कैफ़ी आज़मी ने अदब के ज़रिए लड़ी हक़, हुक़ूक़ की लड़ाई

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 28-05-2024
Kaifi Azmi fought for rights through Adab
Kaifi Azmi fought for rights through Adab

 

-ज़ाहिद ख़ान

क़ैफी आज़मी उर्दू अदब के एक ऐसे अज़ीम शायर हैं, जिन्होंने अपने अदब के ज़रिए इंसान के हक़, हुक़ूक़ और इंसाफ़ की लंबी लड़ाई लड़ी.मुल्क की सांझा संस्कृति को अवाम तक पहुंचाया.क़ैफी आज़मी बचपन से ही शायरी करने लगे थे.ग्यारह साल की उम्र में लिखी गयी उनकी पहली ग़ज़ल को आगे चलकर ग़ज़ल गायिका बेगम अख़्तर ने अपनी मख़मली आवाज़ दी.'इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े/हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े/जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म/यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े.'

यह ग़ज़ल उस ज़माने में ख़ूब मक़बूल हुई.शायरी की ओर उनका रुझान कैसे हुआ, यह कैफ़ी की ही ज़ुबानी, ‘मैंने जिस माहौल में जन्म लिया, उसमें शायरी रची-बसी थी, पूरी तरह। मसलन मेरे पांच भाइयों में से तीन बड़े भाई बाक़ायदा शायर थे.मेरे वालिद ख़ुद शायर तो नहीं थे, लेकिन उनके शायरी का ज़ौक़ बहुत बुलंद था और इसकी वजह से घर में तमाम उर्दू, फ़ारसी के उस्तादों के दीवान मौजूद थे, जो उस वक़्त मुझे पढ़ने को मिले, जब कुछ समझ में नहीं आता था.

जिस उम्र में बच्चे आम तौर पर ज़िद करके, अपने बुजुर्गान से परियों की कहानियां सुना करते थे, मैं हर रात ज़िद कर के अपनी बड़ी बहन से मीर अनीस का कलाम सुना करता था.उस वक़्त मीर अनीस का कलाम समझ में तो ख़ाक आता था, लेकिन उसका असर दिल-ओ-दिमाग़ में इतना था कि जब तक मैं दस-बारह बन्द उस मरसिए के रात को न सुन लेता था, तो मुझे नींद नहीं आती थी.इन हालात में मेरी ज़हनी परवरिश हुई और इन्हीं हालात में शायरी की इब्तिदा हुई.’

बावजूद इसके कैफ़ी आज़मी के घरवाले चाहते थे परिवार में एक मौलवी हो, लिहाज़ा उन्हें लखनऊ के मशहूर ‘सुल्तानुल मदारिस’ में पढ़ने के लिए भेजा गया.लेकिन कैफ़ी तो कुछ और करने के लिए बने थे.हुआ क्या ? ये अफ़साना निगार आयशा सिद्दक़ी के अल्फ़ाज़ों में, ‘कैफ़ी साहब को सुल्तानुल मदारिस भेजा गया कि फ़ातिहा पढ़ना सीखेंगे.लेकिन कैफ़ी साहब वहां से मज़हब पर ही फ़ातिहा पढ़कर निकल आए.’

मौलवी बनने का ख़याल भले ही कैफ़ी ने छोड़ दिया, लेकिन अपनी पढ़ाई जारी रखी और प्राइवेट इम्तिहानात देकर उर्दू, फ़ारसी, और अरबी की कुछ डिग्रियां हासिल की.किसी कॉलेज में सीधे एफ. ए. में दाख़िला लेकर वे अंग्रेज़ी पढ़ना चाहते थे, लेकिन सियासत और शायरी का ज़ुनून उनके सिर इतना चढ़ा कि पढ़ाई पीछे छूट गई.

अली अब्बास हुसैनी, एहतेशाम हुसैन और अली सरदार जाफ़री की संगत में कैफ़ी आज़मी ने मार्क्सवाद का ककहरा सीखा.बाद में ट्रेड यूनियन राजनीति से जुड़ गए.ट्रेड यूनियन की राजनीति के सिलसिले में ही कानपुर जाना हुआ.कपड़ा मिल और चमड़ा कारख़ानों की मज़दूर यूनियनों से जुड़कर कैफ़ी आज़मी ने मज़दूरों-कामग़ारों के शोषण और गरीबी को क़रीब से देखा.

