मंसूरुद्दीन फरीदी / नई दिल्ली
जुमे की नमाज के खुतबाकामहत्व न केवल धार्मिक ,सुधार और मार्गदर्शन काभी सुनहरा अवसर है.यह दीन के लिए एक दीपक और दुनिया के लिए मशाल है, लेकिन हकीकत कुछ और है.अब बात इसकी श्रेष्ठता और इनाम की,इसलिए इस पर चर्चा तो होती है,लेकिन महत्व और उपयोगिता के पहलू को या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है या बहुत कम चर्चा की जाती है.
यही कारण है कि जुमे की नमाज के खुतबे को लेकर अनेक आपत्तियाँ एवं प्रश्न उठते हैं.बहस इस बात पर है कि शुक्रवार का उपदेश किस रूप में था और अब क्या है.खतीब की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण और अब क्या है ?
शुक्रवार के उपदेश का महत्व या रुचि कम होने का क्या कारण है?
क्या नमाजियों की रुचि कम हो गई या उपदेशक की वाणी बंद हो गई?
नमाजियों का मिजाज बदला या उपदेशक का अंदाज?
वास्तव में, शुक्रवार का उपदेश(खुतबा) मार्गदर्शन का एक साधन है,जो राष्ट्र को पथभ्रष्ट होने से बचा सकता है, विकट परिस्थितियों में निराशा से बचा सकता है, देश और राष्ट्र को धार्मिक रूप से महत्व और जिम्मेदारियों का एहसास करा सकता है, घृणा से दूर ले जा सकता है.इससे धार्मिक सहिष्णुता पैदा हो सकती है.
मुस्लिम बुद्धिजीवी और विद्वान इसके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं.शुक्रवार के उपदेश की प्रभावशीलता को बनाए रखने के लिए शैली से लेकर विषयों की पसंद तक प्रतिक्रिया दी जाती है.उपदेश की भाषा और व्यापकता पर भी प्रकाश डाला गया है.
स्पष्ट है कि यदि शुक्रवार के उपदेश इतने महत्वपूर्ण हैं, तो मस्जिद के उपदेशक की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है.यह आवश्यक है कि उपदेश आशीर्वाद देने या समय गुजारने के बजाय सुधार और संदेश देने का सबसे अच्छा साधन होना चाहिए.
अब ये सुझाव सामने आ रहे हैं कि उपदेश की भाषा स्थानीय होनी चाहिए. ताकि अधिक से अधिक लोग आसानी से समझ सकें. यानी उपदेशक को बहुसंख्यक उपासकों की भाषा, संस्कृति और पृष्ठभूमि का भी ध्यान रखना चाहिए, ताकि उसकी बातें नई पीढ़ी के उपासकों(नमाजियों)के मन तक आसानी से पहुंच सकें.
अंग्रेजी और हिंदी माध्यम की देन है, बोलने वालों को अंग्रेजी शब्दों के साथ सरल अरबी और उर्दू शब्दों का भी प्रयोग करना चाहिए.उपदेशक को भावनात्मक और प्रतिक्रियाशील मनोविज्ञान से परे अपनी बात कहनी चाहिए.
यह जरूरी नहीं है कि दूसरे लोग आपकी निजी राय से सहमत हों.यह भी हो सकता है कि आयतों और हदीसों से आप जो निष्कर्ष निकालते हैं, वह सही न हो.अब धर्मगुरु भी ऐसा करने लगे हैं.
शुक्रवार के उपदेश को छोटा रखना और इसे आसान बनाना बेहतर है,क्योंकि लोग शुक्रवार की प्रार्थना के दौरान मस्जिद में अधिक समय तक नहीं रुकते .यदि उपदेश लंबा है, तो वे ऊब जाते हैं.
एक महत्वपूर्ण बहस यह है कि क्या कोई गैर-विद्वान शुक्रवार का उपदेश दे सकता है.धर्म का नहीं बल्कि दूसरे पेशे का विशेषज्ञ है? इस पर विद्वानों की राय बंटी हुई है,लेकिन अब दुनिया के हर कोने में इसका परीक्षण किया जा रहा है.यह सफल भी है जिसके लिए कुछ शर्तें हैं जिनका जिक्र हम बाद में करेंगे.
