जिगर मुरादाबादी की शायरी का जादू आज भी कायम, स्मृति दिवस पर विशेष श्रद्धांजलि

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 10-09-2024
Today is the memorial day of Shahenshah-e-Ghazal Jigar Moradabadi
Today is the memorial day of Shahenshah-e-Ghazal Jigar Moradabadi

 

ज़ाहिद ख़ान

उर्दू अदब में शायर जिगर मुरादाबादी का एक अहम मुक़ाम है. अदब दोस्त उन्हें कल भी ग़ज़ल का शहंशाह क़रार देते थे, तो आज भी उनके बारे में यही नज़रिया आम है. फ़िराक़ गोरखपुरी, जिगर के समकालीन शायर थे. जिन्हें जोश मलीहाबादी ने शायर-ए-आज़म का ख़िताब दिया हुआ था. लेकिन ख़ुद फ़िराक़ साहब भी जिगर की अज़्मत से इंकार नहीं करते थे.

उनका जिगर मुरादाबादी के बारे में बयान है, ‘जिगर मुरादाबादी से ज़्यादा मक़बूल उर्दू शायर इस सदी में कोई नहीं हुआ.उनके मुख़ालिफ़ीन भी उनकी मक़बूलियत को तस्लीम करने के लिए मजबूर हैं. मुशायरों में ‘जिगर’ के शामिल होने का नाम ही सुनकर, हज़ारों की भीड़ लग जाती है. नौजवानों को तो उनके शे’र पागल बना देते हैं.’ 
 
बहरहाल, जिगर मुरादाबादी को इस दुनिया से गुज़रे हुए, एक लंबा अरसा हो गया, मगर उनकी मक़बूलियत में कोई कमी नहीं आई है. एक ज़माना था, जब उनकी ग़ज़लों के कई शे’र मुहावरों की तरह दोहराये जाते थे.
 
ख़ास तौर पर उनकी ‘साक़ी की हर निगाह पे बल ख़ाके पी गया/लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया.’ ग़ज़ल उस वक़्त बेहद मशहूर थी. फिर इन शे’रों का भी जादू क्या कभी कम होगा-‘ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे/इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.’,‘उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें/मेरा पैग़ाम मोहब्बत है, जहां तक पहुंचे.’
 
सर के बाल बिखरे, शेरवानी के बटन खुले हुए, जेब में शराब की बोतल और होठों पर चहकती हुई ग़ज़ल, कुछ इस तरह से जिगर मुरादाबादी मुशायरों की स्टेज की ओर आते. उनके आते ही मजमे से यह आवाज़ आती, ‘जिगर थाम के बैठो मिरी बारी आई’ उस ज़माने में ना तो रेडियो, टेलीविजन और आज की तरह सोशल मीडिया की पब्लिसिटी थी, न मुशायरे में अच्छे माइक्रोफ़ोन का इस्तेमाल होता था.
 
अलबत्ता मुशायरों में सुनने वालों का हज़ारों का मजमा ज़रूर होता. लोग अपने चहेते शायर को सुनने दूर-दूर से आते और रात भर मुशायरा सुनते, उसका जी भरकर लुत्फ़ उठाते. जिगर साहब मुशायरे के दरमियान झूमते-झामते आते थे, और इंतिहाई ख़ूबसूरत तरन्नुम और ख़ास अंदाज़ से जब अपनी ग़ज़ल सुनाते, तो उनकी ग़ज़ल और शख़्सियत एक हो जाती थी.
 
मतला से मक़ता तक उनकी ग़ज़ल का अंदाज़ ही नया होता. इस पर गले का सुरीलापन . वाह, क्या कहने . जिन लोगों ने उन्हें सुना है, उनका ख़याल है कि जिगर मुरादाबादी जब ग़ज़ल पढ़ते, तो मजलिस में समां बंध जाता था। सामईन उनके एक-एक शे’र को कई-कई दफ़ा पढ़वाते. फिर भी उनका जी नहीं भरता.
 
बावजूद इसके जिगर साहब का पढ़ना तरन्नुम में ही रहता. बाज़ लोगों का तो यहां तक ख़याल है कि जिगर से पहले इतना सुरीला शायर और कोई नहीं था.जिगर मुरादाबादी पर असग़र गोंडवी की शख़्सियत और शायरी का गहरा असर पड़ा.
 
आगे चलकर उन्होंने असग़र गोंडवी को ही अपना उस्ताद बना लिया. बीसवीं सदी में हमारे मुल्क में मुशायरों को बड़ा दौर-दौरा था. महलों से लेकर आम अवाम के बीच शायरी बेहद मक़बूल थी.
 