 सरमायेदारों का हक़ीक़ी किरदार जाना.यही तजरबात उनकी शायरी में नुमायां हुए.मज़दूर और किसानों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर उन्होंने उस वक़्त कई शानदार नज़्में लिखीं.‘आख़िरी इम्तिहां’, ‘सुर्ख़ जन्नत’, ‘मौजूदा जंग और तरक़्क़ीपसंद अनासिर’, ‘रूसी औरत का नारा’, ‘जे़ल के दर पर’, ‘किरन’, ‘नए ख़ाके’, ‘औरत’, ‘मकान’, ‘मुगालता’, ‘तुम मुहब्बत को छिपाती क्यों हो ?’ जैसी इंक़लाबी नज़्में और लंबी मसनवी ‘ख़ानाजंगी’ इसी दरमियान लिखी गईं.

 यह सारी नज़्में उनकी पहली किताब ‘झनकार’ में शामिल हैं.'दौड़कर डाल गया गले में हार, फिर शरमा गई/मादर—ए—हिंदोस्तां के रुख़ पे सुर्ख़ी छा गई/कह उठा 'कैफ़ी' हर इक ज़र्रा बसद क़हर—ओ—अताब/इन्क़िलाब—ओ—इन्क़िलाब—इन्क़िलाब—ओ—इन्क़िलाब.

‘क़ौमी जंग’ और ‘नया अदब’ जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कैफ़ी आज़मी की शुरुआती नज़्में और ग़ज़लें प्रकाशित हुईं.रूमानियत और ग़ज़लियत से अलग हटकर, उन्होंने अपनी नज़्मों-ग़ज़लों को समकालीन समस्याओं के सांचे में ढाला.कैफ़ी आज़मी का दौर वह दौर था, जब पूरे मुल्क में आज़ादी की लड़ाई फ़ैसला—कुन मोड़ पर थी.

 मुल्क में जगह-जगह अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहे थे.किसानों और कामगारों में एक गुस्सा था, जिसे एक दिशा प्रदान की तरक़्क़ीपसंद तहरीक ने.इस तहरीक से जुड़े सभी अहम शायरों की तरह कैफ़ी आज़मी ने भी अपनी नज़्मों से प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद की.किसानों और कामगारों की सभाओं में वे जब अपनी नज़्म पढ़ते, तो लोग आंदोलित हो जाते थे.ख़ास तौर से जब वे अपनी डेढ़ सौ अश'आर की मस्नवी ‘ख़ानाजंगी’ सुनाते, तो हज़ारों लोगों का मजमा इसे दम साधे सुनता रहता.

'निशानात—ए—सितम थर्रा रहे हैं/हुकूमत के अलम थर्रा रहे हैं/ग़ुलामी के क़दम थर्रा रहे हैं/गुलामी अब वतन से जा रही है/उठो, देखो वो आंधी आ रही है.'(नज़्म—'आंधी')

एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता के तौर पर साल 1943में जब कैफ़ी आज़मी मुम्बई पहुंचे, तब उनकी उम्र महज़ तेईस साल थी.उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मुम्बई इकाई नई-नई क़ायम हुई थी.वे पार्टी के हॉल टाईमर के तौर पर काम करने लगे.पार्टी के दीगर कामों के अलावा उर्दू दैनिक 'क़ौमी जंग' और 'मज़दूर मुहल्ला' के एडिटोरिअल डिपार्टमेंट में उन्होंने अलग—अलग ओहदे संभाले.

इस दरमियान कैफ़ी आज़मी ने उर्दू अदब की मैगज़ीन 'नया अदब' का भी सम्पादन किया.मज़दूरों के उन्होंने कई संगठन बनाये.प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा के कार्यक्रमों एवं बैठकों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की. पार्टी कम्यून में कैफ़ी आज़मी का एक कमरे का छोटा सा घर, ऑफ़िस भी हुआ करता था.

जहां हमेशा यूनियन लीडरों और पार्टी कार्यकर्ताओं का जमघट लगा रहता.कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने के बाद कैफ़ी आज़मी का आंदोलन से वास्ता आख़िरी सांस तक बना रहा.साम्यवादी नज़रिए का ही असर है कि उनकी सारी शायरी में प्रतिरोध का सुर बुलंद मिलता है.

 उन्होंने बर्तानवी साम्राजियत, सामंतशाही, सरमायेदारी और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ जमकर लिखा.स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भूमिगत जीवन गुज़ार चुके कैफ़ी आज़मी ने साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया.‘तरबियत‘ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं, 'मिटने ही वाला है ख़ून आशाम देव-ए-जर का राज/आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज.'

