूहानियत में यकीन रखता हूं जिसने हम सब को बनाया).     

बाबा मुराद शाह के डेरे पर एक कव्वाली बहुत शिद्दत के साथ गाई जाती है--जिसके बोल हैं, "ताजदारां दे ना अमीरां दे... दिवे जगदे सदा फकीरां दे...." यानी दीए अथवा दीपक शहंशाहों और बादशाहों के नहीं बल्कि रूहानियत में यकीन रखने वाले पीर-फकीरों के सदैव रोशन रहते हैं!##