मोहम्मद अजमल खानः हकीम साहब कौमपरस्ती और गंगा-जमुनी तहजीब के मजबूत पैरोकार थे

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 12-02-2023
हकीम अजमल खान और जामिया मिलिया इस्लामिया
हकीम अजमल खान और जामिया मिलिया इस्लामिया

 

 

राकेश चौरासिया


मोहम्मद अजमल खान अपनी तालीम और हुनर की वजह से हकीम अजमल खान के नाम से मकबूल हुए. उनके हिस्से में ऐसी कई बुलंदियां है, जो उनके किरदार को आला दर्जे का हकीम, माहिरे-तालीम, मुफाकिर और कौमपरस्त बनाती हैं. वो न सिर्फ हिंदुस्तान के मशहूर हकीम हुए, बल्कि आज का जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय उनका ही विरसा है. उन्होंने दिल्ली के करोल बाग स्थित आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज की भी स्थापना की थी. उनकी सोच से न केवल यूनानी और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतियों में मॉर्डन साइंस का फ्यूजन हुआ, बल्कि उन्होंने भारतीय मुस्लिम रहनुमाओं को मुस्तकबिल की गाइडलाइन भी दी. हकीम साहब की दिल्ली में अपनी कोठी पर 17 से 19 अक्टूबर 1922 तक हुई सेंट्रल खिलाफत कमेटी की बैठक में उनकी तकरीरें उन्हें सामाजिक सद्भाव, कौमपरस्ती और गंगा-जमुनी तहजीब का नायक बनाती हैं.


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हकीम अजमल खान परिवार



11फरवरी 1868 (17 शव्वाल 1284) को जन्मे हकीम साहब उन हकीमों के सिलसिले से ताल्लुक रखते थे, जो मुगल सम्राट बाबर के शासनकाल के दौरान भारत आए थे. उनके परिवार में सभी यूनानी चिकित्सक थे और उनका तब दिल्ली के रईसों में शुमार होता था. उनके दादा, हकीम शरीफ खान, मुगल सम्राट शाह आलम के चिकित्सक थे और यूनानी चिकित्सा की शिक्षा देने वाला एक अस्पताल एवं कॉलेज, शरीफ मंजिल का निर्माण किया था, जहां गरीब रोगियों का इलाज मुफ्त था.

 

मजहबी और हकीमी तालीम

 

हकीम अजमल खान हाफिजे-कुरान थे यानी उन्होंने कुरान पाक को कंठस्थ कर लिया था. उन्होंने बचपन से ही अरबी और फारसी सहित पारंपरिक इस्लामी ज्ञान का अध्ययन किया. अपने वरिष्ठ रिश्तेदारों के मार्गदर्शन में दवाईयों के अध्ययन में अपनी ऊर्जा लगाई और कामयाब हुए. उन्होंने सिद्दीकी दवाखाना, दिल्ली के हकीम अब्दुल जमील के अधीन यूनानी अध्ययन पूरा किया.

 

चेहरा देखकर इलाज

 

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1892तक हकीम साहब इलाज में इतने माहिर और मशहूर हुए कि उन्हें रामपुर के नवाब के मुख्य चिकित्सक का ओहदा दिया गया. उनका ‘मसीहा-ए-हिंद’ और ‘बेताज बादशाह’ के रूप में स्वागत किया गया. हकीम अजमल खान, अपने पिता की तरह, चमत्कारी इलाज करने और एक ‘जादुई’ दवा की पेटी अपने साथ रखने के लिए जाने जाते थे, जिसके रहस्य केवल उन्हें ही पता थे. उनके चिकित्सकीय कौशल के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वे किसी व्यक्ति का चेहरा देखकर ही किसी भी बीमारी का निदान कर दिया करते थे.

 

हकीम साहब सबके लिए

 

वे हिंदू और मुसलमानों में बराबर लोकप्रिय थे. गौरतलब है कि वे हिंदू महासभा के एक सत्र की अध्यक्षता करने वाले एकमात्र मुस्लिम थे. हकीम अजमल खान दिल्ली आने वाले मरीज की हैसियत जाने बगैर मुफ्त इलाज किया करते थे, फिर चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान.

