Exclusive interview - 1 : मुफ्ती अहमद नादिर कासमी से समझें, इज्तिहाद, कियास और फिकह क्या और क्यों हैं?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 17-06-2023
मुफ्ती अहमद नादिर कासमी से समझें, इज्तिहाद, कियास और फिकह क्या और क्यों हैं?
मुफ्ती अहमद नादिर कासमी से समझें, इज्तिहाद, कियास और फिकह क्या और क्यों हैं?

 

मौजूदा हालात में इज्तिहाद कितना जरूरी है. कुरान, हदीस और कियास और कुरान, इज्तिहाद क्या हैं और उनकी जरूरत और अहमियत क्या है। इस बारे में हमारे सीनियर खबरनवीस अब्दुल हई खान ने इस्लामिक फिकह अकादमी, दिल्ली के मुफ्ती अहमद नादिर कासमी से एक इंटरव्यू में तफसीलात हासिल की। मुफ्ती कासमी ने जो नुक्ता-नजर पेश किए, हाजिर हैं उसके कुछ चुनिंदा हिस्सेः

प्रश्नः मौजूदा वक्त में समस्याओं को हल करने के लिए इज्तिहाद एक जरिया है। जैसा कि इस्लाम में कहा गया है कि कुरान, हदीस और कियास. कियास के तौर पर बहुत सारे लोग इज्तिहाद कहते हैं. बहुत से लोग कयास कहते हैं, बहुत से लोग फिकह कहते हैं. तो मैं आपसे ये जानना चाहूंगा कि इन तीनों में क्या फर्क हैं?

उत्तरः  देखिए, कुरान व हदीस, इज्तिहाद और कयास. ये बात हम सब जानते हैं कि कुरान वहीय रब्बानी को कहते है. यानी जो किताब अल्लाह की तरफ से इंसानियत की हिदायत के लिए हजरत जिब्राइल के जरिये रसुलल्लाह सलल्लाहो अलैह वसल्लम के ऊपर, कई साला दौर में, जो आयतें और सूरतें नाजिल हुईं, उनके संग्रह का नाम कुरान-ए-करीम है और किताबुल्लाह है.

उसमें जितने भी अहकाम (आज्ञा) अल्लाह की तरफ से आए हैं, वह सारे अहकाम इस्लाम और मुसलमानों के लिए हैं, जो अल्लाह पर, अल्लाह के रसूल पर, रसूल को आखरी नबी मानता है, जो इस्लाम पर अमल करना चाहता है, उन पर अमल करना, उनको अपनी जिंदगी में लाना उनके लिए जरूरी और लाजिम है.

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हदीस, रसूलुल्लाह (सअव) के अकवाल, अफआल और तक़रीर यानी जो बात रसुल्लाह स. ने जुबान-ए-मुबारक से फरमाई और जो अमल अपनी जात से किया और करके दिखाया, या ऐसे काम जिसको सहाबा इकराम ने किया और उसको देखकर रसूलल्लाह ने कोई रिएक्शन जाहिर नहीं किया, उसका तकरीर रसूल यानी कौले रसूल, फेल-ए-रसूल और तकरीर-ए-रसूल के संग्रह का नाम हदीस है.


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इज्तिहाद उसे कहते हैं, ऐसे अमल को, जो हुक्म दीन और शरीयत के बारे में कुरान व हदीस में न हो, उसका हुक्म शरई तौर पर तलाश करना। कुरान, हदीस, इज्मा और सल्फे-शाहीन यानी अइम्मा-ए-मुजाहिदीन के उसूलों की रोशनी में तय करना, उस मसले का हुक्म तलाश करना, जिसके बारे में बराह-ए-रास्त कुरान व हदीस में नहीं है, इज्तिहाद कहलाता है.

कियास का मतलब ये होता है, कि ऐसे हुक्म, किसी भी मसले के बारे में, कुरान व हदीस में आया है और फिर ऐसा मसला हमारे साथ आ जाए, जिसके बारे में कुरान व हदीस में जिक्र न हो, तो जो पहले से मौजूद हुक्म है, उस हुक्म के रीजन पर इस मसले के हुक्म को मिलान करके, दोनों को एक साथ मिलाकर हुक्म-ए-मसला बयान करने का नाम कियास है.

