मिलिए, निजामुद्दीन दरगाह पर 75 सालों से कव्वाली की महफिल सजाने वाले परिवार से

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 04-06-2023
मिलिए, निजामुद्दीन दरगाह पर 75 सालों से कव्वाली की महफिल सजाने वाले परिवार से
मिलिए, निजामुद्दीन दरगाह पर 75 सालों से कव्वाली की महफिल सजाने वाले परिवार से

 

मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली

सूफीज्म का हिस्सा मानी जाने वाली कव्वाली की कला 700 पुरानी है. कहते हैं कि हमारे सूफी इकराम ईरान और अफगानिस्तान के रास्ते इसे अपने साथ तेरहवीं शताब्दी में भारत लेकर आए थे. सूफी और फकीरों की ‘राजधानी’ कहे जाने वाली दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर आज भी हर शाम कव्वाली की महफिल सजती है.हजरत निजामुद्दीन दरगाह की जियारत करने वाले उनके सूफियाना कलाम सुनने के लिए घंटों यहां बैठे रहते हैं. इस क्रम में हम आज आपको निजामुद्दीन की दरगाह पर हर शाम अपनी खूबसूरत आवाज से लोगों को प्रभावित करने वाले कव्वालों से मिला रहे हैं. उनके मुताबिक कव्वाली गाने से जो पैसे मिलते हैं, उसी से जिंदगी चल रही है और वह इससे बहुत खुश है. इसके अलावा उनके पास कोई स्रोत का दूसरा रास्ता नहीं है. दरगाह के अलावा जश्ने रेख्ता, जश्ने अदब, हुनर हॉट, आईसीसीआर, आकाशवाणी आदि प्रोग्राम में भी इन लोगों को बुलाया जाता है.

आजम निजामी की उम्र महज 25 साल है और पुरानी दिल्ली के दरियागंज से हैं. वे हजरत निजामुद्दीन दरगाह में हर शाम कव्वाली गाते हैं. उनके मुताबिक उनके पिता खास खलील अहमद, दादा उस्ताद खास कव्वाल शफीक अहमद निजामी, परदादा खास कव्वाल रफीक अहमद निजामी के वक्त से ही ये परंपरा चलती आ रही है.

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आजम निजामी के मुताबिक 1946 में जब भारत विभाजन के वक्त लोग दिल्ली को छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे, तो उनके परदादा रफीक अहमद निजामी ने यहां ख्वाजा के दरबार में हाजिरी दी थी. उन्होंने कहा, ‘‘उस वक्त से हमारे खानदान का दरगाह से अटूट रिश्ता जुड़ गया है. हमारे पर दादा ने सरकार में हाजिरी दी और अब मैं अपने लोगों के साथ हर शाम कव्वाली पढ़ता हूं.’’

सरकार की मेहरबानी से बहुत अच्छा चल रहा जीवन

आजम निजामी दो भाई हैं, उनके छोटे भाई नाजिम निजामी भी उनके साथ कव्वाली में हिस्सा लेते हैं, उनका कहना है कि मैं बचपन से ही यहां हर शाम कव्वाली गाता हूं. लोग खुशी से पैसे देते हैं, जो इन सरकार (हजरत निजामुद्दीन) की मेहरबानी से मिल जाता है. हमारी जिंदगी बहुत आसानी से कट रही है.

दरगाह प्रशासन की तरफ से किसी तरह की मदद की जाती है? इस सवाल के जवाब में आजम निजामी कहते हैं कि दरगाह के पास क्या आता है या नहीं आता है, मुझे इससे कोई सरोकार नहीं होता है. हमारी किस्मत में जो होता है, वह कव्वाली से मिल जाता है.