 

चिकित्सा क्षेत्र में प्रयोग

 

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उन्होंने यूनानी चिकित्सा पद्धति के विस्तार और विकास में बहुत रुचि ली और इसके लिए तीन महत्वपूर्ण संस्थानों, दिल्ली में सेंट्रल कॉलेज, हिंदुस्तानी दवाखाना और आयुर्वेदिक और यूनानी तिब्बिया कॉलेज का निर्माण किया. चिकित्सा क्षेत्र में अनुसंधान और अभ्यास का विस्तार किया और भारत में यूनानी चिकित्सा पद्धति को विलुप्त होने से बचाया. उनके अथक प्रयासों से ब्रिटिश शासन के तहत लुप्त हो रही यूनानी चिकित्सा प्रणाली में नई जीवन शक्ति का संचार किया.

 

खान ने पश्चिमी अवधारणाओं को यूनानी प्रणाली के भीतर समाहित करने का प्रस्ताव रखा, जो कि लखनऊ स्कूल के चिकित्सकों द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत था, क्यों लखनऊ वाले हकीमों की जमात इस प्रणाली की शुद्धता बनाए रखना चाहती थी. हकीम अजमल खान ने रसायनज्ञ डॉ. सलीमुज्जमां सिद्दीकी की प्रतिभा को भी पहचाना, जिनके महत्वपूर्ण औषधीय पौधों में बाद के शोध ने यूनानी चिकित्सा को एक नई दिशा दी. 

 

जामिया मिल्लिया इस्लामिया

 

हकीम साहब 22नवंबर 1920को जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के पहले चांसलर चुने गए और 1927में अपनी मृत्यु तक इस पद पर बने रहे. उन्होंने अपनी आमदनी और चंदा इकट्ठा करके जामिया को एक महत्वपूर्ण संस्थान बनाने में योगदान दिया.

 

सियासत

 

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हकीम अजमल खान और लोहारू के नवाब अमीरुद्दीन अहमद खान


 

वे केवल जाने-माने हकीम ही नहीं, वरन एक शिक्षाविद, भारतीय स्वतंत्रता सैनानी, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अतुलनीय योगदान के साथ हकीम  साहब अपने युग के सबसे उत्कृष्ट और बहुमुखी व्यक्तित्व साबित हुए. हकीम अजमल खान अपने परिवार द्वारा शुरू किए गए उर्दू साप्ताहिक अकमल-उल-अखबार के लिए लिखना शुरू करने के बाद दवा से राजनीति में आ गए. खान ने 1906में शिमला में भारत के वायसराय से मिलने वाली मुस्लिम टीम का भी नेतृत्व किया और उन्हें प्रतिनिधिमंडल द्वारा लिखित एक ज्ञापन भेंट किया. दिसंबर 1906के अंत में, उन्होंने 30दिसंबर 1906को ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना में सक्रिय रूप से भाग लिया. जब कई मुस्लिम नेताओं को गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा, तब हकीम साहब ने 1917में मदद के लिए महात्मा गांधी से संपर्क किया. उसके बाद प्रसिद्ध खिलाफत आंदोलन में वे मौलाना आजाद, मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली जैसे अन्य मुस्लिम नेताओं के साथ एकजुट हुए. हकीम साहब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अखिल भारतीय खिलाफत समिति के अध्यक्ष पदों पर चुने जाने वाले इकलौते व्यक्ति थे.

 

मसीह-उल-मुल्क

 

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हकीम अजमल खान की कब्र  


 

29 दिसंबर 1927 को हृदय रोग के कारण इंतकाल से पहले हकीम अजमल खान ने अपनी सरकारी पदवी छोड़ दी थी और उनके कई भारतीय अनुयायियों ने उन्हें मसीह-उल-मुल्क (राष्ट्र का मरहम लगाने वाला) की उपाधि से सम्मानित किया था. उन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया के चांसलर के पद पर मुख्तार अहमद अंसारी द्वारा उत्तराधिकारी बनाया गया था.

