पटना: मुहर्रम में राजू पांडेय और ऋषि पांडेय नौहा पढ़कर दे रहे भाईचारगी का संदेश

Story by  सेराज अनवर | Published by  onikamaheshwari | Date 18-07-2024
The Imambara of Tana is a symbol of Hindu-Muslim unity
The Imambara of Tana is a symbol of Hindu-Muslim unity

 

सेराज अनवर / पटना

नौहाखानी का मतलब खास अंदाज में गम का इजहार करना.पटना में मुहर्रम के मौके पर केवल मुसलमान ही नहीं हिंदू समुदाय के लोग भी नौहाखानी करते हैं. राजू पांडेय और  ऋषि पांडये उनमें से एक हैं.

बिहार में मुहर्रम की धूम है,अलम सज रहे हैं.मर्सिया, नौहाखानी और मजलिसें हो रही हैं. अखाड़ा, दुलदुल निकल रहा है. मातमी जुलूस निकलने वाला है. इन सब में इमामबाड़ों की बहुत अहमियत है और इमामबाड़ा मतलब पटना.

 
 
पटना को इमामबाड़ों का शहर कहा जाता है.पटना सिटी के इमामबाड़ों का इतिहास सदियों पुराना है. पटना सिटी यानी ओल्ड पटना में स्थित इमामबाड़े कर्बला में पैगम्बर ए इस्लाम हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन की शहादत की दास्तान से लबरेज हैं. 
 
यहां के इमामबाड़े कर्बला में हजरत हुसैन और 72 शहीदों की याद ताजा करते रहे हैं.इमामबाड़े मुस्लिम संस्कृति के दस्तावेज हैं. हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करते हैं. यह इमामबाड़े देश की धरोहर हैं. 18वीं सदी की इमारतें, रिवायत अब कम दिखाई पड़ती हैं. पटना सिटी के इमामबाड़ों को देखकर अक़ीदतमंद गर्व महसूस करते हैं. 
 
क्योंकि ये कर्बला की याद को ताजा करते हैं. बातिल की शिकस्त और हक की जीत की ताबीर हैं यह. जहां शिया-सुन्नी, हिंदू-मुसलमान का तफरीक नहीं है. मालूम हो कि ज्यादातर इमामबाड़े शिया वक्फ बोर्ड के मातहत हैं. पूर्व चेयरमैन  इरशाद अली आजाद ने अपने कार्यकाल में इमामबाड़ों को विकसित और विस्तारित करने का काम बहुत तेजी से किया था.
 
मालूम हो कि मुहर्रम के महीने में इमामबाड़े सजे रहते हैं और शियाओं के घरों से दो महीने आठ दिन नौहा, मर्सिया, अजादारी की आवाजें आती हैं. दरअसल, पटना सिटी में शिया समुदाय की एक बड़ी आबादी है. इस लिहाज से यहां अनेक लोगों ने अपने-अपने इमामबाड़े स्थापित कर रखे हैं. 
 
 
दर्जनाधिक इमामबाड़े यहां मिल जायेंगे और सभी यादें संजोये हैं.लोग बताते हैं कि यहां के किसी भी इमामबाड़े का इतिहास डेढ़ सौ, दो सौ वर्ष से कम नहीं है. इमामबाड़ा इमाम बांदी बेगम, इमाम बाड़ा चमोडोड़िया, इमामबाड़ा मीर शिफायत हुसैन, इमामबाड़ा होश अजीमाबादी, इमामबाड़ा शीश महल, इमाम बाड़ा शाहनौजा, इमामबाड़ा डिप्टी अली अहमद खान आदि इमामबाड़ों की दास्तान 18वीं सदी से कायम है. इनमें कुछ हिंदू-मुस्लिम यकजहती के भी प्रतीक हैं.
 
इमामबाड़ा होता क्या है?
 
इमामबाड़ा का अर्थ है धार्मिक स्थल यानी, वह पवित्र स्थान या भवन जो विशेष रूप से हजरत अली (हजरत मुहम्मद के दामाद) तथा उनके बेटों हसन और हुसैन के स्मारक के रूप में निर्मित किया गया हो. इमामबाड़ा कर्बला में हुई लड़ाई से जुड़ा है. मुहर्रम महीना की 10 तारीख जिसे यौम ए  आशूरा भी कहते हैं, को कर्बला के मैदान में यजीदियों ने हजरत हुसैन उनके परिवार सहित 72 साथियों को शहीद कर दिया था. इमामबाड़ों में शिया समुदाय की मजलिसें और अन्य धार्मिक समारोह होते हैं. 
 
