संघप्रिया मौर्य
“हमारा ये पुश्तैनी काम है दादा-परदादा के समय से चलता आया है. आज पूरा परिवार इसी काम में लगा है, ताकि ये कला आगे बढ़े और हम तरक्की की राह पर चलते रहे.” पिछले 15 सालों से हाथ से बुने कार्पेट के हुनर को देश के कोने-कोने तक पहुंचाने में लगे वसीम बड़ी सादगी से अपनी बात रखते हैं.
उनके यहां बने कालीनों की खासियत कश्मीरी पैटर्न के पर्शियन डिजाइन हैं, जिन्हें ग्राहक खासा पसंद करते हैं. उन्हें अपने काम के लिए 2021 में स्टेट अवार्ड मिल चुका है. इसके अलावा हुनर हाट और सूरजकुंड जैसे मेलों में भी उनके बेहतर डिजाइन और बिक्री के लिए भी सराहा गया है.
शौकिया तौर पर अपनाया
वसीम तकरीबन 14-15 साल पहले अपनी पढ़ाई छोड़ शौकिया तौर पर कारपेट उद्योग से जुड़े थे. उन्होंने अपने दादा और फिर पिता को इस काम में मशगूल होते देखा था. वो दिन-रात मेहनत करके हैंड नॉटेड कार्पेट के लिए नए-नए डिजाइन तैयार करते और आस-पास के शहरों तक पहुंचाते. लेकिन ज्यादा मुनाफा नहीं था. बस किसी तरहघर की जरूरतें पूरी हो पा रहीं थीं.
वसीम का मन पढ़ाई में नहीं लगता था. दरअसल पर्शियन कार्पेट बुनने की बारीक कला उन्हें बेहद कम उम्र से ही अपनी ओर खींचने लगी थी. वह हाईस्कूल पास कर चुके थे. उन्होंने एक दिन फैसला किया कि अब वह आगे पढ़ाई नहीं करेंगे. पिता ने काफी समझाया कि इस कारोबार में इतना पैसा नहीं है. मगर वह नहीं माने. उन्होंने अपने पुश्तैनी काम के साथ आगे बढ़ने का रास्ता ही चुना.
तलाशे नए रास्ते
शुरुआत में पिता के साथ जुड़े. काफी मेहनत की. कभी नुकसान होता, तो कभी मुनाफा. उन्हें जल्द ही अहसास हो गया कि अगर इस कला के साथ आगे बढ़ना है, तो पुराने ढर्रे पर चलने से काम नहीं चलेगा. वह नए रास्ते तलाशने लगे.
उन्होंने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर अपना हाथ आजमाया. अमेजॉन और फ्लिपकार्ट तक अपनी पहुंच बनाई. सरकारी मदद से एक्सपो, हुनर हाट और कई मेलों में शामिल होकर अपने हुनर को लोगों तक पहुंचाया और धीरे-धीरे तरक्की की राह पर आगे बढ़ने लगे. आज वसीम के पास एक कारखाना है, जिसमें 12 से ज्यादा कारीगर काम करते हैं. उनकी सालाना आमदनी 10 से 12 लाख है.
उन्होंने कहा, ‘‘एक कालीन से काफी लोगों को रोजगार मिलता है. धागे की रंगाई, कताई से लेकर बुनाई तक कई तरह के कारीगरों की जरूरत पड़ती है. और फिर फिनिशिंग के काम के लिए भी तमाम आदमी लगते हैं. आप इस कला को महज कुछ लोगों तक सीमित करके नहीं देख सकते हैं.
एक कालीन बनाने में लगते हैं कई महीने
वसीम ने बताया कि कालीन बनाने के लिए कई अलग-अलग जगहों से सामग्री मंगाई जाती है. एक बेहतर दर्जे के कालीन के लिए न्यूजीलैंड से आयातित ऊन काम में लाई जाती है, तो सामान्य कार्पेट के लिए आसपास के इलाकों से ऊन की सप्लाई होती है. पहले ऊन की कताई की जाती है और उसके बाद रंगाई. कार्पेट पर उकेरे जाने वाले डिजाइन को पहले कागज पर तैयार किया जाता है.
वसीम ने बताया कि हाथ से बने कार्पेट को बनाने में जहां 10 से 12 दिन लगते हैं. वहीं मशीन से बना कार्पेट तीन-चार दिनों में तैयार हो जाता है. कई बार तो हैंड नॉटेड कार्पेट को तैयार करने में महीनों लग जाते हैं. दरअसल कार्पेट पर की गई कारीगरी के हिसाब से समय लगता है.
