अमरोहा से कराची तक: जॉन एलिया की भांजी हुमा रिज़वी ने साझा किए उनकी शायरी का सफरनामा

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 29-04-2025
Exclusive conversation with Huma Jamal Rizvi, niece of famous poet John Elia
Exclusive conversation with Huma Jamal Rizvi, niece of famous poet John Elia

 

ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली  

जवान धड़कनों पर आज भी जॉन एलिया की शायरियां राज करतीं हैं जिसके कारण लोग समझते हैं कि वे बेहद रूमानी किस्म के शख्स रहे होंगें लेकिन हकीकत में वो बेहद संजीदा आदमी थे हां वो बात अलग है कि मेरे कहने पर खेल खेल में वे घोडा भी बन जाया करते थे, ये बात हमें जॉन एलिया की सगी भांजी हुमा रिज़वी ने बताई. 

मैं जो हूँ 'जौन-एलिया' हूँ जनाब
इस का बेहद लिहाज़ कीजिएगा
 
आवाज द वॉयस ने उनके साथ खास बातचीत की और जाना कि कैसे वे अपने सबसे छोटे मामू के करीब थीं और कैसे जॉन एलिया के कारण ही उन्हें उर्दू से बेहद लगाव हुआ. हुमा रिज़वी, जॉन एलिया की सगी भांजी हैं. जो 12 वर्षों से देश की राजधानी की निवासी हैं. 
 
हुमा रिज़वी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. जिन्होनें अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उर्दू भाषा में एमए की डिग्री हासिल की. और फिर अपने पत्रकारीता के सफर के दौरान वे दूरदर्शन लखनऊ के साथ जुडी. जहां उन्होनें रिपोर्टिंग और एंकरिंग के माध्यम से लोगों को जानकारियां दीं. हुमा रिज़वी के कुछ खास प्रोग्राम्स के नाम हैं अवध पंच, उर्दू प्रोग्राम आदि. इसके साथ ही हुमा रिज़वी ने आकशवाणी लखनऊ पर भी कई सांस्कृतिक प्रोग्राम्स होस्ट किए जो उर्दू भाषा में थे.
 
हुमा रिज़वी ने बताय कि वे बहुत छोटी थी जब स्वास्थ्य कारणों के चलते अमरोहा से उनके मामाजान जॉन एलिया पाकिस्तान के कराची चले गए. लेकिन वे अक्सर हुमा से लखनऊ में मिलने आते थे. 
 
मामू जॉन एलिया से प्रेरित हुमा रिज़वी 

हुमा रिज़वी ने आवाज द वॉयस को बताया कि उन्हें बचपन से अदीबों और शायरों की महफिलें अपने घर में देखने को मिली जिसके कारण उन्हें उर्दू भाषा से भी काफी लगाव हो गया. वे बचपन में अपने खत मामू को उर्दू में लिखकर भेजती थी. 
 
 
जॉन एलिया ने हुमा रिज़वी के लिए लिखें पांच गाने 

हुमा रिज़वी ने बताया कि जॉन एलिया को छोटे बच्चों से काफी लगाव था जब भी लखनऊ आते थे वे हम सब के साथ छोटे बच्चें ही बन जाते थे हम उन्हें खेल खेल में घोडा भी बना देते थे और वे भी हमसे काफी प्यार करते थे. उन्होनें मेरे लिए पांच गाने  भी लिखें थे. 
 
पाकिस्तान में रहकर भी हिंदुस्तान में रचे-बसे रहे जाॅन एलिया 

हुमा रिज़वी ने बताय कि दुनिया के प्रख्यात शायरों में शुमार जाॅन एलिया कराची में रहकर भी हिंदुस्तान में रचे-बसे रहे. उनकी शायरी में भी अमरोहा से बिछड़ने की टीस झलकती है. अमरोहा का मुहल्ला लकड़ा की गलियां शायर जाॅन एलिया की अनगिनत यादें समेटे हैं. 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्मे जाॅन एलिया अमरोहा पहुंचते ही सबसे पहले यहां की मिट्टी को माथे पर लगाकर सजदे करते थे. उनकी भांजी हुमा बताती हैं कि भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत होकर ही उन्होंने ऋषि-मुनियों की तरह अपने बाल बढ़ा लिए थे.
 