 

खानदान की पंचलाइन

 

भारत के विभाजन के बाद, हकीम साहब के पोते हकीम मुहम्मद नबी खान पाकिस्तान चले गए. हकीम नबी ने अपने दादा से तिब्ब (चिकित्सा कैसे करें) सीखा था और लाहौर में ‘दवाखाना हकीम अजमल खान’ खोला था, जिसकी शाखाएं पूरे पाकिस्तान में हैं. अजमल खान परिवार का आदर्श वाक्य अजल-उल-अल्लाह-खुदातुलमल है, जिसका अर्थ है कि खुद को व्यस्त रखने का सबसे अच्छा तरीका मानवता की सेवा करना है.

 

हकीम साहब की सोच

 

भारतीय मुस्लिम नेतृत्व का हिंदुस्तानी होने के नाते क्या नजरिया होना चाहिए. इस बारे में दस्तावेज हकीम साहब की सोच को उजागर करते हैं. जो हिंदुस्तानी मुसलमानों के रोषनी का काम कर सकते हैं. एक ब्रिटिश रिपोर्ट में हकीम अजमल खान द्वारा 17, 18और 19अक्टूबर 1922को अपने दिल्ली आवास पर आयोजित सेंट्रल खिलाफत कमेटी (सीकेसी) की बैठकों में एक स्थिति का उल्लेख किया गया है. हकीम अजमल खान ने सीकेसी बैठक की अध्यक्षता की और सुझाव दिया कि तुर्की के मुद्दे को धार्मिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए. उनका मानना था कि इस समस्या को मुस्लिम बनाम ईसाई के रूप में पेश करने के बजाय एशिया बनाम यूरोप के रूप में जनता के सामने पेश किया जाना चाहिए. 18अक्टूबर को, एक प्रस्ताव पेश किया गया कि भारतीय मुसलमानों को अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा के लिए लड़ने के लिए एक मिलिशिया का गठन करना चाहिए. अजमल खान ने इसका विरोध किया और कहा कि अपने आंदोलन को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जनमत बनाने से आगे नहीं बढ़ना चाहिए.

 

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करोल बाग में अजमल खान पार्क


 

 

इतिहासकार साकिब सलीम के मुताबिक, इस बैठक में यह निर्णय लिया गया कि कमाल पाशा पर संभावित ब्रिटिश हमलों को देखने और उनके खिलाफ जनमत बनाने के लिए एक बोर्ड का गठन किया जाएगा. अजमल खान फिर से विरोध में उठ खड़े हुए और तर्क दिया, ‘‘यदि आप आंदोलन को चलाना चाहते हैं, तो इसे एशियाटिक आंदोलन के रूप में रखें, न कि धार्मिक आंदोलन.’’ वे अंत तक इस बात से सहमत नहीं हो सके कि राष्ट्रवादी राजनीति में ‘धार्मिक-राजनीतिक भाषा’ का कोई स्थान है. अगले दिन, 19अक्टूबर को, अजमल खान की अध्यक्षता में सीकेसी बैठक ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें उस वर्ष सितंबर में मुल्तान में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की निंदा की गई थी. प्रस्ताव के अनुसार, ‘‘यह बैठक मुल्तान में हो रही खेदजनक घटना की निंदा करती है. विशेष रूप से मंदिरों और गुरु ग्रंथ साहिब को जलाना, असहाय महिलाओं को लूटना और कुछ मुसलमानों द्वारा शांतिप्रिय लोगों के घरों पर हमला करना, जो मानवता और धर्म के लिए समान रूप से घृणित कार्य हैं. इन हरकतों को अंजाम देने वाले गुंडों ने हिंदू-मुस्लिम एकता पर गहरा आघात किया है.’’

 

अपने संबोधन में, अजमल खान ने मुल्तान में हिंदुओं के खिलाफ मुस्लिम मनमानी को परेशानी के लिए जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने बताया कि मुस्लिम भीड़ द्वारा कई मंदिरों को नुकसान पहुँचाया गया था, लेकिन किसी भी मस्जिद पर हमला नहीं किया गया था, भले ही वह हिंदू इलाके में ही क्यों न हो. उनके अनुसार, मुस्लिम भीड़ के नेता सरकारी कर्मचारी थे और उन्होंने हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादियों के बीच दरार पैदा करने के लिए हिंसा को उकसाया.