जैसे ही कोई शायर अपना अच्छा कलाम मुशायरे में सुनाता, वह रातों-रात मक़बूल हो जाता. जिगर मुरादाबादी ने जैसे ही मुशायरों में अपनी शायरी का आग़ाज़ किया, वे वहां छा गये. इस क़दर की जल्द ही उनकी एक अलग पहचान बन गई.
 
जिगर साहब का शे’र पढ़ने का ढंग कुछ ऐसा दिलकश, और तरन्नुम ऐसा जादू भरा था कि एक ज़माने में नौजवान शायर उन जैसे शे’र कहने और उन्हीं के ढंग से शे’र पढ़ने की ही कोशिश नहीं करते थे, बल्कि अपनी शक्ल-सूरत भी जिगर जैसी बना लेते थे.
 
वही लंबे-लंबे उलझे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, अस्त-व्यस्त कपड़े और उन्हीं की तरह बेतहाशा शराब-नोशी.पहली ही नज़र में जिगर की शख़्सियत का सामने वाले पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता था. चाहने वाले उन्हें देखकर, निराश होते. लेकिन जब वे शायरी पढ़ते, तो ख़ूबसूरत नज़र आने लगते। लोगों का उन पर प्यार उमड पड़ता.
 
अपने बेहतरीन तंज़-ओ-मिज़ाह के लिए जाने-पहचाने जाने वाले अदीब शौकत थानवी ने जिगर साहब के बारे में कुछ ऐसी ही बातें लिखी हैं, ‘शे’र पढ़ते समय उनकी शक्ल बिल्कुल बदल जाती थी. उनके चेहरे पर एक नूर आ जाता था.
 
एक ख़ूबसूरत मुस्कान, दिलकश नाजुकता और सरलता के असर से जिगर साहब की शख़्सियत किरणें सी बिखेरने लगती थी. ये किरणें बिला शक हर उस शख़्स ने देखी होंगी, जिसने किसी मुशायरे में जिगर साहब को शे’र पढ़ते सुना होगा.’
 
जिगर मुरादाबादी की शायरी का विश्लेषण करें, तो उन्होंने इश्क़-ओ-मुहब्बत के गीत गाये। लोगों के सोये हुए जज़्बात को गुदगुदाया. उर्दू अदब के बड़े नक़्क़ाद एहतेशाम हुसैन ने जिगर मुरादाबादी की शायरी की ख़ासियत को कुछ इस तरह बयान किया है, ‘‘वह ख़ास तौर की मुहब्बत भरी शायरी लिखते थे, जिनमें रस और मादकता पाई जाती है.
 
कुछ समय तक शराब उनकी ज़िंदगी का मख़्सूस हिस्सा रही और उसी का असर शायरी पर पड़ता रहा. कभी-कभी उन्होंने सूफ़ियाना ख़यालात भी ज़ाहिर किए हैं, मगर उनकी शायरी का वही हिस्सा सबसे ज़्यादा ख़़ूबसूरत समझा जाता है, जिसमें प्रेम-रस में डूबे हुए नग़मे गाये गये हैं.
 
उनकी शायरी में जो ख़ूबसूरत कशिश मिलती है, उसका राज़ यही है कि वे मुहब्बत और ख़ूबसूरती के उपासक हैं और उसी का ब्यौरा अपनी शायरी में दिलचस्प ढंग से करते हैं.’’ 
 
लेकिन जिगर मुरादाबादी ने सिर्फ़ इश्क़-ओ-मुहब्बत, विसाल—ओ—फ़िराक़ को ही अल्फ़ाज़ों में नहीं ढाला, अपने आख़िरी समय में वे ज़िंदगी की हक़ीक़तों के क़रीब आये और अपने वक़्त के बड़े मसाइल को ग़ज़ल का मौज़ूअ बनाया.
 
बंगाल के भयानक अकाल पर उन्होंने ‘क़हत-ए-बंगाल’ जैसी दिल-दोज़ नज़्म लिखी, ‘बंगाल की मैं शाम-ओ-सहर देख रहा हूँ/हर चंद कि हूँ दूर मगर देख रहा हूँ/इफ़्लास की मारी हुई मख़्लूक़ सर-ए-राह/बे-गोर-ओ-कफ़न ख़ाक-ब-सर देख रहा हूँ.
 
