डॉ सैयद फारूक: हिमालय ड्रग कंपनी के निदेश की प्रेरणास्त्रोत हैं ‘नानी आपा’

Story by  मोहम्मद अकरम | Published by  onikamaheshwari | Date 23-07-2024
Himalaya Drugs Director Dr Farooq with the King of Britain
Himalaya Drugs Director Dr Farooq with the King of Britain

 

मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली

डॉ सैयद फारूक, यह नाम है आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली मशहूर कंपनी हिमायल ड्रग के निदेशक का. यह स्वभाव से बेहद सरल और मृदु भाषी हैं और आज जो कुछ भी हैं, उनके जीवन पर उनकी नाना का बहुत ज्यादा प्रभाव है. डाॅक्टर सैयद फारूक अपनी नानी को ‘नानी आपा’ कहते थे और आज भी उनसे इस कदर प्रभावित हैं कि बचपन का जिक्र छिड़ते ही ‘नानी आपा’ की सौ कहानियां लेकर बैठ जाते हैं. इनसे जब आवाज द वाॅयस ने बातचीत की तो, उन्हांेने बचपन और नानी के कई किस्से सुनाए.

डॉ सैयद फारूक का जन्म 9 जनवरी 1955 को देहरादून में आयुर्वेदिक उपचार के एक प्रसिद्ध शोधकर्ता सैयद रशीद अहमद के परिवार में हुआ था. दिल्ली में उनकी रिहाईश ओखला है.
उन्होंने M.Sc, Ph.D, D.Sc की डिग्रियाँ हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविधालय से ली. इसके अलावा बिजनेस मैनेजमैंन्ट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा AIMA दिल्ली से किया.
 
 
यूनिवर्सिटीज जनरल ऑफ फाइटोकेमिस्ट्री एण्ड आयुर्वेदिक हाईट्स के मुख्य संपादक और समाज सेवक हैं. इसके अलावा तस्मीया ऑल इंडिया एजुकेशन एण्ड सोशल वेलफेयर सोसाइटी के चेयरमैंन हैं, साल 2004 में उन्हें पद्मश्री अवार्ड के लिए नामांकित किए गए. हिमालया ड्रग्स के निदेशक और कई डिग्री कॉलेजों और स्कूलों के संरक्षक हैं और कई राज्य और राष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों से जुड़े हुए हैं.
 
हिमालय ड्रग कंपनी बैंगलोर, भारत में स्थित एक भारतीय बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी है. इसे मूल रूप से 1930 में देहरादून में मोहम्मद मनाल द्वारा स्थापित किया गया था. जो हिमालय हर्बल हेल्थकेयर नाम से आयुर्वेदिक सामग्री युक्त स्वास्थ्य देखभाल उत्पादों का उत्पादन करती है. जिसका संचालन भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, मध्य पूर्व, एशिया, यूरोप और ओशिनिया में कई स्थानों पर फैला हुआ है जबकि इसके उत्पाद दुनिया भर के 106 देशों में बेचे जाते हैं. 
 
 
वे अपने बचपन के अतीत को यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि मेरा घर देहरादून था और मेरी नानी का घर मुज़फ़्फ़रनगर था. जहाँ हम गर्मियों की छुट्टियों में जाते थे. नानी के घर में पम्प से पानी आता था जिसका इस्तेमाल पड़ोस के सभी लोग करते थे और घर का एक हिस्सा मिट्टी का बना हुआ था जो मुझे बहुत पसंद था. वह उसकी सुगंधू खुशबू और गर्मी के दिनों में ठंडा रहता था.
 
हमें उसी में सुकून मिलता था, इसके अलावा मुझे याद है कि गर्मियों में हम जामुन के पेड़ की नीचे रात में मच्छरदानी लगा कर सोते थे और सुबह उठते थे तो मच्छरदानी पर पके-पके जामुन गिरे होते थे, जिसे खाने का लुफ्त ही अलग होता था.
 
शिकार करने पर कोई पाबंदी नहीं थी
 
बचपन की जिंदगी के पन्नों को पलटते हुए डॉ सैयद फारूक कहते हैं कि जब मैं छोटा था तो मुझे शिकार करने, घोड़ सवारी का का शौक था, घर से दूर चला जाता और शिकार करता था इस पर कोई प्रतिबंध नहीं था. मेरे पास बड़े बगिचे थे जिसमें कई प्रकार के आम पकते थे, न अब वह वक्त रहा न लोग रहे, न किसी के पास वक्त है, पूरी दुनिया एडवांस हो चुकी है. एक शेर है कि
 
"परिंदों, इस खामोशी को फ़िज़ाएं अमन मत समझो, शिकारी साद गर तीर व कमान खामोश बैठे हैं."
 