हम तो जैसे यहां के थे ही नहीं,
धूप के थे सायबां के थे ही नहीं.

अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकान के थे ही नहीं.

उस गली ने सुन के ये सब्र किया,
जाने वाले इस गली के थे ही नहीं. 
 
हुमा ने बताया कि उनके चार मामा में जाॅन एलिया सबसे छोटे थे. बड़े मामा रईस अमरोहवी व सैयद मोहम्मद तकी दिल्ली में जंग अखबार में कार्यरत थे. बंटवारा होते ही यह अखबार करांची चला गया. इसके चलते जाॅन एलिया को छोड़कर तीनों मामा करांची चले गए. पिता सैयद शफीक हसन एलिया की मौत व बहन साहे जना नजफी की शादी के बाद जाॅन अकेले रह गए.
 
इसी दौरान उनकी तबीयत काफी बिगड़ गई. इलाज के लिए उनके भाईयों ने उन्हें करांची बुला लिया. इसके बाद न चाहते हुए भी जाॅन एलिया वहीं बस गए. वह हर वर्ष अमरोहा आते थे, ट्रेन से उतरते ही स्टेशन की मिट्टी को चूमकर माथे से लगाते थे. अमरोहा में अपने स्वागत से चिढ़ते थे, कहते थे कि स्वागत तो मेहमान का होता है, वह तो यहीं के हैं. इसी को लेकर उन्होंने शायरी गढ़ी थी- 
 
मिलकर तपाक से हमें न कीजिए उदास, 
खातिर न कीजिए कभी हम भी यहां के थे.  
 
हुमा ने बताया कि जॉन मामू सरहद के पार बैठकर अमरोहा का इश्किया अनहद गाया करते थे. उन्हें मुसलसल गंगा और यमुना की धारा आवाज़ देती थी वो उनकी सदाओं को अपनी मजबूरी की साज़ पर गुनगुना लिया करते थे. उनकी गुनगुनाहट एक गुनगुनी आहट की शक्ल में हमारे दर पर दस्तक देती है और हम उस पिछड़े यार, महबूब शायर जौन एलिया की सदाओं में डूब जाते हैं. एलिया गंगा यमुना से अपना दर्द भी ग़ज़ल में ही कहते थे.
 
मत पूछो कितना ग़मगीन हूं, गंगा जी और यमुना जी,
ज्यादा तुमको याद नहीं हूं, गंगा जी और यमुना जी.

अपने किनारों से कह दीजो आंसू तुमको रोते हैं,
अब मैं अपना सोग-नशीं हूं, गंगा जी और यमुना जी.

अब तो यहां के मौसम मुझसे ऐसी उम्मीदें रखते हैं,
जैसे हमेशा से मैं तो यहीं हूं, गंगा जी और यमुना जी.

अमरोहा में बान नदी के पास जो लड़का रहता था,
अब वो कहां है? मैं तो वही हूं, गंगा जी और यमुना जी. 
 
जॉन एलिया के कमरे की हालत और हुमा की सफाई 

हुमा ने बताया कि जब वह 12 साल की थीं तभी जाॅन एलिया से मिलने करांची पहुंची थीं. मामा का कमरा बेतरतीब पड़ा था, मेज पर धूल, कापी-किताबें व पन्ने बिखरे पड़े थे. उन्होंने कमरे की सफाई कर कापी-किताबों को व्यवस्थित कर दिया. हुमा यह सोंचकर खुश थीं कि कमरा देखकर मामा खुश हो जाएंगे. 
 
