रानी खानम देश की आजादी के बाद की पहली मुस्लिम कथक डांसर हैं. उन्होंने इस शास्त्रीय नृत्य के प्रति अपने प्रेम को काफी आगे बढ़ाया है. रानी खानम मूल रूप से बिहार के गोपालगंज की रहने वाली हैं. और शुरू से ही उन्हें कथक से बहुत प्यार था. उन्होंने अपनी नृत्य प्रस्तुतियों को सूफीवाद और अध्यात्म से जोड़ा है और इसके साथ ही समाज के कई मुद्दों को भी उठाया है. अपने पूरे सफर को लेकर रानी खानम के साथ आवाज- द वॉयस के एडिटर मलिक असगर हाशमी और डिप्टी एडिटर मंजीत ठाकुर ने खास बातचीत की है. पेश है उस साक्षात्कार के मुख्य अंशः
प्रश्नः नृत्य में, खासकर कथक जैसे शास्त्रीय नृत्य की ओर आपका झुकाव कैसे हुआ.खासकर बिहार हमने कई जगह ऐसा सुना कि आप छत पर आप अकेले खड़ी होती थी. खुद से बातें करती थी और फिर आपका झुकाव सूफीवाद की तरफ भी हुआ.
रानी खानम: आर्टिस्ट दो तरह के होते हैं. एक मिजाजी तौर पर, पैदाइशी होते हैं, जिसके लिए मिजाज अल्लाह ताला डालता है. रूहानियत डालती हैं. और वह हर चीज उसके कनेक्शन पावर, उसकी सोच वह बनाता रहता है.
वह बनती रहती है रास्ते में. फिर ये नहीं तय कि आप कहां पैदा हुए और आप किस समुदाय के हैं. उसमें जेंडर भी मायने नहीं रखता. सिर्फ जज्बात होते हैं. वही शक्ति होती है जो आपको लेकर आगे जाती है. दूसरी आर्टिस्ट वह होते हैं जो मिजाज तो रखते हैं पसंद करते है वह बाद में आकर वह डिग्री हासिल करते हैं और प्रोफेशनल इख्तियार करते हैं.
मुझे कोई जरा भी तअज्जुब नहीं होगा, कोई इस का भ्रम नहीं रखना चाहती कि मैं बहुत खुश नहीं होती जब मुझे बोला लिया गया कि इसे बतौर प्रोफेशन लिया जाए. मुझे ये बात अटकी लगी. इससे मुझे इससे इश्क था. और जब बारहवीं के बाद मुझे लगा कि मैं क्या करूं.
मैंने और चीजों की कोशिश भी की, पर मेरी रूह तो कहीं और थी. तब मुझे लगा, बेचैन होने लगी और इसके बगैर मैं जिंदा रह नहीं रह पाऊंगी. तब मैंने सोचा कि मेरे पास कोई चारा नहीं हैं कि मैं इसे प्रोफेशनल इख्तियार करुं. यकीन कीजिए मैंने कभी भी इसको सोचा नहीं था कि मैं इसको प्रोफेशनली करूं.
मेरा जन्म बिहार में हुआ और ऐसे वक्त में हुआ जहां पर लड़कियों को हिजाब में रखा जाता था. असल में, मुझे गाना बहुत पसंद हैं. ज्यादातर जब तन्हा रहती हूं. खुश रहती हूं तो गाती हूं और दुखी होती हूं तो गाती हूं. ये मेरी फीलिंग है जिसे मैं दुरुस्त करती रहती हूं बचपन से.
मेरे घर के सामने ही मस्जिद थी. फज्र की नमाज होती थी अजान होता था. मुझे उससे बहुत कनेक्शन था और उस समय राग देहलवी चलती है सुबह के वक्त, तो राग देहलवी तो हमारे उस्ताद के घर पर आवाज आती थी. तो कहीं न कहीं वह मुझे बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि अजान में कोई राग नहीं होता है,
अजान के आधे घंटे के बाद, वह राग, ललित राग, वह आज भी होती है. वही चीज रूहानियत में बदलती चली गई और नाच अच्छा लगता था तो बोला कि ठीक है सीखो. मगर इसे इतनी शिद्दत से सिखूंगी, घरवाले कभी सोचा भी नहीं था.
