Pune's 'Roti Bank' which provides free food to the hungry, a unique initiative of three Muslim neighbours
छाया काविरे/ पुणे
रमज़ान का महीना शुरू है. रमज़ान के महीने को खिदमत और इबादत का मतलब सेवा का महीना कहा जाता है. इस महीने में मुस्लिम विशेष नमाज अदा करते है और उपवास रखते है, जिसे रोजा कहा जाता है. इसके साथ ही दूसरों की खिदमत करने में भी वे भूमिका निभाते हैं. ऐसी ही एक पहल पुणे के कोंढवा में कुछ पड़ोसियों द्वारा की जा रही है, जो शहर में चर्चा का विषय बन गई है.
'ज्यादासे ज्यादा जरूरतमंदों की मदद करो', 'भूखों को खाना दो', 'बीमारों की सेवा करो' इस प्रकार के पैगंबर मोहम्मद के विचार प्रसिद्ध हैं. इस्लाम में भूखे को खाना खिलाना पुण्य माना गया है. इतना ही नहीं, इस्लाम यह भी कहता है कि 'अगर आपके होते हुए आपके पड़ोसी भूखे पेट सोते हैं, तो आप सच्चे मुसलमान नहीं हैं.'
इस्लाम की शिक्षाओं से प्रेरित होकर पुणे के कोंढवा इलाके में रहने वाले दो पड़ोसियों ने अगस्त 2019 में एक संगठन की स्थापना की. इस संस्था का नाम 'आर्क चैरिटेबल ट्रस्ट' है. पिछले चार वर्षों से, वे "आर्क की रोटी बैंक'' पहल उन विधवाओं और निराश्रित महिलाओं को खाना खिला रहे हैं जो दो वक्त के भोजन के लिए भटकने को मजबूर हैं.
आगे उन्हें एहसास हुआ कि सिर्फ पेट की भूख मिटाने से इन लोगों की समस्या हमेशा के लिए हल नहीं होगी. इसलिए उन्होंने सड़कों पर रहने वाले बच्चों को शिक्षा के प्रति जागरूक करना शुरू कर दिया. उन्होंने इन बच्चों का विभिन्न स्कूलों में नामांकन कराया; इसके अलावा, उन्होंने आज कई विधवाओं को रोजगार प्रदान किया है. यह कहानी है पुणे की आलिया शेख और उनके पड़ोसी नासिर शेख की, जो सभी जाति और धर्म के लोगों के लिए शिक्षा, रोजगार और भूख के मुद्दों पर काम कर रहे हैं.
आलिया ने पुणे के लश्कर इलाके के 'अबेदा इनामदार कॉलेज' से 12वीं की पढ़ाई पूरी की है. इसके बाद उनकी शादी करा दी गयी. आलिया की बाते उनके विकसित शैक्षिक दृष्टिकोण को दर्शाती है. वह कहती हैं, "मैं पढ़ना चाहती थी, लेकिन मेरी जल्दी शादी हो गई, इसलिए मैं आगे की पढ़ाई नहीं कर पाई. लेकिन मैंने पढ़ाई नहीं की, तो क्या हुआ? मैं अपने आसपास की लड़कियों को पढ़ा सकती हूं. मेरे बच्चे आज अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं. लेकीन जिन बच्चो के पास पैसे नही है उनका क्या? इसलिए मै कोशिश कर रही हूँ कि आर्थिक परिस्थितियों के कारण किसी की शिक्षा न रुके.''
नासिर ने भी अपनी स्कूली शिक्षा लश्कर इलाके के मोलेडिना हाईस्कूल से पूरी की है. बाद में उन्होंने ग्यारहवीं में एडमिशन लिया. हालाँकि, आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण उन्हें शिक्षा छोड़नी पड़ी. इसके बाद उन्होंने 'राइटिंग पेंटर' के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. आर्थिक तंगी से उबर चुके नासिर कहते हैं, "खाना पेट की भूख मिटाता है, जबकि शिक्षा दिमाग की भूख मिटाने का काम करती है. इसीलिए दोनों को बुनियादी जरूरत माना जाता है."
नासिर और आलिया का काम देखने के बाद आयशा शेख भी उनके काम में शामिल हुईं. आयशा की पढ़ाई-लिखाई नासिक में हुई. वह बहुराष्ट्रीय कंपनी 'ग्लास्को' में संयुक्त सचिव और यूनियन लीडर थीं. चौंसठ वर्षीय आयशा सेवानिवृत्त हैं, जबकि तीस वर्षीय आलिया एक ब्यूटीशियन और चौवालीस वर्षीय नासिर एक ठेकेदार हैं. तीनों अपने व्यवसाय और पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालते हुए 'आर्क' के माध्यम से काम करते हैं.