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कियास का मतलब यही होता है कि कुरान या हदीस में किसी मसले का हुक्म नाजिल हुआ, और फिर हमारे सामने एक मसला सामने आया, तो जो हुक्म कुरान व हदीस में, किसी भी मसलक के इदारे में मौजूद है उसके इल्लत और उसके रीजन को इस मसले के हुक्म को बयान करने के लिए पहले से बयान किए जा चुके मसले पर रखना, यही कयास है और इसके अमल का जो प्रोसेस है.

यानी एक शख्स ने पहले कुरान करीम को सामने रखा, फिर हदीस-ए-मुबारक को रखा और फिर दोनों की इल्लत को, ये जो प्रोसेस कर रहा है, इसी प्रोसेस के करने का नाम इज्तिहाद है. यानी ऐसा प्रोसेस जो हुकम-ए-शरई को बयान करने के लिए किया जाए, उसको इज्तिहाद कहते हैं. इन सब के करने के बाद जो चीज बनती है, वह फिकह कहलाती है.

प्रश्नः भारत में बहुत से मसाइल इस्लाम से मुतअल्लिक आते रहते हैं, जो बहुत जमाने से ज्यूं के त्यूं हैं, जैसा कि कुरान-ए-पाक में कहा गया या सुन्नत में आती है. कहीं-कहीं उनमें तब्दीली भी होती है, लेकिन बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जिनको हल करने में बहुत देर होती है और कहीं कन्फ्यूजन रहता है, तो क्या आज भी इज्तिहाद की गुंजाइश है?

उत्तरः देखिए, जहां तक इज्तिहाद की गुंजाइश बात है, तो ये बात जेहन में बैठा लीजिए कि इज्तेहाद की जरूरत उस समय तक रहेगी, जब तक कि ये दुनिया बाकी है. ये देखना है कि किस मसले में इज्तिहाद हुआ या किसमें नहीं हुआ.

इस बारे में पहले से ये बात तय है कि इस्लाम का कोई भी हुक्म, जो कुरान की किसी आयत में मौजूद है, सराहतन या वकालतन या सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हदीसे-मुबारक में मौजूद है, उसके ऊपर किसी तरह का इज्तिहाद नहीं हो सकता, कयामत तक. जो मसला कुरान में बयान कर दिया गया,

जैसा है वैसा ही रहेगा, चाहे जो भी शक्ल पैदा हो जाए, मगर ये कि उसके ऊपर अमल करना, इज्तिरात के दायरे में दाखिल हो जाए. इज्तिरात एक उसूल है शरीयत में, कि उसके ऊपर अमल करना इजतिरात में दाखिल हो जाए, तो एक अलग हुक्म होगा, जो शरियत ने तय किया है, नहीं तो जितने अहकाम अल्लाह ने कुरान में बयान कर दिए हैं और जितनी रिवायात सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने कौल, अमल और तकरीर से उम्मत के हवाले फरमाया है, वह इज्तिहाद से अलग है.

इज्तिहाद उन्हीं कार्य में होंगे, अमर (कार्य) हमारे सामने आया और वह अमर हुक्म शरई मुअय्यन करने का, उसके बारे में ये जानना कि इसमें इस्लाम का क्या मौकिफ (रुख) है. तो पहले ये देखना है कि कुरान व हदीस में अगर पहले से मौजूद नहीं है, तो उसके बाद भी इस्लाम इस बात का तकाजा करता है कि कोई भी मसला आपके सामने आए, तो उसकी पोजीशन जानने की कोशिश करें कि इस्लाम में इसका क्या हुक्म है.

हराम है, हलाल है, इसे करने की इजाजत है या इसे करने की इजाजत नहीं है, ये पोजीशन जानना एक मुसलमान के लिए जरूरी है. चूंकि उस मसले के बारे में कुरान व हदीस में कोई बयान पहले से नहीं है, तो अब ये पोजीशन जानना इज्तिहाद का मुतकाजी (जरूरत) है. इसके ऊपर इज्तिहाद होगा.