’तो वहीं साल 1946-47 में जो देशव्यापी फ़िरक़ावाराना फ़सादात हुए, उसने जिगर मुरादाबादी की रूह को ज़ख़्मी कर दिया. इन परेशान—कुन हालात को उन्होंने अपनी ग़ज़ल में कुछ इस तरह से पिरोया, ‘फ़िक्र-ए-जमील ख़्वाब-ए-परेशाँ है आज-कल/शायर नहीं है वो, जो ग़ज़ल-ख्वाँ है आज-कल/इंसानियत के जिससे इबारत है ज़िंदगी/इंसां के साये से भी गुरेज़ाँ है आज—कल.’
 
इस ग़ज़ल के अलावा ‘साक़ी से ख़िताब’ ग़ज़ल में भी हमें एक अलग ही जिगर मुरादाबादी के दीदार होते हैं. ज़िंदगी की कड़वी सच्चाईयां अब उनकी ग़ज़लों के मौज़ूअ बन रहे थे. गोया कि इस ग़ज़ल में उनकी सारी जे़हनी कशमकश की झलक दिखाई देती है.
 
जैसे वह कह रहे हों कि आज के दौर में ग़ज़ल को अपना चोला बदलना पड़ेगा. तभी समूची इंसानियत का भला होगा। ‘कहां से बढ़ के पहुंचे हैं कहां तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी/मगर आसूदा इंसां का न तन साक़ी न मन साक़ी.’ 
 
जिगर की यह शायरी तरक़्क़ीपसंद शायरी से कतई जुदा नहीं. शुरू में भले ही वह तरक़्क़ीपसंद तहरीक से उस तरह नहीं जुड़े, जिस तरह से जोश मलीहाबादी, मौलाना हसरत मोहानी और फ़िराक़ गोरखपुरी का वास्ता था. लेकिन अपने आख़िरी वक़्त में वे तरक़्क़ीपसंद उसूलों में अपना अक़ीदा जताने लगे थे.
 
'अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन' के जलसों और मुशायरों में उनकी शिरकत इस बात की गवाह है. जिगर मुरादाबादी की क़लम से एक से बढ़कर एक बेहतरीन ग़ज़लें निकल रही थीं.
 
'ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं/ज़बान-ए-हाल रखते हैं ज़बान-ए-दिल समझते हैं/इसी इक जुर्म पर अग़्यार में बरपा क़यामत है/कि हम बेदार हैं और अपना मुस्तक़बिल समझते हैं.' उनकी इन ग़ज़लों में इंक़लाबी अंदाज़ है, तो एक ऐसा शोला भी है, जो भड़कने के लिए बिल्कुल तैयार है.
 
उर्दू अदब में जिगर मुरादाबादी की एक ख़ुसूसियत है, जो उन्हें औरों से जुदा करती है. ग़ज़ल के सिवाय उन्होंने कुछ नहीं लिखा.
 
ग़ज़ल ही को अपने इज़हार का ज़रिया बनाया. उनका ग़ज़ल का पहला दीवान ‘दाग़-ए-जिगर’ साल 1921 में शाए हुआ. उसके बाद 1923 में ‘शोला-ए-तूर’ के नाम से ग़ज़ल का दूसरा मजमूआ छपा। जो बेहद मक़बूल हुआ.
 
‘शोला-ए-तूर’ की मक़बूलियत का यह आलम है कि अब तक इसके कई एडिशन शाए हो चुके हैं. ‘आतिश-ए-गुल’, जिगर मुरादाबादी की ग़ज़लों का आख़िरी मजमूआ है, जो साल 1958 में शाए हुआ था.
 
यह किताब साहित्य अकादेमी अवार्ड से नवाज़ी गयी. जिगर मुरादाबादी का नाम उन अज़ीम शायरों में शुमार होता है, जिनकी तख़्लीक़ात उनकी अपनी ज़िंदगी में ही क्लासिकल अदब का हिस्सा बन गयी थी.
 
अपनी दिल-आवेज़ शायरी की बदौलत उन्हें समूचे हिंद उपमहाद्वीप में ख़ूब इज़्ज़त और शोहरत मिली. अपनी शायरी में वे दिल की बात, दिल से कहते थे। शायर थे, नाजुक मिज़ाज थे.
 
लिहाज़ा उन्हें मर्ज़ भी दिल का लगा. दिल के मर्ज़ ने उनका साथ नहीं छोड़ा। 9 सितम्बर, 1960 को उन्होंने इस जहान-ए-फ़ानी से यह कहकर अपनी रुख़्सती ली,‘दिल को सुकून रूह को आराम आ गया/मौत आ गई कि यार का पैग़ाम आ गया.’