शादी होने के बाद आर्थिक परेशानियों और मजबूरियों के चलते कैफ़ी आज़मी ने मुंबई के एक व्यावसायिक अख़बार ‘जम्हूरियत’ के लिए रोज़ाना एक नज़्म लिखी.फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया.साल 1948में निर्माता शाहिद लतीफ़ की फ़िल्म ‘बुज़दिल‘ में उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी नग़मा लिखा.

 क़रीब 80 फ़िल्मों में गीत लिखने वाले क़ैफी के गीतों में ज़िंदगी के सभी रंग दिखते हैं.फ़िल्मों में आने के बाद भी उन्होंने अपने नग़मों, शायरी का मेयार नहीं गिरने दिया.सिने इतिहास की क्लासिक ‘प्यासा‘, ‘कागज़ के फूल‘ के लाजवाब नग़मे उन्ही की क़लम से निकले हैं.

 ‘अनुपमा‘, ‘हक़ीक़त‘, ‘हंसते ज़ख़्म‘, ‘पाकीज़ा‘ वगैरा फ़िल्मों के शायराना नग़मों ने उन्हें फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया.फ़िल्म ‘हीर-रांझा’ में कैफ़ी ने ना सिर्फ़ गीत लिखे, बल्कि शायरी में पूरे डायलॉग भी लिखने का कठिन काम किया.हिन्दी फ़िल्मों में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था.

 फ़िल्मों से कैफ़ी आज़मी का संबंध आजीविका तक ही सीमित रहा.उन्होंने अपनी शायरी और आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया.कैफ़ी आज़मी ने फ़िल्मों के लिए जो गीत लिखे, वे किताब ‘मेरी आवाज़ सुनो’ में संकलित हैं. साल 1973 में देश के बंटवारे पर केन्द्रित फ़िल्म ‘गर्म हवा‘ की कहानी, संवाद और पटकथा लिखने के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला.यही नहीं इसी फ़िल्म पर संवादों के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.

कैफ़ी आज़मी ‘भारतीय जननाट्य संघ’ (इप्टा) के संस्थापक सदस्य थे.उन्होंने ‘आख़िरी शमा’ और ‘ज़हर-ए-इश्क’ जैसे ड्रामे भी लिखे.वे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के ओहदे पर कई साल तक रहे.उनके कार्यकाल में इप्टा की शाखाओं का पूरे भारत में विस्तार हुआ.इप्टा को वे आम जन तक अपनी बात पहुंचाने का सार्थक और सरल तरीक़ा मानते थे.

 कैफ़ी आज़मी की वैसे तो सभी नज़्में एक से एक बढ़कर एक हैं, लेकिन ‘तेलांगना’, ‘बांगलादेश’, ‘फ़रघाना’, ‘मास्को’, ‘औरत’, ‘मकान’, ‘बहूरूपिणी’, ‘दूसरा वनबास’, ‘ज़िंदगी’, ‘पीरे-तस्मा-पा’, ‘आवारा सज़्दे’, ‘इब्ने मरियम’, 'नई जन्नत' और ‘हुस्न’ नज़्मों का कोई जवाब नहीं.'

नये हिंदोस्तां में हम नई जन्नत बसाएंगे/तड़प देकर ख़स—ओ—खाशाक़ को बिजली बनाएंगे/कोई आवाज़ दे दे अतिश—अफ़शां चांद तारों को/कि अब ख़ाक—ए—वतन के झुलसे ज़र्रे जगमगाएंगे।'(नज़्म—'नई जन्नत') क़ैफी आज़मी को उर्दू अदब मे सबसे ज़्यादा पुरस्कार पाने वाला शायर माना जाता है.

 'पद्मश्री' कैफ़ी को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी द्वारा ‘संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार’, ‘महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘युवा भारतीय पुरस्कार’, विश्व भारती यूनिवर्सिटी से ‘डी लिट्’ की उपाधि के अलावा कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से भी नवाज़ा गया.साल 1973 में कैफ़ी आज़मी को लकवा मार गया.

 लकवे से उनका आधा जिस्म बेजान हो गया, लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया.ज़िंदगी के आख़िर तक वे अपने लोगों की बेहतरी के लिए काम करते रहे.10 मई, 2002 को उन्होंने इस दुनिया से अपनी विदाई ली.