एक नॉर्मल साइज कार्पेट की कीमत 800 से लेकर 2500 रुपये तक है. कार्पेट पर किए गए काम के हिसाब से कीमत 10 से 15,000 तक भी पहुंच जाती है. पर्शियन कार्पेट सबसे महंगे होते हैं. ये कालीन गांठों पर बनते हैं. जितनी सघन या बारीक गांठ होगी, उतनी ही ज्यादा कीमत और लाइफ होगी. क्योंकि ज्यादातर कार्पेट ऊन से बने बने होते हैं. इसलिए ज्यादा मांग सर्दी के दिनों में ही होती है. बाकी के छह महीने धंधा बहुत मंदा रहता है.
भदोई बनी है कालीन नगरी
वसीम बताते हैं, ‘‘भदोही कालीन नगरी के नाम से लोकप्रिय है. यहां के हैंड नॉटेड कालीनों की काफी मांग है. हाथ से बनाए जाने और इनके बेहतरीन डिजाइन देश- विदेश से लोगों को आकर्षित करते हैं.’’ इतिहास में झांक कर देखें, तो पता चलेगा कि 250 साल पहले ईरान से जब कुछ यात्री भारत आए, तो वे अपने साथ वहां बने खूबसूरत गलीचे और उन्हें बनाने वाले कारीगर साथ लाए थे.
भदोही आकर उन्होंने इस कला को यहां के लोगों को भी सिखाया. आज अमेरिका जर्मनी ऑस्ट्रेलिया आदि जगहों पर मशीन से कार्पेट तैयार किए जाते हैं लेकिन हैंड मेड हैंड नॉटेड कार्पेट सिर्फ कुछ ही जगहों पर बनते है जिसमें ईरान, पाकिस्तान और भारत का भदोही और कश्मीर शहर शामिल है.
दरअसल हाथ से बने गलीचों की कारीगरी और मजबूती ही इसकी खासियत है जो लोगों को अपनी ओर खींचती है. यही वजह है कि भदोही में गलीचे बनाने के 200 से ज्यादा कारखाने मौजूद हैं. लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं.
ठीक इसी तरह इस कारोबार से जुड़े लोगों को फायदे के साथ-साथ अन्य तमाम परेशानियों से भी जूझना पड़ता है. वसीम बताते हैं कि हैंड नॉटेड काम अब लुप्त होने के कगार पर है क्योंकि नए लोग काम नहीं सीख रहे हैं. दरअसल यह मेहनत का काम है लेकिन पैसा उतना नहीं है.
सरकार से मिलती है मदद
वसीम ने बताया कि उनके जैसे कारीगरों को सरकार की तरफ से काफी सहायता मिलती है. कम ब्याज पर लोन जैसी कई सहूलियतें हैं और साथ ही राज्य स्तर पर लगने वाले हुनर हाट, सूरजकुंड आदि मेलों में जाने की सुविधा भी दी जाती है.
इससे उन्हें अपने काम को देश के कई हिस्सों में पंहुचाने का अवसर मिलता है. वह कहते हैं, ‘ऐसे मेलों में अक्सर साल भर का प्रॉफिट हो जाता है. लोगों को काम काफी पसंद आता है और ग्राहकों से सीधा संवाद करने का अवसर मिलता है.”
लेकिन उनका मानना है कि इतना काफी नहीं है. इस कला की पुरानी बारीकी और हुनर को बचाने के लिए सरकार को और भी कदम उठाने होंगे. सरकार की तरफ से कुछ सेंटर खोले जाने चाहिए ताकि नई पीढ़ी पढ़ाई के साथ-साथ इस कला को सीख सकें. क्योंकि इस व्यवसाय में आने वाले ज्यादातर नई पीढ़ी जानकारी न होने और इस काम में लगने वाली मेहनत की वजह से मशीनों की तरफ रुख करती जा रही है. हाथ के काम के कारीगर और हुनर दोनों लुप्त होते जा रहे हैं.
अब नहीं बनते मुश्किल डिजाइन
वसीम ने बताया अब पहले की तरह मुश्किल डिजाइन नहीं बन पाते हैं, क्योंकि नए लोग सीख नहीं रहे हैं और पुरानों में अब काम करने की ताकत नहीं बची है. वसीम ने बताया कि उनके हमउम्र परिवार के बुजुर्ग सदस्य अभी भी इसी काम से जुड़े हैं. लेकिन नई पीढ़ी इससे दूर होती जा रही है. इसकी बस एक ही वजह है.
उन्हें इस बिजनेस में ज्यादा फायदा नजर नहीं आता है. लेकिन वसीम इसकी ज्यादा परवाह नहीं करते हैं. वह आज भी उतनी शिद्दत से इस कारोबार के साथ जुड़े हैं. उनका इरादा अपने इस कारोबार को विदेशों तक फैलाने का है. तमाम मुश्किलों को झेलते हुए भी वह अपने कारोबार और पुरानी लुप्त होती जा रही इस कला को नई ऊंचाइयों तक ले जाना चाहते है.