मैं भी पांच बजे उठ जाती थी और साढ़े सात बजे वहां से निकल जाते थे. स्कूल ड्रेस पहन कर चल जाती थीं. ये पुरा सिलसिल कई साल चला और रियाज शाम के वक्त, गुरु ने बोल दिया कि बेटा तुझे कुछ बनना है तो फिर रियाज करो.
उस समय कुछ समझ में नहीं आता था अब समझ में आता है. जब मैं अपने बच्चों को उतना हेल्प नहीं करती, फिर ये बातें शायद वो शिद्दत थी. अच्छा काम किया. अच्छे करने लगी तो आल इंडिया बिहार में कुछ मेडल जीतीं थीं तो चांदी का एक बहुत बड़ा शील्ड मिला साथ में 501 रुपए भी.
हमने वह शील्ड नजराने के तौर पर उस्ताद को दे दिया. वहां से मेरी ये जो सफर था ऊपर की तरफ गया और काफी लोगों ने जब नाच देखा तो कहा कि दुनिया में महाराज जी भी हैं आप उनको भी लेकर जाएं.
वैसे भी हमारे घर में तालीम को बहुत ज्यादा कमी थी. मेरे पिता नहीं थे. तो मेरी मां ने ये सोचा था कि तालीम बच्चों को देना, उस जगह का माहौल उस तरह नहीं था. तालीम के लिए अम्मी ने हमें पढाया. लेकिन नाच को जो भूत था वह गया नहीं. हम पढ़ाई में अव्वल थे, तो हमने कहा कि ठीक है. नाच के लिए इंटरव्यू हुआ तो सीधे, मैं तो पहली क्लास की थी 5वीं क्लास में डाल दिया.
डायरेक्टर ने कहा कि ये बहुत छोटी हैं इसे पांचवी क्लास में दे दिया. बहरहाल, हमने मुकम्मल तरीके से नाच सीखी और यहां से एक अलग तरीके से, यहां से सफर शुरू हुआ. फिर वजीफा भी मिला क्योंकि हाइएस्ट मार्क्स थे. उस जमाने से पैसा आने लगा.
प्रश्नः बिहार के जिस इलाके से आप आती हैं वहां इस तरह नहीं होता है. वैसे भी मुस्लिम परिवार से आप हैं तो शुरुआत में बहुत दिक्कत हुई होगी.
रानी खानम: मुझे हुज्जत ए औरंगजेबी कहा जाता था. हमारे उस्ताद कुरान पढ़ते कर सिखाते थे. जाहिर सी बात हैं कि मुसलमान के घर में कुरान की तिलावत, झुकना हो. पर मैं सवाल बहुत पूछती थी, अम्मी बोलती कि ये बाल का खाल निकालती है.
अभी भी बहुत सवाल चलते रहते हैं तो वह सवाल थे. मैं पढ़ाई में बहुत अव्वल थीं. माशाल्लाह में टॉप ग्रेड रही, अपने कॉलेज की हेडगर्ल थी. हमारी खाला थीं जो मेरे साथ रही, फिर बड़े भाई भी आ गए. तो मुश्किल से तालीम की जिंदगी चल रही थी और ये हुआ था कि वहां से शिफ्ट होंगे. ऐसे करके हमारा जो सफर था शुरु हुआ.
प्रश्नः बिरजू महाराज तक कैसे पहुंची?
रानी खानम: आई तो मैं बिरजू महाराज के पास ही, गुरु जी के पास, तो उस समय अब्बा कुछ कर रहे थे. मैं उस समय बहुत छोटी थी. क्योंकि हमें पता था कि महाराज जी सबसे बड़े आर्टिस्ट हैं. तो उन्होंने कहा कि हम ले गए, हमें देखा कि ये एग्जाम दे कर हो गई है तो उन्होंने बोला कि आपका एडमिशन तो यहां होगा. तो हमने कहा कि मैं वहां सीखेंगे तो उन्होंने कहा कि नहीं वहां बड़े बच्चों को लेते हैं.
महाराज जी तो छोटे बच्चों को नहीं लेते थे. मुकम्मल तालीम के बाद आप सीखेंगे तो आप. तो इसी लिए वहां से, हमारी जो दूसरी गुरु हुए हैं वह महाराज जी फादर हैं, बिरजू महाराज जी के जितने भी बच्चे हैं शागिर्द हैं तो वह सब रीवा दीदी से ही सीखी हैं. वह अंग बनाती थी. जब वह बच्चा अंग बन जाता था तो फिर महाराज जी के यहां आकर, तो ये ऐसा रास्ता बन कर गया.