वह बताती हैं कि रात में जब मामा अपने कमरे में घुसे वहां का नजारा देखकर चीख पड़े. अपनी बहन से बोले- नजफी तुम्हारी बच्ची ने हमें तबाह कर दिया. हुमा ने बताया कि जो धूल उन्होंने साफ की थी, उस पर ही मामा ने कई जरूरी फोन नो. और कई शायरी लिख रखी थीं.
 
बान नदी पर बिताते थे घंटों समय

हुमा ने बताया कि जब जॉन अमरोहा आते थे तो बान नदी पर घंटों समय बिताते थे. करांची में समुद्र तट पर बैठकर उन्होंने शायरी की थी- इस समंदर पे तृष्णाकाम हूं मैं, बान तुम अब भी बह रही हो क्या. इसी तरह अमरोहा पहुंचने पर लिखा था-
 
इस गली ने यह कहकर सब्र किया,
जाने वाले यहां के थे ही नहीं.
 
अब हमारा मकान किसका है,
हम तो अपने मकां के थे ही नहीं.

लखनऊ से भी गहरा रिश्ता

हुमा ने बताया कि लखनऊ स्थित इंदिरा नगर में अपने पति सैयद अख्तर जमाल रिजवी के साथ रहती थीं. पति नेशनल हैंडलूम कार्पोरेशन में वित्त निदेशक थे. जाॅन एलिया हुमा से मिलने लखनऊ आते थे, तो कई-कई दिन यहां रहते थे. 
 
 
 
शायर ने ऋषि-मुनियों की तरह अपने बाल बढ़ा लिए थे

हुमा ने बताया कि एक बार मामा के बेतरतीब लंबे-लंबे बालों पर कंघी करनी चाही तो उन्होंने यह कहकर रोक दिया कि इन जटाओं को मत सुलझाओ ये हमारे हिंदुस्तान के ऋषियों की वेशभूषा का प्रतीक हैं. हुमा बताती हैं कि लोगों के आग्रह पर उन्होंने पहला काव्य संग्रह 'शायद' प्रकाशित कराया. इसके बाद उनके कई संग्रह गोया, लेकिन, यानी और गुमान प्रकाशित हुए.
 
जो गुजारी न जा सकी हमसे,
हमने वो जिंदगी गुजारी है.
 
मजहबी से रूमानी शायरियों तक का सफर 
 
हुमा ने बताया कि जॉन एलिया जितने अजीब थे उनकी ख्वाहिशें उससे ज्यादा अजीब थीं. वो बचपन में अब्बा से कहते थे ‘अब्बा मैं कभी बड़ा नहीं होना चाहता. पर अपने जीते जी और मरने के बाद भी वो मुसलसल बड़े और बड़े होते जा रहे हैं. यही कारण है कि आज के युवाओं को जॉन एलिया की शायरियां काफी पसंद हैं. 
 
शायद मुझे किसी से मुहब्बत नहीं हुई,
लेकिन यकीन सबको दिलाता रहा हूं मैं. 
 
जौन एलिया की कविताएँ आज के युवाओं के सामने आने वाली कई चुनौतियों और भावनाओं को बयां करती हैं. उदासी, एकतरफ़ा प्यार और जीवन के बारे में गहरे विचारों से भरी उनकी रचनाएँ हमारे समय की जटिल भावनाओं को आईना दिखाती हैं.
 
जौन एलिया की कविताएँ अपनी गहरी उदासी के लिए जानी जाती हैं. आज की दुनिया में, जहाँ मानसिक स्वास्थ्य के बारे में चर्चाएँ आम होती जा रही हैं, अकेलेपन और निराशा के बारे में एलिया की ईमानदार अभिव्यक्तियाँ कई युवाओं को प्रभावित करती हैं. इन भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करने की उनकी क्षमता पाठकों को समझा हुआ और कम अकेला महसूस कराती है. 
 
क्या कहा आज जन्मदिन है मेरा,
जौन तो यार मर गया कब का.