 
शिया लोग हर वर्ष मुहर्रम के महीने में कर्बला की याद में बड़ा शोक मनाते हैं. सुन्नी मुसलमानों के यहां भी इमामबाड़ों की परंपरा मिलती है.जहां ताज़िया रखा जाता है.
 
पटनासिटी में शिया-सुन्नी, हिंदू-मुसलमान में कोई भेद नहीं है. इमामबाड़ा के प्रति सभी का अकीदत समान है. मुहर्रम के मौके पर निकलने वाले ताजिए या तो कर्बला में दफन कर  दिए जाते हैं या इमामबाड़ों में रख दिए जाते हैं. पटना पहले पाटलीपुत्र के नाम से जाना जाता था.फिर इसका नाम अजीमाबाद पड़ गया.पटना सिटी अब पुराना पटना कहलाता है.
 
इमाम बांदी सबसे बड़ा इमामबड़ा
 
यह सबसे बड़ा इमामबाड़ा है. इसका निर्माण गाजीपुर निवासी बंगाल के सूबेदार शेख अली अजीम ने 1717 में कराया था. शेख अजीम से चलता हुआ यह सिलसिला इमाम बांदी तक पहुंचा और बाद के दिनों में इमान बांदी ही पूरी जायदाद की मालिक हो गयीं. यह इमामबाड़ा गुलजारबाग के नाम से प्रसिद्ध है. 
 
1894 में बेगम साहिबा इस दुनिया से कूच कर गयीं, लेकिन इंतेकाल से चार साल पहले 1890 में उन्होंने अपनी पूरी संपति वक्फ कर दी थी. यहां की 7 और 9 मुहर्रम को रिकतआमेज मजलिस मशहूर है. मिर्जा दबीर अली यहां लगातार 19 सालों तक लखनऊ से अजीमाबाद आ कर खुद का लिखा मर्सिया पढ़ते रहे. मिर्जा दबीर उर्दू के मशहूर शायर थे. 
 
इस इमामबाड़ा से पटना सिटी की बड़ी-बड़ी मजलिसें अंजाम पाती हैं. यहां से मुहर्रम में 72 ताबूत के साथ 72 अलम निकाले जाते हैं.
 
चमोडोड़िया इमामबाड़ा का संस्थापक एक ग़ैरमुस्लिम सुनार
 
इमामबाड़ा चमोडोड़िया का संस्थापक एक गैर मुस्लिम सुनार था. यहां एक मुहर्रम से 9 मुहर्रम तक हर समय शहनाई बजा करती थी. शहनाई में नौहा और सलाम होते थे. रोजाना शाम के समय नजर वो नेयाज वालों की भीड़ लगी रहती थी. लोग मुरादों की पूर्ति के लिए चिल्ला बांधा करते थे. आज भी यह आस्था कायम है. बताते हैं कि सोने-चांदी के बड़े-बड़े अलम हुआ करते थे. 3 और 10 मुहर्रम को अखाड़ा निकला करता था. बहुत बड़ा ताजिया होता था. जिसमें शतुर्मुर्ग के अंडे लटके रहते थे. जुलूस में 50 हाथी हुआ करते थे. पटना की सबसे मारूफगंज मंडी यहीं पर स्थित है. कहते हैं कि हिंदू दुकानदार पहले इस इमामबाड़ा पर मत्था टेकने के बाद ही दुकान खोलते हैं. 
 
यहां मुरादें मांगने हिंदू-मुसलमान सब आते हैं. यह इमामबाड़ा हिंदू-मुस्लिम साझी विरासत का प्रतीक है.
 
इमामबाड़ा शीश महल
 
इसे हाकिम जुल्फिकार अली ने 1711 में बनवाया था. यहां 1960 से बाजाब्ता अजादारी का आगाज हुआ. आज भी इस इमामबाड़ा से 72 ताबूत का जुलूस निकलता है. इस इमामबाड़ा को शीशमहल मस्जिद के नाम से भी जानते हैं. अंजुमन ए मासूमिया का आगाज भी यहीं से हुआ है.
 
इमामबाड़ा हाकिम नाजिम हुसैन
 
मितनघाट स्थित इस इमामबाड़ा में इलाहाबाद से तशरीफ लाने वाले मौलाना जफर अहमद अब्बास मजलिस से खिताब करते रहे हैं. अभी भी आशूरा के दिन एक मजलिस आयोजित होती है.
 