प्रश्नः जब आप बिरजू महाराज के पास थीं उसी वक्त लगा कि हमें कथक में, सुफिज्म को जोड़ना चाहिए?
रानी खानम: नहीं लगा. बिल्कुल नहीं लगा. ये मैंने कभी सोचा भी नहीं था क्योंकि भी नहीं था और इतनी तमीज भी नहीं थीं कि सूफिज्म क्या होता है. एक सवाल आया क्योंकि कथक नृत्य में, जो हर भारतीय शास्त्र में मिलते हैं, और हमारे ये हैं कि वह, जो गंगा जमुनी तहजीब है उस गंगा जमुनी तहजीब पर कायम हैं सारी चीजें, तो क्योंकि मैं क्लासिकल क्लास डांस सिख रही थीं.
हमलोग हमेशा अजमेर शरीफ के उर्स में जाते रहे हैं, वह कवालियां, दस दस दिन तक हम रहते थे, आज भी हमारे सारे फैमिली वहीं हैं, तो वह रोज शाम को बैठना, सुनना, गाना, गीत बजाना, जो रूहानियत की बातें हैं वह घर से ही हैं. ऐसा नहीं कि अचानक आसमान से कोई रोशनी हुई और आप आ गए.
आपको बचपन से ही वह जज्ब हो रहा है अपनी चीजों को लेकर और माहौल ये भी था कि जो कवायत है बरेली शरीफ में, चिश्तिया सिलसिले से तो बड़े सरकार अजीज मियां साहब बहुत बड़े सूफी रहे हैं और हम लोग उन्हीं के, आला हजरत के हमारी अम्मी मुरीद हैं.
तो ये एक सिलसिला शुरु से है हमलोगों का, ऐसा नहीं है कि एक दिन से आया, दो दिन से आया. एक माहौल हमेशा से रहा है तो मैं जब एग्जाम दे रही थीं तो कुछ फूल तोड़ कर दिखा रही थी तो मुझसे गुरुजी ने पुछा कि ये आपने फूल तोड़ा तो, तो मैंने कहा कि जी, तो ऐसा तिलक क्यों लगाया, तो मैंने कहा कि मुझे गुरु जी ने बताया है. क्यों नहीं पता, आपको पता होना चाहिए.
मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला कि मैं मुस्लिम हूं मेरे तरीके में ये नहीं होता और मुझे पूछना चाहिए था आइंदा इसका ख्याल रखूंगी. खैर मैं वह बात कह कर बाहर निकली तो दो दिन तक मैं ये सोचती रही कि जब इबादत ही करनी है, मुझे मालूम ही करना है अपनी इबादत सीखने की बात करुं. जो मैं रोज करती हूं वह मेरा पहला सवाल उठा अपने लिए, और हमने देखा कि जब सब कुछ इबादत, भक्ति दिखाते हैं तो दोनों में फर्क किया है.
मेरा नाम रानी है तो रानी खन्ना भी हो सकता है. खानम है तो क्या फर्क पड़ता है, रूहानियत वही है. किसी को लाल पसंद है तो किसी को पीला पर कपड़े तो वहीं ढ़कता है. वहां से मेरी शुरुआत हुआ फिर गाना सीखती थी अमान अली खान साहब से, मुमताज अली खान साहब से जो अमान अली खान साहब के प्रेसिडेंट है तो बहुत सारी कंपोजिशन सीखती थीं.
कंपोजिशन सीख रही थीं मैं उन दिनों. और अचानक से मैंने देखा कि उसी कम्पोजिशन सेम बहर में, सेम मीटर में गणेश वंदना भी चल रही है. अल्फाज वही, राग वही, बहर वही, मीटर वही, ठेका वही बस अल्फाज को बदल दिया.
जैसे कव्वाली जिसे आप भजन में भी सुनते हैं. कव्वाली में ठेका वही रहता है, आजकल में बहुत चला हैं, तो खैर मैंने देखा कि ये तो बड़ी खूबसूरत बातें, दोनों एक ही हैं और दोनों जुदा भी नहीं हैं और वहां से मेरे जेहन में आया कि मैं एक प्रोग्राम जरूर करुंगी और फिर मेरा एक शो हुआ त्रिवेणी में, और उस त्रिवेणी में फिर मैंने अल्लाह ही अल्लाह जिल्लेशान अल्लाह, तू रहीम तू करीम तू गफ्फार तू सत्तार, तो मैं गाना पसंद करुंगी.