शुक्रवार उपदेश यह न केवल एक धार्मिक संदेश है बल्कि सांसारिक समस्याओं के समाधान और जागरूकता का स्रोत भी है.जिसे सकारात्मक सोच के साथ सुंदर शब्दों में व्यक्त किया जाना चाहिए.
भाषा की कोई समस्या नहीं.यह आवश्यक नहीं है कि पहला उपदेश अरबी में हो, बल्कि स्थानीय भाषा में देना बेहतर है.उपदेश का उद्देश्य यही है लोगों को विभिन्न मुद्दों के बारे में जागरूक करना है.सलाह देनी है, इसलिए स्थानीय भाषा का उपयोग व्यावहारिक रूप से बेहतर है.
यह राय प्रमुख बुद्धिजीवियों और विद्वानों कीहै, जो उन्होंने आवाज़-द-वॉयस से बातचीत में व्यक्त की.जमात-ए-इस्लामी हिंद के प्रमुख बुद्धिजीवी डॉ. रज़ी-उल-इस्लाम का कहना है कि उपदेश की भाषा को लेकर विद्वानों के बीच बहस चल रही है.
कुछ लोगों का मानना है कि अल्लाह के दूत अरबी भाषा में उपदेश देते थे.जबकि अन्य लोग स्थानीय भाषा में उपदेश का समर्थन करते हैं.ऐसा माना जाता है कि शुक्रवार की नमाज का पहला उपदेश उर्दू में दिया जा सकता है,क्योंकि उपदेश का उद्देश्य लोगों को ज्ञान देना है.
यह केवल धर्म के बारे में नहीं, बल्कि लोगों को इसके बारे में जागरूक करना है.वर्तमान स्थिति, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं एवं भ्रांतियों पर प्रकाश डालना होगा. डॉ. रज़ी-उल-इस्लाम कहते हैं कि खुतबा के लिए कोई शर्त नहीं है.इसे कोई विद्वान या मुफ़्ती ही दे.
अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही करनी चाहिए, जब मामला सौंपा जाए तो आयतों और हदीसों को सही ढंग से पेश किया जा सकता है.उनका कहना है कि अगर बात खुतबे के लंबे या छोटे होने की है तो हदीसों में अल्लाह के रसूल के खुतबे को छोटा और दुआ को लंबा बताया गया है.
असल में उपदेश दिया जाए तो लोग नाराज होने लगते हैं, ऊबने लगते हैं.यदि वाणी को छोटा किया जाए तो वह हृदय तक पहुंच सकती है.आजकल उपदेशों का एक बड़ा दोष यह है कि उपदेशक लम्बे-लम्बे उपदेश देने के चक्कर में पड़ जाते हैं.उनमें निराधार कहानियाँ तथा उपाख्यान जोड़ देते हैं.इससे बचना चाहिए.
देश के एक अन्य प्रमुख विद्वान मौलाना ज़हीर अब्बास रिज़वी का कहना है कि जुमे का खुतबा एक अजीब स्थिति में है.पहले खुतबा जुमे की नमाज की भावना हुआ करता था. अब भावना" गायब है.
अब जुमे की नमाज दो रकअत नमाज के अलावा कुछ नहीं.उपदेश के नाम पर किस्से-कहानियों का दौर चल रहा है, जो भ्रामक भी हैं.रसूलुल्लाह ने जिस जुमे की स्थापना की थी,वह अब दिखाई नहीं देता.जुमे के खुत्बे का उद्देश्य लोगों को वर्तमान स्थिति से अवगत कराना, उनकी समस्याओं का समाधान प्रदान करना था. चाहे वह आर्थिक, सामाजिक या धार्मिक हो.
उन्होंने आगे कहा कि आज मस्जिदों में बातचीत करना मुश्किल हो गया है. हालांकि एक समय में मदीना में पैगंबर की मस्जिद एक सामाजिक केंद्र थी.हर मुद्दे पर चर्चा होती थी. यह धार्मिक के साथ सामाजिक और साहित्यिक समारोहों का केंद्र था.
