राकेश चौरासिया
खान अब्दुल गफ्फार खान को ‘सरहदी गांधी’ और 'बाचा खान' के नाम से भी जाना जाता है. वे एक भारतीय-पश्तून स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने अहिंसक विरोध के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी. वह एक महान शांतिवादी थे. साथ ही हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे.
‘भारत रत्न’ से सम्मानित खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फरवरी 1890 को उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (वर्तमान पाकिस्तान) के पेशावर जिले में हुआ था. वह एक पश्तून परिवार से ताल्लुक रखते थे. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त की. बाद में, उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, लेकिन जल्द ही उन्हें अंग्रेजों के विरोध में छात्रों के प्रदर्शन में शामिल होने के कारण निष्कासित कर दिया गया.
1929 में, खान अब्दुल गफ्फार खान ने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक एक संगठन की स्थापना की. यह संगठन अहिंसक विरोध के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ता था. खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने जीवन में कई बार जेल की सजा का सामना किया.
खान अब्दुल गफ्फार खान एक महान शांतिवादी थे. उन्होंने महात्मा गांधी की तरह, हमेशा अहिंसक प्रतिरोध के सिद्धांत का समर्थन किया. वह एक महान समाज सुधारक भी थे. उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण काम किए.
हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक
खान अब्दुल गफ्फार खान हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने हमेशा हिंदू और मुस्लिमों के बीच भाईचारे और सौहार्द को बढ़ावा दिया. उन्होंने कहा था, ‘‘हिंदू और मुसलमान एक ही परिवार के सदस्य हैं. हमें एक साथ रहना चाहिए और एक साथ काम करना चाहिए.’’
खान अब्दुल गफ्फार खान की हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए लड़ाई आज भी प्रासंगिक है. आज भी भारत में हिंदू और मुस्लिम के बीच तनाव दिखता है. ऐसे में खान अब्दुल गफ्फार खान के विचार और सिद्धांत हमें हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए एक नई दिशा प्रदान कर सकते हैं.
खान अब्दुल गफ्फार खान ने हमेशा हिंदू और मुस्लिमों के बीच भाईचारे और सौहार्द को बढ़ावा दिया. वे एक सच्चे इंसान थे. उन्होंने हमेशा सभी धर्मों और समुदायों के लोगों के साथ समान रूप से व्यवहार किया. उन्होंने हिंदू और मुस्लिमों के बीच शांति और सद्भाव के लिए काम किया. उन्होंने हिंदू और मुस्लिमों के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया. उन्होंने हिंदू और मुस्लिमों के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा दिया.
सांप्रदायिक दंगे और खान अब्दुल गफ्फार खान
एक बार का वाकया है. 1930 में, जब उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, तो खान अब्दुल गफ्फार खान ने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच शांति स्थापित करने के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने दोनों समुदायों के लोगों को शांत रहने और हिंसा का सहारा न लेने की अपील की. उन्होंने घायलों की मदद की और दंगों से बेघर हुए लोगों को आश्रय प्रदान किया. उनके प्रयासों से हिंसा को बढ़ने से रोका जा सका और शांति बहाल हो सकी.
विभाजन का विरोध
खान अब्दुल गफ्फार खान ने हिंदू-मुस्लिम के आधार पर विभाजन का कड़ा विरोध किया था. कुछ राजनेताओं द्वारा उनके उदार रुख के लिए उन पर हमला किया गया, क्योंकि उनका मानना था कि वह मुस्लिम विरोधी थे. इसके परिणामस्वरूप उन्हें 1946 में पेशावर के अस्पताल में भर्ती कराया गया. 21 जून, 1947 को, विभाजन से ठीक सात सप्ताह पहले, बन्नू में एक लोया जिरगा (पश्तून भाषा में स्थानीय सभा) आयोजित की गई थी, जिसमें बाचा खान, खुदाई खिदमतगार, प्रांतीय विधानसभा के सदस्य और अन्य आदिवासी प्रमुख शामिल थे. इस जिरगा में, बन्नू संकल्प घोषित किया गया था, जहां यह कहा गया था कि पश्तून लोगों को ब्रिटिश भारत के सभी पश्तून क्षेत्रों को शामिल करते हुए पश्तूनिस्तान के एक स्वतंत्र राज्य का विकल्प दिया जाना चाहिए. अंग्रेजों ने इस अनुरोध पर विचार करने से भी इनकार कर दिया, क्योंकि इससे अंग्रेजों की योजना गंभीर रूप से खतरे में पड़ जाती.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने विभाजन से बचने के अंतिम प्रयासों, जैसे कैबिनेट मिशन योजना और जिन्ना को प्रधानमंत्री का पद देने के गांधी के सुझाव को अस्वीकार कर दिया. इस वजह से बाचा खान को पाकिस्तान और भारत दोनों के हाथों विश्वासघात का बड़ा अहसास हुआ. उन्होंने गुप्त रूप से महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी से कहा कि ‘‘आपने हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया है.’’
खैबर पख्तूनख्वा के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल कय्यूम खान कश्मीरी पश्तूनों के बीच बाचा खान की लोकप्रियता से नाराज थे और इसे कम करने की कोशिश कर रहे. बच्चा खान ने 8 मई 1948 को पाकिस्तान की पहली राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी ‘पाकिस्तान आजाद पार्टी’ का गठन किया, जो अपनी प्रकृति में रचनात्मक और विचारधारा में गैर-सांप्रदायिक थी. लेकिन उनकी निष्ठा पर संदेह लगातार बना रहा और उन्हें 1948 से 1954 तक बिना किसी आरोप के घर में नजरबंद रखा गया.
खान अब्दुल गफ्फार खान की 1988 में पेशावर में नजरबंदी के दौरान मृत्यु हो गई. उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया. उनके अंतिम संस्कार में 200,000 लोग शामिल हुए और इसमें अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह भी शामिल थे. पश्तूनों के बीच उनकी प्रतिष्ठा इतनी थी कि अंतिम संस्कार की अनुमति देने के लिए अफगान गृह युद्ध में संघर्ष विराम की घोषणा की गई थी. वे एक मजबूत व्यक्ति थे. उन्होंने अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी.