1857 का गदर: पटना में अली करीम ने कैसे जलाए रखी क्रांति की मशाल

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 09-08-2024
 Ali Karim
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साकिब सलीम

“अगर यह सवाल मुफस्सल के मूल निवासियों में से किसी बुद्धिमान व्यक्ति (किसी भी वफादार व्यक्ति से नहीं) से पूछा जाए, ‘पटना में साजिश का मुखिया कौन हो सकता है?’ तो जवाब होगा, “मीरशाहब (मीर अब्दुल्ला का परिवार) और मौलवी अली करीम के अलावा कोई और नहीं है जो इसका मुखिया बनने की हिम्मत कर सकता है.” जस्टिन फिंच ने 19 जुलाई 1857 को पटना में विद्रोह के बारे में बाढ़ के डिप्टी मजिस्ट्रेट को यह लिखा था. मौलवी अली करीम, जो अब हममें से ज्यादातर लोगों के लिए एक अनजान नाम है, 1857 में पटना में क्रांतिकारी ताकतों के मुखिया थे.

बिहार के इतिहास के विशेषज्ञ डॉ. के.के. दत्ता लिखते हैं, ‘‘... विद्रोह में शामिल दलों में मुस्लिम और हिंदू भी थे, जिनमें बेतिया के राजा भी शामिल थे. अगर योजना सफल हो जाती, तो अली करीम को प्रांत का शासक चुना जाना था..’’

पटना के मजिस्ट्रेट ने 28 जून 1857 को बंगाल सरकार के सचिव को भी सूचित किया, ‘‘सप्ताह के दौरान कमिश्नर के आदेश से शहर को निरस्त्र कर दिया गया है... तब से कमिश्नर ने उन्हें एक साजिश की जानकारी और सबूत भेजे हैं, जिसमें मुख्य व्यक्ति मौलवी अली करीम लगते हैं, जो बिहार जिले के एक जमींदार थे, लेकिन यहां के साथ-साथ सरुन और तिरहुत जिलों में भी उनका काफी प्रभाव था.’’

क्रांतिकारियों की योजना जून 1857 में तब प्रकाश में आई, जब मुजफ्फरपुर के जमादार वारिस अली को अंग्रेजी शासकों के विरुद्ध षडयंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. अली करीम के पास से कई पत्र मिले और बिहार में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध एक बड़ी साजिश का पता चला.

12 जून 1857 को, जिस दिन देवगढ़ में भारतीयों ने विद्रोह किया था, अली करीम द्वारा वारिस अली को लिखे गए पत्रों में से एक में लिखा था, ‘‘अब मामला अलग ही रुख अख्तियार कर रहा है. आपका तुरंत आना बहुत जरूरी है.

आज मैंने अपने पैगाम मुंसूर अली को एक पत्र के साथ आपके पास भेजा है. दूसरा पत्र मैंने बहुत सावधानी से डाक से भेजा है. इसे देखते ही छुट्टी लेकर या किसी भी तरह से चले आइए. जरा भी देर न करें.

सब कुछ आप पर निर्भर है. आपके आए बिना हम जैसे गरीब लोगों की इज्जत, संपत्ति और जान की रक्षा असंभव है. ऐसे समय में आपको आपस में मिल-जुलकर काम करना चाहिए, अन्यथा मेरे जैसा कमजोर और बूढ़ा आदमी कुछ नहीं कर सकता. सत्ताधारी ताकतें सत्ता के मोह में आ जाती हैं.’’

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वारिस अली को कुछ दिनों बाद अंग्रेजों ने फाँसी दे दी गई, लेकिन अली करीम को पकड़ा नहीं जा सका. वी.डी. सावरकर ने बाद में अपनी पुस्तक में लिखा, “तिरहुत जिले के पुलिस जमादार वारिस अली का आचरण संदिग्ध लगा और अधिकारियों ने अचानक उनके घर को घेर लिया और उसे बंदी बना लिया.

अंग्रेजी सेवा में यह जमादार अली करीम नामक एक क्रांतिकारी नेता को पत्र लिख रहा था! उसके घर से जब्त क्रांतिकारी पत्राचार के साक्ष्य के आधार पर, उसे जल्द ही मौत की सजा सुनाई गई. जब उसे फांसी के तख्ते पर लाया गया, तो उसने चिल्लाकर कहा, “अगर यहाँ कोई सच्चा स्वराज का भक्त है, तो वह मुझे आजाद कर दे!” लेकिन, इससे पहले कि उसकी गुहार भक्तों तक पहुँच पाती, उसका बेजान शरीर फांसी के तख्ते से लटक रहा था!”

