मौलाना वहीदुद्दीन खानः ऐसे आलिम जो गंगा-जमुनी चदरिया में ताउम्र लिपटे रहे

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 29-08-2023
Maulana Waheeduddin Khan
Maulana Waheeduddin Khan

 

राकेश चौरासिया

‘न फनकार तुझसा तेरे बाद आया.’ हजरत मौलाना वहीदुद्दीन खान हिंदुस्तान के ऐसे दानिशमंद सरमाया हुए, जिनकी ऊर्ध्व चेतना से उपजी मौलिक सोच इस दुनिया में, रहते सूरज-चांद-तारों तक गूंजती रहेगी. बकौल मौलाना, ‘‘लोग आध्यात्मिक रूप से पैदा होते हैं, लेकिन समाज के कई प्रभाव, किसी व्यक्ति को प्रभावित करते हैं.’’

इसका सीधा सा मतलब यह है कि आदमी जब पैदा होता है, तो रुहानी यानी सच्चा होता है. मगर दुनियादारी, या कहें, तो सांसारिकता के चक्कर में पड़कर खराब हो जाता है. ये बात कुछ-कुछ गालिबन भी है, ‘‘...वर्ना हम भी आदमी थे काम के.’’

मौलाना ने इस गूढ़ मर्म को फकत न समझा और कहा, बल्कि इसे जीने की भी कोशिश की. उनका अपना ख्याल जब उरूज पर पहुंचा, तो उन्होंने नाग की केंचुली की तरह अपने जेहन से दुनियादारी उतारकर खुद को गिरहो-फंद से आजाद कर लिया.

चोटी के इस्लामवेत्ता होने और खुद मुसलसल ईमान पर चलने की वजह से उन्होंने कई स्थापित मान्यताओं को सीधा चुनौती दी और दुनिया के कई बड़े मौलानाओं के कुरान करीम के तआल्लुक से उनके तर्जुमाओं को अपने तर्कों से ध्वस्त कर दिया.

पद्म विभूषण मौलाना वहीदुद्दीन खान ने नासमझी, गलतफहमी और रिवाजों के तहखानों से इस्लाम की खूबसूरती को बाहर लाने की ईमानदार कोशिश की. इसके लिए उन्हें बड़े-बड़े और नामचीन मौलानाओं की तनी हुई भौंहों का सामना करना पड़ा. मेरा अंदाजा है कि उन्होंने रबीन्द्रनाथ टैगोर को सुन-गुन लिया होगा, ‘जोदी तोर डाक सुने, केउ ना आसे, तोबे एकला चलो रे.’ (तेरी आवाज पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे).

तमाम आलोचना, तिरस्कार और मजम्मत से अप्रभावित रहते हुए, वो कुरान और इंसानियत की धुन में आगे बढ़ते रहे और गंगा-जमुनी तहजीब, रवादारी, यकजहती और भाईचारे के बड़े पैरोकार बनके उभरे.

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मौलाना वहीदुद्दीन खान की पैदाइश 1 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के ग्राम बड़हरिया में हुई. पठान परिवार में जन्मे मौलाना वहीदुद्दीन खान के सिर से जब वालिद का साया उठा, तो उनकी उम्र महज चार साल थी.

माता जैबुन्निश ने पाल-पोस का बड़ा किया और उन्हें चाचा सूफी अब्दुल हमीद खान की सरपरस्ती मिली. उन्होंने आजमगढ़ के सराय मीर स्थित मदरसौल इस्लाही नाम के मदरसे में प्रारंभिक शिक्षा हासिल की. वे पारंपरिक सुन्नी रिवाजों वाले परिवार में जन्म लेकर भी ऐलानिया तौर पर सूफी तो नहीं थे,

लेकिन उनकी सारी उम्र रुहानी और सूफियाना अंदाज में गुजरी. उनके चिंतन-प्रवाह के आगे उलमा इकराम और आलिम हमेशा नतमस्तक रहे. उन्होंने उर्दू, अरबी, अंग्रेजी समेत कई जुबानों में इस्लामी मुद्दों और मसाइल पर 400 से ज्यादा किताबें लिखीं, जो अंतर-धार्मिक वार्ता, बहुलवाद, सामाजिक सद्भाव, सहिष्णुता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व से लबरेज हैं.