प्रश्नः सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को दुनिया में आए 1400 साल हो गए, उसके बाद कुरान, हदीस और बहुत सी चीजें सामने आईं, मसलकी एतबार से आए, उनमें भी बहुत सारे इख्तिलाफ सामने आए. इज्तिहाद भी होते रहे, लेकिन बहुत से इख्तिलाफ आज भी मौजूद हैं. कौम में इत्तेफाक पैदा करने के लिए, कि नफाक ज्यादा न बढ़े, उसमें भी किसी तरह का काम हो सकता है?

उत्तरः ऐसी बहुत सी कोशिश, सबको एक प्लेटफार्म पर जमा करने की, अमली तौर पर कोशिश की गई है. लेकिन शरीयत में इज्तिहादी अमल एक ऐसा अमल है, जिसमें अगर कुरान व हदीस में कोई हुक्म सराहत के साथ मौजूद नहीं है, तो उसमें राय का अलग होना, ये इंसान की फितरत है.

यही कारण है कि बहुत से अहकाम सहाबा (र.अ.) के जमाने में, सहाबा के दरमियान इख्तिलाफ हुआ. हजरत अब्बास की अलग राय है, हजरत जैद बिन साबित की अलग राय है. हजरत अब्दुल्लाह बिन मसूद की अलग राय है, हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर की अलग राय है और फिर अम्मा आयशा जो कि इस्लाम की बहुत बड़ी स्कॉलर हैं, उनकी भी राय अलग है.

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तो ऐसे मसाइल में, जिसके बारे में कुरान व हदीस में बयान नहीं हुआ, तो उसका अर्थ और मफहूम मौत अय्यन करने में इंसानी जे़हन और फिक्र का इख्तेलाफ भी होता है. इस इख्तेलाफ और फिक्र को शरियत ने इंगेज किया है, गोया माना है.

बर्शते कि वह कुरान-ए-करीम, रसूलुल्लाह के उसूलों के खिलाफ न हो, उससे टकराता न हो. मिसाल के तौर पर, एक हदीस का अर्थ है मुअय्यन करना, किसी आयत का मफहूम मुअय्यन करना है. आयत के मफहूम को मुअय्यन करने में एक मुफस्सिर ने अपने इर्द-गिर्द के माहौल को सामने रखते हुए बताया कि इस आयत का ये मफहूम है. दूसरे सहाबी-ए-रसूल या मुफस्सिर-ए-कुरान ने बताया कि नहीं, चूंकि शब्दकोश में इस लफ्ज की भी गुंजाइश है, इसका ये भी अर्थ है इसका वह भी अर्थ है.

लिहाजा मेरे नजदीक इस शब्द का ये मायना (अर्थ) होना चाहिए. इख्तिलाफ हुआ, तो इसकी गुंजाइश है. तो अब ये नहीं कह सकते कि एक मुफस्सिर ने एक शब्द का ये अर्थ बयान किया है, तो गलत है और दूसरे ने बयान किया है, तो सही है.


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तो इस बारे में आपने (रसूलुल्लाह सअव) ने फरमाया कि तमाम लोगों को एक राय पर जमा कर दिया जाए. इसका हमारे उलेमा ने विरोध किया है. खुद इमाम अबू मालिक के जमाने में और खुलफा-ए-बनू-अब्बास में ये तय हुआ कि तमाम लोगों को एक मसलक के ऊपर जमा कर दिया जाए. तो हमारे उलेमा ने इसकी मुखालफत की और कहा कि ऐसा नहीं हो सकता.

ऐसा इसलिए नहीं हो सकता कि माना और मफहूम को मौत अय्यन करने में इज्तिहाद इख्तिलाफ है और इज्तिहाद इख्तिलाफ की गुंजाइश है. जिस तरह से हदीस में एक बात कही गई है कि एक शख्स ने इज्तिहाद किया और सही नतीजे पर पहुंच गया, तो उसको दो अज्र मिलेगा और एक इस्लामी कानून के माहिर ने इज्तिहाद किया और वह सही नतीजे पर नहीं पहुंचा, फिर भी अल्लाह के रसूल (सअव) ने फरमाया कि उसको एक सवाब मिलेगा. इसका मतलब ये है कि सबको एक फिकह पर जमा कर दिया जाए, ये सही नहीं है. चारों इमाम अपनी अपनी जगह दुरुस्त हैं.

ट्रांसक्रिप्टः मोहम्मद अकरम


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