कई शादियों में बहुत सारा खाना बच जाता है. इस खाने को बर्बाद न करने के लिए इन तीनों ने पुणे के मंगल कार्यालयों में कुछ बोर्ड लगाए हैं. इन बोर्डों पर लिखा है, 'अगर आपके पास बचा हुआ खाना है तो हमसे संपर्क करें... हम इस खाने को भूखे पेटों तक पहुंचाएंगे.' 'आर्क' को ऐसे विभिन्न शुभ कार्यालयों से भोजन सहायता भी मिलती है.
इन तीनों ने इस काम की शुरुआत अपने घर से ही की. शुरू में उनके पास कोई फंड वगैरह नहीं था. इसलिए पहले आठ दिनों तक आलिया घर से ही खाना बनाती थीं. उसके अगले आठ दिनों तक नासिर खाना बनाकर लाता रहा और उसके बाद आयशा भी खाना बनाकर लाने लगी. इसलिए तीनों में से किसी पर भी काम का बोझ नहीं था. आलिया कहती हैं, "हम जरूरतमंदों तक पहुंचते रहे. जैसे-जैसे काम आगे बढ़ा, अन्य लोग हमारी मदद के लिए आगे आए. कुछ ने हमें आर्थिक रूप से मदद करना शुरू कर दिया, कुछ ने तेल, अनाज या अन्य सामग्री की आपूर्ति शुरू कर दी. जैसे-जैसे काम आगे बढ़ा, मदद के हाथ अपने आप आगे आने लगे और आगे बहुत सारे लोग हमारी मोहीम में शामिल हुए."
नासिर अपने आस-पास के लोगों की खराब स्थिति देख रहे थे. वे बोहोत ज्यादा संवेदनशील हैं क्योंकि वे खुद इस स्थिति से गुजर चुके हैं. इसलिए, उन्होंने 'रोटी बैंक' पहल शुरू करने का फैसला किया और इस पहल में आलिया और आयशा भी उनके साथ शामिल हो गईं. नासिर कहते हैं, "'रोटी बैंक' का काम एक दिन का काम नहीं है. एक महीने में एक कार्यक्रम किया और फिर अगले महीने अगला कार्यक्रम करना, ऐसे हम नहीं कर सकते. यहां काम में निरंतरता की आवश्यकता होती है. लोगों को खाना खिलाना और उनके बच्चों को स्कूल भेजना यह एक चुनौती हैं. लेकिन यह देखकर भी संतुष्टि होती है कि आपकी वजह से किसी की जिंदगी बदल रही है."
आयशा कहती हैं, "हमने लोगों को एकमात्र ईंधन के रूप में कागज का उपयोग करके खाना बनाते देखा है. हमने उन्हें अपनी भूख को संतुष्ट करने के लिए संघर्ष करते देखा है." 'आर्क' के माध्यम से प्रतिदिन पचास परिवारों को भोजन दिया जाता है. बच्चों की पढ़ाई की फीस भरी जाती है."
आलिया, आयशा और नासिर कोंढवा, भाग्योदयनगर इलाके के लोगों तक खाना पहुंचाते हैं. लेकिन हडपसर, कात्रज इलाके के जरूरतमंद लोग हर दिन उन तक नहीं पहुंच पाते और न ही आलिया, आयशा और नासिर के लिए हर दिन वहां खाने के डब्बे ले जाना संभव है. इसलिए वे तीनों उस क्षेत्र में जाते हैं और दिए गए पहचान पत्र के आधार पर कम से कम दो महीने के लिए पर्याप्त राषण वितरित करते हैं. वे रमज़ान के दौरान 'सहरी' और 'इफ्तारी' की सुविधा भी देते हैं. संतुष्ट आयशा कहती हैं, "जरूरतमंदों तक पहुंचने और उनकी मदद करने में सक्षम होना खुशी की बात है. आलिया और नासिर के काम की वजह से मैं एक अच्छे संगठन से जुड़ी हूं."
दरअसल ये काम सिर्फ आलिया, आयशा और नासिर का नहीं है. किसी भी काम को शुरू करते समय परिवार के सदस्यों की भूमिका अपने समाज में बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती हैं. इन तीनों की सामाजिक उन्नति में इनके परिवारों का भी महत्वपूर्ण योगदान है. क्योंकि इन तीनों के परिवारों ने 'ये तो सवाब का काम है' कहकर इनके सामाजिक कार्य को कर्तव्य के रूप में स्वीकार कर लिया है.