धार्मिक नेता और इस्लाम के धर्म व न्यायशास्त्री होने के नाते मौलाना वहीदुद्दीन खान ने विभिन्न धर्मों के अनुयायियों और अकीदतमंदों के बीच उभरे मतभेदों को सुलझाने और एक मंच पर आकर तर्कपूर्ण संवाद करने की जरूरत को प्रोत्साहित किया.

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जमात-ए इस्लामी को छोड़ा

जमात-ए इस्लामी हिंद में उनकी सेवाओं के लिए मौलाना वहीदुद्दीन खान को केंद्रीय समिति के सदस्य के तौर पर नामित किया गया. उन्होंने जमात में दस सालों तक जिम्मेदारी को ढंग से निभाने की कोशिश की. मगर जमात और उनकी सोच में जो फर्क थे, उससे इख्तलाफ बढ़ते गए और 1962 में जमात को अलविदा कह दिया.

इसलिए कि मौलाना वहीदुद्दीन खान का मानना था कि जमात जिस रास्ते पर चल रहा है, वह हिंदुस्तानी मुसलमानों के भलाई-बेहबूदी की ओर नहीं जाता. जमात-ए-इस्लामी का जो भी राजनीतिक दृष्टिकोण था, वह हिंदुस्तानी मुसलमानों की न तो जरूरतें पूरी करता है और न ही उसका नजरिया हालात के माकूल है. जमात त्यागने के बाद उन्होंने कुरान की असल व्याख्या और सामाजिक सद्भाव व शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की विचारधारा को पुष्ट करने के लिए अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया.

बाबरी मस्जिद पर नजरिया

याद कीजिए उस दौर को, जब राम मंदिर विवाद, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले से सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक रास्ता तय कर रहा था, तब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हिंदुत्व नैरेटिव और मुस्लिम नैरेटिव का बोलबाला था, तिस पर वामपंथी नैरेटिव छौंक-बघार लगा रहा था. इन तीनों आख्यानों की कबड्डी के बीच, एक टेबल पर बैठकर बातचीत के जरिए किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए कोई तैयार न था.

इस कुहासे और धुंधलके भरे कालखंड में मौलाना वहीदुद्दीन खान ने हिंदु-मुस्लिम भाईचारे को दांव पर लगते हुए महसूस किया और चिरपरिचित हिंदुस्तानियत की चदरिया ओढ़कर बोले कि बाबरी मस्जिद पर मुस्लिम पक्ष को अपना दावा छोड़ देना चाहिए. गौरतलब है कि मौलाना हमेशा एक ही रंग की पगड़ी और एक खास चदरिया ओढ़ते थे, जो उनकी पहचान का हिस्सा बन गई थी.


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बाबरी मस्जिद को लेकर मौलाना वहीदुद्दीन खान के बयान पर मुआशरे में जलजला आ गया. कई मौलानाओं में मजम्मत को लेकर घुड़दौड़ शुरू हो गई. लेकिन मौलाना वहीदुद्दीन खान के तर्क के आगे सभी को ढेर होना ही था.

मौलाना वहीदुद्दीन खान ने मुसलमानों से न केवल बाबरी मस्जिद पर दावा छोड़ने की अपील की, बल्कि अपने तर्क के समर्थन में उन्होंने हिंदू संत चिदानंद सरस्वती और जैन संत सुशील कुमार के संग, शांति मार्च में हिस्सा लेने जैसा रिस्की कदम भी उठाया.

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राम मंदिर के मसले पर इस्लाम की रशीदुन खिलाफत के चार खलीफाओं में दूसरे नंबर के हजरत उमर इब्न अल-ख़ाताब का हवाला देते हुए अपने एक लेख के जरिए मौलाना वहीदुद्दीन खान ने इज्तिहाद किया कि हजरत उमर को यरूशलेम के पवित्र सेपुलचर चर्च के जिम्मेदारों ने अपने चर्च में नमाज अदा करने की दावत दी.