मौलाना जहीर अब्बास कहते हैं कि जुमे के खुतबे में बात एकता और सहमति की होनी चाहिए. राष्ट्रीय हितों की बात होनी चाहिए. बीच के रास्ते की बात होनी चाहिए. भावनाओं से दूर होकर व्यवहारिकता की बात होनी चाहिए और टकराव से बचना चाहिए.
अब हम कई सद्गुणों को भूल गए हैं.उपदेश का अर्थ है कि हमें लोगों को रास्ता दिखाना चाहिए. उन्हें वर्तमान स्थिति से अवगत कराना चाहिए.अपनी बुद्धिमत्ता पर प्रकाश डालना चाहिए.
मालेगांव के विद्वान और संस्कृत विशेषज्ञ मौलाना जलालुद्दीन कासमी ने आवाज द वॉयस से बात करते हुए कहा कि उपदेश के लिए एक व्यापक विचार और सिद्धांत की आवश्यकता होती है, जिस पर किसी मौलवी या विद्वान का वर्चस्व या एकाधिकार नहीं होता है.
हर कोई इससे अपना संदेश दे सकता है.जब तक वे ऐसा करने के लिए योग्य हैं.खुतबा एक महान माध्यम है जिसके माध्यम से मुसलमान एक-दूसरे से जुड़ सकते हैं. अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं.
मौलाना कासमी कहते हैं कि हमें नई पीढ़ी को खुतबा के लिए आगे आने का मौका देना चाहिए, जो शोध के बाद खुतबा दे सके.अगर कोई गलती हो तो कोई दिक्कत नहीं, लेकिन अगर कोई इस विषय पर बोलता है,जानकारी होना जरूरी है.
नई पीढ़ी के बच्चे अपनी भाषा के साथ अंग्रेजी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं, जिससे लोगों को समझने में आसानी होगी. नए तरीके से उपदेश देंगे तो लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी. अब तक वही पारंपरिक स्टाइल चल रहा है. खतीब का भजन जारी है.
डॉ. कासमी कहते हैं कि अब हमें नए तरीके से सोचने की जरूरत है, जो भी बाधाएं या समस्याएं हम पैदा करते हैं, उनमें इस्लाम या कुरान में कोई बाधा नहीं है.इस्लाम बहुत प्रबुद्ध और व्यापक विचारधारा वाला है.
सूफी विद्वान और इंटरनेशनल सूफी कारवां के प्रमुख मुफ्ती मंजूर जियाई का कहना है कि शुक्रवार का उपदेश निस्संदेह बहुत महत्वपूर्ण है.यह केवल रोजा नमाज के बारे में नहीं है, बल्कि यह मुसलमानों को सामाजिक, राजनीतिक और व्यावसायिक रूप से सूचित रखने का भी एक तरीका था.खुद को बारीकियों से भी परिचित कराएं.
उनका कहना है कि शुक्रवार के उपदेश का उद्देश्य राष्ट्र में जागरूकता पैदा करना और जिम्मेदारी की भावना को उजागर करना है.यह बात अलग है कि अब इसके महत्व पर बहस हो रही है, लेकिन हम यह नहीं भूल सकते कि विद्वानों और उपदेशकों ने देश का हर दिशा में नेतृत्व किया है.यह आज भी उपयोगी है.
यह व्यवस्था इसलिए बनाई गई ताकि मुसलमान धर्म के साथ दुनिया से जुड़े रहें.स्थिति से अवगत रहें और अपनी ज़िम्मेदारी को नज़रअंदाज़ न करें.मुफ्ती जियाई कहते हैं कि जुमे के खुतबे में उपदेशक को देश और कौम के प्रति हमारी जिम्मेदारियों पर रोशनी डालनी चाहिए.
मौजूदा हालात के मुताबिक हिकमत समझानी चाहिए, इसका असर होता है. यह भी जरूरी है कि वक्ता भाषा और लहजे का ध्यान रखे.भाषा सरल एवं भावशून्य होनी चाहिए.मुंबई में अंजुमन-ए-इस्लाम के प्रमुख डॉ. जहीर काजी कहते हैं कि उपदेश सिर्फ एक भाषण नहीं, बल्कि यह राष्ट्र को रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी है.