अल्लाह ही अल्लाह जिल्लेशान अल्लाह
तू रहीम तू करीम तू गफ्फार तू सत्तार
बताइए इसमें क्या बात है. तो ये आपकी रूह को छूती है. मुझे अच्छा लगता है तो मैंने यहां से शुरू की.
प्रश्नः किसी इंटरव्यू में आपने कहा कि इस्लाम का जो रूप है वह सूफीवाद है, वह कैसे है इसके बारे में लोगों को बताएं. धर्मों को लेकर, मजहबों को लेकर अपने देश में और दुनिया भर में बहुत सारी गलतफहमियां कायम हो रही हैं कायम. एक तरफ हम कह रहे हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना.
रानी खानम: सूफीवाद कोई मजहब नहीं है. मजहब से जुड़ी कोई चीज नहीं है. वह न हिन्दू से जुड़ी हुई है और नहीं मुस्लिम से. कोई बैरियर नहीं है. सूफीवाद एक बहता हुआ पानी है. जो मोहब्बत का पैगाम देता है, सुकून का देता है. अखलाक की देता है और ये हवा है. ये खुश्बू है जो ये कहता है कि हम इंसान हैं हम एक हैं.
सूफिज्म वह प्रकाश है. इबादत से आप ये समझ जाते हैं कि जब अल्लाह ने पानी में, हवा में, कायनात की किसी भी शय में अंतर नहीं रख देने में, तो हम धर्म के मामले में बांध कर कैसे अंतर रख सकते हैं. एक आर्टिस्ट जो सूफिवाद अगर समझे या मजहब का सही मतलब समझे तो मुझे लगता है कि आर्ट अभिव्यक्ति का सबसे बेहतर माध्यम है.
सूफिज्म हमें ये जरुर सिखाता हैं कि जिंदगी में तमाम चीजें बिखरती हैं, बिखर कर फिर टूटती हैं फिर बिखरती हैं, ये चलता रहता हैं सिलसिला, आप कभी न थे, न कोई आपका है. आपने कुछ किया नहीं जो किया वह ऊपर ने किया, और आप अपना बेस्ट दीजिए.
पैगाम दीजिए मोहब्बत का, इंसानियत का पैगाम. जो रुढिवाद देता है, ये सही है ये गलत है तो इन सबसे ऊपर उठे, तो ये पैगाम है जो आज के जमाने में, और ये एक ग्रेस भी दिखाता है इस्लाम में क्योंकि इसमें जो ग्रेस हैं वह बहुत खूबसूरत मीडियम है. क्योंकि जब आप सूफिज्म देखेंगे तो आप इस्लाम के असली मायने को समझते हैं. क्योंकि डिसेप्शनहर चीज को बहुत दूर रखती है.
उसकी बहुत सारी वजहें हैं मैं वह बात यहां नहीं करना चाहूंगी. हमें ऐसा लगता है कि सुफिइज्म और ये भक्तिइज्म में कोई फर्क नहीं है. किसी ने मंदिरों में किया किसी ने समां में किया कोई फर्क नहीं होता.
एक बार मैंने सोचा कि जियारत करने का बुलावा जब तक न आए, हम नहीं जाएंगे और हम घर पर सो गए. यकीन कीजिए हमें ख्वाब आया, और ऐसा ख्वाब आया हम सिहर गए. वह मैंने बनाया तो नहीं ख्वाब. तो कनेक्शन है. आप अगर इश्क करते हैं तो जरूरत नहीं कि आपको कोई मूर्ति मिली, मूर्ति ध्यान केंद्रित करने के लिए है. आपके मनन को, आपके चिंतन को, आपके निगाह को, आपकी पीड़ा को केंद्रित करना हैं तो आपने एक चीज बना दी.
मगर उस मूर्ति मे भी आप उसी मालिक की पूजा करते हैं. वह तो आकार से निराकारी है. जब हम आकार की बात करते है और निराकार हो जाता है तो हम सब उन्हीं की बात करते है. तो सभी निराकार है, हम शेप देते हैं तो ये बात कही गई है कि ना आदि था न अंत हैं. तो जो ये बोलते हैं कि आदि था अंत होगा तो वह गलत है. मेरा है कहना कि न आदि था न अंत है. न था न है वह होगा. हमेशा था हमेशा है हमेशा होगा.
(लिप्यंतरणः मोहम्मद अकरम)