मगर हजरत उमर ने इबादत की यह दावत इस बिना पर खारिज कर दी और ईसाई बिशप को जवाब दिया कि अगर उन्होंने चर्च में नमाज पढ़ी, तो बाद में इस बात पर झगड़ा हो सकता है. आने वाली पीढ़ियों के मुसलमान इस जगह पर यह कहते हुए अपना हक जता सकते हैं कि उनके खलीफा ने यहां नमाज पढ़ी थी. इसलिए यहां मस्जिद बनाना उनका हक है.

इस तारीख़ी वाकये का जिक्र करते हुए मौलाना वहीदुद्दीन खान इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि हिंदुओं के पवित्र उपासना स्थल के निकट मुगल बादशाह बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद तामीर करवाई, तो मुश्किलें तो पैदा होनी ही थीं.’’

नुक्ता-ए-नजर

500 सर्वाधिक प्रभावशाली मुस्लिमों में शामिल रहे मौलाना वहीदुद्दीन खान को ‘द मुस्लिम 500’ संस्था ने ‘विश्व में शांति के लिए इस्लाम का आध्यात्मिक राजदूत’ के तौर पर शिनाख्त किया है. मौलाना वहीदुद्दीन खान ने अपनी इस उपाधि को अपने 96 साला जिंदगी में अपने तर्कों से सारगर्भित किया.

उनके कई मसाइल पर नुक्ता-ए-नजर पूरी दुनिया मशहूर और मकबूल हुए. मौलाना वहीदुद्दीन खान हुदैबिया संधि को पक्षपातपूर्ण मानते हुए कहते हैं कि हजरत मुहम्मद ने फिर भी इस संधि को माना. हुदैबिया संधि की स्वीकृति के परिणामस्वरूप ही हजरत मुहम्मद के मिशन को सफलता मिली.

इसके समर्थन में, मौलाना वहीदुद्दीन खान ‘द प्रोफेट ऑफ पीस’ लिखते हैं कि ‘न्याय के बिना शांति, बिल्कुल भी शांति नहीं है’ यह सोच ठीक नहीं. उग्रवादी विचारधारा पर प्रहार करते हुए वे कहते हैं कि शांति लागू होने के बाद ही न्याय पर चर्चा हो सकती है. इसके तर्क में वे कहते हैं, ‘‘शांति से पहले न्याय मांगना, घोड़े के आगे गाड़ी रखने के समान है.’’

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मौलाना वहीदुद्दीन खान इस हक के थे कि ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास महत्वपूर्ण घटक है और इस विश्वास का वैज्ञानिक आधार भी है. ‘गॉड अराइजेज’ में वे कहते हैं कि यदि कोई सही मानदंड लागू करता है, तो वे पाएंगे कि ईश्वर एक सिद्ध तथ्य है. मौलाना वहीदुद्दीन खान का तजकिया पर बहुत जोर रहा. तजकिया यानी ‘मन की शुद्धि’ यानी मन की जागृति यानी डीकंडीशनिंग से व्यक्ति के संपूर्ण चरित्र में निखार आता है.

मौलाना वहीदुद्दीन खान इस मिथक का खंडन करते हैं कि इस्लाम विज्ञान को हतोत्साहित करता है. वे इसके विपरीत कहते हैं कि कुरान की ऐसी कई आयतें हैं, जो वैज्ञानिक शिक्षा को प्रोत्साहित करती हैं और अकीदतमंदों से जमीन और जन्नत-उल-फिरदौस जैसे रहस्यों को जानने की हिदायत देती हैं.

इसी तरह मौलाना वहीदुद्दीन खान ने कुरान करीम के जरिए इज्तिहाद करते हुए मुआशरे में जारी विभिन्न गलत रिवाजों और धारणाओं को खारिज करते हुए काबिले-कुबूल नजरिए पेश किए.


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