बच्चों से नफरत नहीं, दुआएं देते थे
 
जब मैं देहरादून के स्कूल में पढ़ता था तो एक दिन मैं टाई पहन कर स्कूल जाता था और रास्ते में कोई न कोई मिल जाता था. लोग रोक कर कहते थे के जरा ये पढ़ कर सुना देना, किया लिखा है. उसमें दो-चार पंक्तियाँ लिखी होतीं थीं. उस वक्त ये नहीं देखा जाता था कि बड़ो ने हमारी पिटाई कर दी है, हमें बुरा-भला कहा हो. उस वक्त लोग बच्चों से मुहब्बत करते थे. कविता की पंक्ति है कि
 
"रास्तों कहां गए वह लोग, जिन्हें हम आते जाते सलाम करते थे."
 
रास्ते पर चलते फिरते बुजुर्ग दुआएं देते थे. आज कल दुआ देने वाले कहां है, अब तो न लेने वाले हैं और न देने वाले. दाढ़ी सफेद नहीं होती है, अल्ला सफेदी उम्र के साथ बदल देता है, ये अमन की निशानी है. अल्लाह से दूसरो के लिए भी खैर की दुआ करनी चाहिए. 
 
"बाकी है अब भी शेख को हसरत ए गुनाह की, काला करेगा मुंह भी जो दाढ़ी स्याह की."
 
जब नानी बोली, मेरी तो अक्ल इनसे हैरान है
 
नानी से जुड़ी हुई बातों को याद करते हुए डॉ सैयद फारूक ने बताया कि मैं अपनी नानी को नानी आपा कहते थे वे बहुत सीधी-सादी खातून थीं. हम बच्चों के हर मकरों-फरेब को नानी आपा हकीकत मान लेती थीं और जब हकीकत सामने आती तो हमारी अम्मी से शिकायत करतीं कि नूरजहाँ तुम्हारे बच्चों को देख कर तो मेरी आँखें खुलती हैं और मेरी तो अक्ल इनसे हैरान है. 
 
नानी आपा खाली कभी नहीं बैठती थीं, कुछ न कुछ काम जरुर करती रहती थीं. अगर कोई काम न हुआ तो बच्चों के साथ बैठकर बातें करतीं और कहानियां सुनती लेकिन उन्होंने कभी कहानियाँ नहीं सुनायीं. 
 
नानी को चाट बहुत पसंद थी
 
नानी आपा को चाट बहुत पसंद थी अगर कभी नानी आपा बहुत ज्यादा खफा हो जातीं तो हम कहते कि अगर आप अम्मी से शिकायत न करें तो हम आपके लिए चाट ले आते हैं. फिर जैसे ही हम चाट लेकर पहुँचते तो नानी आपा खुश हो जातीं और कहतीं कि ठीक है चलो हमने माफ़ कर दिया लेकिन आगे से ऐसा न करना. 
 
“खावें चिड़ी के चोंगले फड़कावेंगे मोंछरियां”
 
डॉ सैयद फारूक अपने नाना की जिंदगी को याद करते हुए कहते हैं कि हमारी उम्र दस की थी जब नाना नियाज़ अहमद साहब का इन्तकाल हो गया, जिन्हें हम नाना अब्बा कहते थे. नाना अब्बा अंग्रजी दौर में पुलिस में थे, बहुत ही खुश मिजाज मिलनसार और बच्चों से मोहब्बत करने वाले इंसान थे. सुनाई अनी कहानियों में वे कुछ अजीबो गरीब जुमले इस्तेमाल करते थे.
 
 
उन्हीं में से एक जुमला जो कहानियों के दरमियान अक्सर आया करता था कि एक कौआ परिंदा से कहता था कि “खावें चिड़ी के चोंगले फड़कावेंगे मोंछरियां”. इनके साथ गुजारे लम्हों की यादें, चेहरा और इंतकाल का मंजर सब कुछ हमारे जेहन पर नक्श हैं. हमें अब तक याद है कि नाना अब्बा हमारे लिए अपने जेबी चाकू से पेंसिल तराशते थे जो शार्पनर से तराशे पेंसिल से कहीं बेहतर होती थी. 
 
आखिर में डॉ सैयद फारूक अपने परिवार सम्बंधित के बारे में कहते हैं कि हमारे सकड़ दादा सय्यद हामिद मदनी थे और वह व्यापारी थे. हमारे परदादा सय्यद मोहम्मद बरजन्जद मदनी शहर रुड़की सती मोहल्ले में रहते थे और कालीन का कारोबार करते थे. परदादी कश्मीर की थीं.
 
"हो सके तो बुजुर्गों का एहतराम करो, उन्हीं के हाथ में जन्नत की चाबी होगी."