यह नेतृत्व है. इसमें धार्मिक श्रेष्ठता और सांसारिकता भी है.शुक्रवार को एकत्र हुए लोगों को धर्म के साथ दुनिया से भी अवगत कराना चाहिए.विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए.सनसनीखेज से बचना चाहिए.टकराव से बचना चाहिए.विषय का चयन सोच-समझकर करना चाहिए, राजनीति विवाद का रूप नहीं देना चाहिए.
आज के माहौल में मुसलमानों के लिए इस उपदेश का महत्व बहुत अधिक है, लेकिन उपदेशक की भूमिका भी बहुत नाजुक हो गई है.जो लोग चाहें उन्हें उपदेश में निराशा की बात न करके संयम का संदेश देना चाहिए.
आक्रामक रवैये से बचें.नई पीढ़ी को रास्ता दिखाएं.हमारे देश में शिक्षा आज भी एक बड़ी समस्या है.इस पर ध्यान देना चाहिए.साथ ही इमामों को युवाओं को रात में सड़कों पर गश्त करने की आदत छोड़ने की सलाह देनी चाहिए.
डॉ. ज़हीर क़ाज़ी कहते हैं कि यह ज़रूरी है कि शुक्रवार के उपदेश के पहले भाग में किसी पेशेवर को भाषण दिया जाना चाहिए.साथ ही बात छोटी रखनी चाहिए. आजकल लोग मस्जिदों में जितनी तेजी से आते हैं,उतनी ही तेजी से निकल भी जाते हैं. बात व्यापक और छोटी होनी चाहिए. दिल और दिमाग को छूने वाली होनी चाहिए.
उन्होंने कहा कि हम शरीयत की रक्षा के लिए चिल्लाते हैं,लेकिन हमें शरीयत की रक्षा खुद करनी होगी. हमें अपने उपदेशों में इस बात पर जोर देना चाहिए कि हमारी माताओं और बहनों को उनका वाजिब हक मिलना चाहिए. इस मामले में देश की हालत बहुत खराब है. अपने दोषों को पहचानना भी जरूरी है.
डॉ. जहीर काजी का कहना है कि खुतबे का इस्तेमाल धार्मिक और मजहबी मामलों के साथ दुनियावी और पेशेवर पहलुओं पर रोशनी डालने के लिए किया जाना चाहिए.नैतिकता की शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण है, जो एक मुसलमान की पहचान करने में अहम भूमिका निभाती है.शिष्टाचार ही आपकी पहचान है, इसलिए उपदेश में नैतिकता के महत्व पर प्रकाश डालना जरूरी है.यह अल्लाह के रसूल की शिक्षा थी.
खुसरो फाउंडेशन के संयोजक और विद्वान डॉ. हफीजुर रहमान कहते हैं कि शुक्रवार के उपदेश की अवधारणा अपने आप में इतनी महत्वपूर्ण है कि यह संपूर्ण मानवीय मार्गदर्शन के लिए है.
समाज में कैसे रहना है, व्यापार व्यवस्था में किन नियमों का पालन करना है, एक-दूसरे से बातचीत करते समय किन नियमों को ध्यान में रखना है यानी शुक्रवार का उपदेश हर चीज के मार्गदर्शन के लिए है.
इस्लामिक युग में ऐसा होता था कि सरकार की ओर से एक दिशानिर्देश होता था या खलीफाओं के समय में एक दिशानिर्देश होता था.कैसे आगे बढ़ना है,इसका पूरा मार्गदर्शन उसमें निहित होता था.अतः वर्तमान उपदेश प्रणाली को उन्नत करने की आवश्यकता है.
हमारे प्रमुख विद्वानों और केंद्रीय संस्थानों और संगठनों को एक साथ बैठकर एक ऐसा गाइड लाइसेंस तैयार करना चाहिए जो पूरे देश में इमामों को अपने संबंधित संप्रदाय के लोगों को सोशल मीडिया या ईमेल के माध्यम से दिशानिर्देश भेज सके.
व्यापार में आत्मनिर्भर कैसे बनें, शिक्षा, स्वच्छता में कैसे आगे बढ़ें, इस्लाम में अर्धविश्वास किसे कहते हैं, अपने पड़ोस में अपनी बस्तियों की देखभाल कैसे करें, अपनी सभ्यता को एक आदर्श सभ्यता कैसे बनाएं.इसे भी खुतबे में बताना चाहिए.