ईरान के नवाब ने होश अजीमाबादी इमामबाड़ा बनाया
 
ईरान से आये नवाब सरफराज हुसैन खान ने इस इमामबाड़ा का निर्माण कराया था. यहां 1886 से ही अजादारी का रिवाज कायम है. होश अजीमाबादी इसके मुतवल्ली थे. जब तक होश साहब हयात रहे, खुद ही मुहर्रम की 9 तारीख को मर्सिया पढ़ते थे. यहां मर्द-औरत दोनों की मजलिस होती है. यहां पटना के सभी अंजुमने मजलिस करती हैं. काफी पुराना इमामबाड़ा है यह. सरफराज खान की बेगम बीबी मख्दूमन ने इमामबाड़ा के अहाते में ही एक मस्जिद की भी तामीर करायी थी.
 
इमामबाड़ा शाह नौजर आग के मातम केलिए मशहूर
 
नौजर बादशाह अकबर के उमरा में शुमार थे. 17 सिफर को आग पर मातम और 8 रबी उल अव्वल को जुलूस ए अमारी यहीं आकर खत्म होता है. यह इमामबाड़ा लोदीकटरा के नाम से जाना जाता है. हर मजहब के लोगों की यहां आस्था है. इस इमामबाड़ा का इतिहास 200 साल पुराना है.
 
इमामबाड़ा सैयद अली सादिक
 
1957 से लगातार एक ही नौहा निरंतर पढ़ा जा रहा है. 9 मुहर्रम को जुल्फिकार का जुलूस भी यहां से निकलता है.
 
इमामबाड़ा डिप्टी अली अहमद खान अली
 
डिप्टी अहमद खान मर्सियानिगार थे. ज्यादातर फारसी अशआर पढ़ा करते थे. उनके बेटे सैयद अली खान मुहर्रम के महीने में फारसी के कलाम पढ़ा करते थे. अभी भी 20 से 29 मुहर्रम तक यहां अशरा होता है. 1890 से यह अशरा कायम है. 21 रमजान को हजरत अली का ताबूत भी निकलता है .
 
हुसैनी ब्राह्मणों की नौहाख़्वानी
 
गत वर्ष पटना का सबसे बड़ा इमामबाड़ा इमामबांदी बेगम वक़्फ स्टेट गुलज़ारबाग़ 72 ताबूत जुलूस के 25 वर्ष पूरा करने के मौक़े से पहली बार पटना की सरज़मीं पर हुसैनी ब्राह्मण राजू पांडेय और ऋषि पांडेय ने हज़रत इमाम हुसैन की अक़ीदत में नोहाख्वानी किया था. हुसैन का गम मनाने में मजहब की बंदिशें टूट जाती हैं. 
 
 
राजू पांडेय और ऋषि पांडेय ने मुहर्रम पर नौहा पढ़कर हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की मिसाल कायम की थी.
 
अपनी तक़दीर जमाते तेरे मातम से 
ख़ून की राह बिछाते हैं तेरे मातम से 
अपने इज़हार ए अक़ीदत का सिलसिला ये है.
हम नया साल मनाते हैं तेरे मातम से
 
राजू पांडेय यूपी के कानपुर के रहने वाले हैं. अंजुमन असगरिया के नाम से इनका ख़ुद का एक अंजुमन है. राजू पांडेय के नौहों को सुनकर लोगों की आंखें भर आती हैं. माथे पर चंदन का टीका और सिर पर बड़ी शिखा (चुर्की) कभी भी यादे हुसैन में बाधा नहीं बनी. मुहर्रम आने से पहले ही वह बाकायदा नौहों की धुन तैयार करने लगते हैं. उनका पूरा परिवार इस कार्य में कभी रुकावट नहीं बना. कभी किसी ने मजलिसों में भागीदारी से नहीं रोका. इतना ही नहीं राजू खुद ताजिया भी रखते हैं.
 
ऋषि पांडे भी पढ़ते हैं नोहा
 
कई हिंदू परिवार हैं जो ताजिया रखते हैं और बाकायदा नजर-नियाज भी दिलाते हैं. इसी में एक नाम ऋषि पांडेय का भी है .ऋषि अच्छे नोहाखां भी हैं. जब वह गाते हैं.
 
उठो-उठो भाईयों तेरी ज़ैनब लहद पे आयी है
 
जिसे सुनकर उपस्थित लोगों की आंखें नम हो जाती हैं. ऋषि पांडे के मुताबिक़, “मैं बचपन से ही मुहर्रम में शरीक हो रहा हूं. इसके अलावा इमाम हुसैन की शान में नोहा ख्वानी करता और पढ़ता हूं. कई जगह इसे पढ़ने के लिए भी जाता हूं. मेरी इमाम हुसैन में गहरी आस्था है.”