कमिश्नर ने रिपोर्ट दी, ‘‘जब मुझे मुजफ्फरपुर के मजिस्ट्रेट से वारिस अली के पकड़े जाने और उसके पास अली करीम के पत्रों की खोज की सूचना मिली, तो मैंने तुरंत मजिस्ट्रेट मि. लोविस और दीवान मौला बख्श को बुला भेजा. मैंने मजिस्ट्रेट को बताया और उनसे विनती की कि वे कैप्टन रैट्रे के कुछ सैनिकों के साथ तुरंत डूमरी जाएं, जहां अली करीम रहता है, और उसे पकड़ लें. सभी आवश्यक आदेश दिए गएय मौला बख्श मेरे पुस्तकालय में रहा, मजिस्ट्रेट तैयारी करने के लिए अपने घर चला गया, और वहां अपने नाजिर को बताया.’’

‘‘जब मैंने पहली बार मजिस्ट्रेट को सूचना दी, उसके लगभग तीन-चौथाई घंटे या शायद एक घंटे बाद, मि. लोविस और कैप्टन रैट्रे दस सैनिकों के साथ एक बग्गी में चल पड़े अली करीम के घर पहुंचने पर पता चला कि वह दल के पहुंचने से ठीक पहले कुछ सेवकों के साथ हाथी पर सवार होकर चला गया था.’

’ सावरकर ने इस घटना का विवरण कुछ अलग ढंग से दिया. वे लिखते हैं, ‘‘जब टुकड़ी के प्रमुख मि. लोविस अली करीम के पास आए, तो अली करीम अपने हाथी पर सवार हो गया और एक रोमांचक दौड़ शुरू हुई! लेकिन, दर्शकों ने जल्द ही अपनी निष्पक्षता छोड़ दी और निष्पक्ष खेल की सीमाओं को लांघ दिया.

पड़ोसी ग्रामीणों ने फिरंगियों को एक देशवासी का पीछा करते देखा, तो उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया, उन्हें उनके रास्ते से भटका दिया और अंत में, उनका एक टट्टू भी चुरा लिया! अंग्रेज अधिकारी ‘थकान और निराशा से परेशान’ होकर अपने भारतीय नौकर को तेज गति वाले करीम का पीछा करने के लिए छोड़ दिया और अपना काम पूरा किए बिना अगले दिन वापस लौट आया. नौकर भी अंग्रेजों से नफरत करने लगा था, इसलिए करीम को अकेला छोड़कर दुखी चेहरे के साथ अपने मालिक के पास वापस आ गया.

3 जुलाई 1857 को पटना में विद्रोह का नेतृत्व करने की योजना इसके बाद साकार नहीं हो सकी. अली करीम आरा के कुंवर सिंह के साथ घनिष्ठ सहयोग में रहा और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करता रहा. दत्ता लिखते हैं,

‘‘अली करीम ने इस अवधि में बिहार और उसके बाहर ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह सर्वविदित है कि बिहार से भागने के समय अली करीम कुछ समय के लिए कुंवर सिंह के साथ रहा था और संभवतः उसके उनसे पहले के संपर्क थे.

बाद में अमर सिंह, जिनके साथ वह बिहार से निर्वासन के दौरान नियमित पत्राचार करता था, ने उसे अपनी सेना के साथ बिहार आने और अंग्रेजों को भगाने में उसका साथ देने के लिए लिखा.

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उनके प्रयास सामान्य आंदोलन का हिस्सा थे. लेकिन कुछ अप्रत्याशित और अकल्पनीय कारकों के लिए, यहां तक कि 3 जुलाई 1857 का विद्रोह, जो अन्य बातों के अलावा कुछ लोगों के संयुक्त प्रयासों का परिणाम था, ब्रिटिश सरकार के लिए विनाशकारी परिणामों में समाप्त हो गया होता.’’

अली करीम क्रांतिकारियों के साथ गोरखपुर और वाराणसी चले गए. दत्ता बताते हैं, ‘‘बिहार से भागने के बाद अली करीम की गतिविधियों का दूसरा और अलग चरण शुरू हुआ. पटना के डिवीजनल कमिश्नर और आजमगढ़, गोरखपुर आदि के मजिस्ट्रेटों की रिपोर्टों में कुछ संदर्भों से हमें यू.पी. में उनकी गतिविधियों और बिहार में फिर से प्रवेश करने की उनकी योजनाओं का कुछ अंदाजा मिलता है. यह तथ्य कि अधिकारी अमर सिंह के साथ गठबंधन में कार्य करने के लिए बिहार लौटने की उनकी योजना से आशंकित थे, उनके प्रस्तावित कदम के संभावित खतरों का प्रमाण है.’’

अंग्रेज कभी अली करीम को पकड़ नहीं सके, उनकी संपत्ति जब्त कर ली पटना के कमिश्नर ने सरकार को सूचित किया, ‘‘अपराधी अली करीम को पकड़ने के लिए हर संभव प्रयास किया गया है, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली है, उसकी गिरफ्तारी के लिए 2,000 रुपये का इनाम देने की पेशकश की गई है.’’