This Muslim family has been making Diwali lamps for generations.
प्रेम खान/ फरीदाबाद
दीपों का पर्व दीपावली को महज एक सप्ताह बचा है. दीपावली पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुम्हारों का चाक तेजी से चलने लगा है. उन्हें अच्छी ग्राहकी की उम्मीद है, जिससे उनकी रोजी-रोटी बेहतर ढंग से चल सकेगी. ओल्ड फरीदाबाद की तालाब रोड पर रहने वाले असलम हुसैन और उनका परिवार दीपक बनाने का काम कई दशकों से कर रहा है. यह परिवार पीढ़ियों से दीया बनाने का काम करता आ रहा है.
असलम हुसैन ने आवाज द वॉयस को बताया कि उनके पूर्वज भी यही काम करते थे. आज भी उनके परिवार के सदस्य इस काम को उसी लग्न और म्हणत से करते आ रहे हैं. असलम का कहना है कि "त्योहार किसी एक धर्म का नहीं होता, ये पूरे समाज की खुशियों का हिस्सा होता है. हमें गर्व है कि हम हिंदू भाइयों की दिवाली की रौनक बढ़ाने में एक छोटी सी भूमिका निभा रहे हैं."
असलम और उनका परिवार कई प्रकार के दीए बनाते है इसकी कीमत बाजार में 2 रुपए से लेकर 50 रुपए तक है. असलम ने बताया कि इन दियों को बनाने के लिए दो महीनों पहले ही तैयारी शुरू हो जाती है. हालांकि पहले और आज के समय में काफी अंतर आया है. नए साधन आने से अब काम में कम समय लगता है पहले चाकसे दिए बनाए जाते थे लेकिन अब मोटर वाले चाक काम को आसान कर देते है. असलम ने आगे कहा कि पहले चाक चलाने में शारीरिक मेहनत लगती थी जो सेहत के लिए काफी फायदेमंद थी. लेकिन अब मोटर वाले चाक में बिजली की रफ्तार से ही काम हो जाता है.
असलम ने कहा कि ये कला अब धीरे-धीरे सरकार के न ध्यान देने के कारण लुप्त होती जा रही है. इसका कारण एक ये भी है कि जब इन दीए या मिट्टी से बनी चीजों को आग में पकाया जाता है तो उससे उठने वाले धुएं से लोग परेशान होते हैं.
असलम के बनाए दिये आसपास के गाँवों और शहरों में काफी प्रसिद्ध हैं. उनके हाथों से बने मिट्टी के दीये न सिर्फ पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, बल्कि उनमें स्थानीय कारीगरी की अनूठी छाप होती है. दीयों के साथ-साथ वे रंग-बिरंगे सजावटी सामान भी बनाते हैं, जो दिवाली के दौरान घरों की शोभा बढ़ाते हैं.
असलम की यह कहानी केवल दीये बनाने तक सीमित नहीं है, यह समाज में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे, सौहार्द, प्रेम और एकता की एक बड़ी मिसाल पेश करती है. उनके जैसे कई मुस्लिम परिवार देश के विभिन्न हिस्सों में अपने हुनर के जरिए हिंदू त्योहारों की रौनक बढ़ा रहे हैं.
यह पहल सिर्फ एक रोजगार का साधन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक समरसता का प्रतीक है. आज के दौर में जब विभाजनकारी सोच हावी होती दिखती है, असलम और उनके परिवार की इस परंपरा ने एक उदाहरण है कि कैसे एक समुदाय दूसरे समुदाय की खुशियों का हिस्सा बन सकता है.
यह बहुत अच्छा है कि मुस्लिम कारीगर दीवाली के दीपक बना रहे हैं. इस तरह के प्रयास हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देते हैं और सांस्कृतिक समरसता का प्रतीक होते हैं. ये न केवल व्यापार का माध्यम हैं, बल्कि एक-दूसरे की परंपराओं और त्योहारों का सम्मान करने का भी एक तरीका हैं. इस तरह की गतिविधियाँ समाज में भाईचारा और सहयोग को मजबूत करती हैं. ऐसे उदाहरण हमारे समाज को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.