मछली के बच्चे को तैरना नहीं सिखाया जाता

आजम निजामी ने बताया कि ये हमारा खानदारी काम है. हमारे बाप-दादा ने हमें सिखाया और जो आने वाली नस्लें होगी, तो हम भी यहीं चाहेंगे कि वह भी यही काम करें. बच्चे बचपन से ही हमारे बीच होंगे, तो उन्हें ज्यादा सिखानी की जरुरत नहीं होती है. घर की तरफ से तालीम हासिल करने पर जोर दिया जाता है, डिग्री हासिल करे, उसके बाद कव्वाली करे. निजामी एक कहावत याद करते हुए कहते हैं कि ‘मछली के बच्चे को तैरना नहीं सिखाया जाता’ है. ये हमारा पेशा है, इसके अलावा हमारा कोई काम नहीं है. इसी से हमारा परिवार चलता है. महीने में 40-50 हजार रुपये कमा लेता हूं.

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हसनैन निजामी का ताल्लुक निजामुद्दीन इलाके से ही हैं. उनके अनुसार उनके परदादा तांदरस खां शाही गवैये थे और उनका परिवार सात सौ साल से दरगाह में कव्वाली गा रहा है, उन्हें उम्मीद है कि आगे भी उनके वंशज उनकी विरासत को आगे बढ़ाएंगे.

एक रुपया एक लाख रुपया के बराबार

हसनैन निजामी कहते हैं कि हमें यहां से जो कुछ मिलता हैं, उसी से परिवार गुजर रहा है. यहां का एक रुपया एक लाख रुपया के बराबार है. हमारे एक लड़का है, वह भी सूफी गीत गाता है. हसनैन भी आजम निजामी की बात को दोहराते हुए कहते हैं कि मछली के बच्चे को तैरना नहीं सिखाया जाता है.

‘झूम बराबर झूम’ जैसी मशहूर हिन्दी फिल्म में कव्वाली गा चुके उस्मान नियाजी भी हर शाम दरगाह हजरत निजामुद्दीन में कव्वाली गाते हैं. वह कहते हैं कि हमारे पिता सुल्तान नियाजी, दादा उस्ताद गुलाम हसनैन नियाजी और उनसे पहले की नस्लें सरकार के दरबार में कव्वाली पढ़ते आए हैं. लोग ‘सरकार’ के कारण ही यहां पहुंचते हैं और वह अपनी खुशी से हमें जो रुपये देते हैं उसी से हमारा घर चलता हैं, कोई परेशानी नहीं है. महीने के 50-55 हजार रुपये कमा लेते हैं.

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उस्मान नियाजी भी दूसरों कव्वाल की तरह ख्वाहिश रखते हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ी इस काम को आगे बढ़ाएंगी. उस्मान ने आगे बताया कि गरीब से लेकर अमीर और शहंशाह के पास पहुंचते हैं, वह लोग जो देते हैं, ऊपर वाले के करम से देते हैं. हमें कोई परेशानी नहीं होती है.

ये हमारी परंपरा है, इससे हम कैसे छोड़ सकते

क्या आप भी अपने बच्चे को इस मैदान में लाएंगे? इस सवाल के जवाब में उस्मान भी दूसरों की तरह वह मुहावरा दोहराते हुए कहते हैं कि ये हमारी परंपरा है, इससे हम कैसे छोड़ सकते हैं. यहीं से हमारा परिवार, जरूरतें चलती हैं. वह आगे कहते हैं कि हमने ‘झूम बराबर झूम’ जैसी कई फिल्मों में काम किया है, अब हमारे हिस्से की जो चीज होती हैं, वह बड़े कव्वाल, जिनका नाम बड़ा हो चुका है, उनके हिस्से में चली जाती हैं. 

मोहम्मद अली निजामी दसवीं क्लास पास हैं. वह भी बड़े कव्वाल के साथ कव्वाली गाते हैं. उन्होंने कहा कि मैंने पिता गुलाम अली निजामी से कव्वाली सीखी है. बचपन से अपने गीत, गजलों, सूफी कलाम के बीच गुजारा है, हमें दूसरों के साथ बैठकर गाते बहुत अच्छज्ञ लगता है. भविष्य में परेशानी नहीं आएगी. जब पूरी दुनिया दूसरे मैदान में हाथ-पैर मार रही है? इस सवाल पर अली निजामी कहते हैं कि ‘सरकार’ में सभी चीजें मिल जाती हैं, दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं है.

 

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