'मन तड़पत हरी दर्शन को': मो. रफ़ी की मधुर आवाज़ की यादें आज भी ताजा

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 01-08-2024
Death anniversary: ​​'Man Tadpat Hari Darshan Ko': Memories of Mohammed Rafi's melodious voice are still fresh
Death anniversary: ​​'Man Tadpat Hari Darshan Ko': Memories of Mohammed Rafi's melodious voice are still fresh

 

-ज़ाहिद ख़ान

फ़िल्मी दुनिया में यूं तो अनेक गायक—गायिकायें हुई हैं, जिनके गायन के लाख़ों दीवाने हैं, मगर मोहम्मद रफ़ी का कोई जवाब नहीं. वह शहंशाह-ए-तरन्नुम थे. चाहे उनके गाये वतनपरस्ती के गीत ‘‘कर चले हम फ़िदा’’, ‘‘जट्टा पगड़ी संभाल’’, ‘‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’’, ‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’, ‘‘हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती’’ हों या फिर भक्तिरस में डूबे हुए उनके भजन ‘‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’’, ‘‘मन रे तू काहे न धीर धरे’’, ‘‘इंसाफ़ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’’, ‘‘जय रघुनंदन जय सियाराम’’, ‘‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’’ इस शानदार गायक ने इन गीतों में जैसे अपनी जान ही फ़ूंक दी है.

 दिल की अतल गहराईयों से उन्होंने इन गानों को गाया है. जनवरी, 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जब उन्होंने ‘‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’’ गीत गाया, तो इस गीत को सुनकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखें नम हो गईं थी.

बाद में उन्होंने मो. रफ़ी को अपने घर भी बुलाया और उनसे वही गीत की फ़रमाइश की. पं. नेहरू उनके इस गाने से इतना मुतास्सिर हुए कि स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ पर उन्होंने मोहम्मद रफ़ी को एक रजत पदक देकर सम्मानित किया.

मो. रफ़ी को अपनी ज़िंदगानी में कई सम्मान-पुरस्कार मिले, दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों ने उन्हें ढेर सारा प्यार दिया. लेकिन पं. नेहरू द्वारा दिए गए, इस सम्मान को वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते थे.

फ़िल्मी दुनिया के अपने साढ़े तीन दशक के करियर में मो. रफ़ी ने देश-दुनिया की अनेक भाषाओं में हज़ारों गीत गाये और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के क़दम वहीं ठिठक कर रह जाते हैं.


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 उनकी मीठी आवाज़ जैसे कानों में रस घोलती है. दिल में एक अजब सी कैफ़ियत पैदा हो जाती है. मो. रफ़ी को इस दुनिया से गुज़रे चार दशक हो गए, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में उन जैसा कोई दूसरा गायक नहीं आया. इतने लंबे अरसे के बाद भी वे अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते हैं.

हिंदी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले मो. रफ़ी की पैदाइश 24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुई थी. उन्होंने अपना पहला नग़मा साल 1941 में महज़ सतरह साल की उम्र में एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकॉर्ड किया था, जो साल 1944 में रिलीज हुई.

इस फ़िल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘‘सोनिये नी, हीरिये ने’’. संगीतकार श्याम सुंदर ने ही मो. रफ़ी को हिंदी फ़िल्म के लिए सबसे पहले गवाया. फ़िल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945 में रिलीज हुई.

उस वक़्त भी हिंदी फ़िल्मों का मुख्य केन्द्र बम्बई ही था. लिहाजा अपनी किस्मत को आजमाने मो. रफ़ी बम्बई पहुंच गए. उस वक़्त संगीतकार नौशाद ने फ़िल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे.

 उनके वालिद साहब की एक सिफ़ारिशी चिट्ठी लेकर मो. रफ़ी, बेजोड़ मौसिकार नौशाद के पास पहुंचे. नौशाद साहब ने रफ़ी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए. फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौक़ा उन्होंने रफ़ी को काफ़ी बाद में दिया.

नौशाद के संगीत से सजी ’अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फ़िल्म थी, जिसके गीत ’‘तेरा ख़िलौना टूटा’’ से रफ़ी को काफी शोहरत मिली. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म ’मेला’ (1948) का सिर्फ़ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘‘ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में’’, जो सुपर हिट साबित हुआ. इस गीत के बाद ही संगीतकार नौशाद और गायक मोहम्मद रफ़ी की जोड़ी बन गई.

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इतिहास गवाह है कि इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए. ‘शहीद’, ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘उड़नख़टोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’, ‘पाकीज़ा’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुग़ल-ए-आज़म’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘कोहिनूर’ जैसी अनेक फ़िल्मों ने नौशाद और मो. रफ़ी ने अपने संगीत-गायन से लोगों का दिल जीत लिया. जिसमें भी साल 1951 में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत, तो नेशनल एंथम बन गए.

 ख़ास तौर पर इस फ़िल्म के ‘ओ दुनिया के रख़वाले सुन दर्द’, ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ गानों में नौशाद और मोहम्मद रफ़ी की जुगलबंदी देखते ही बनती है. नौशाद के लिए मो. रफ़ी ने तक़रीबन 150 से ज़्यादा गीत गाए. उसमें भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित जो गीत गाए, उनका कोई मुक़ाबला नहीं.
 

मसलन ’‘मधुबन में राधिका नाचे रे’’ (फ़िल्म कोहिनूर)1950 और 60 के दशक में मोहम्मद रफ़ी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों मसलन शंकर जयकिशन, सचिनदेव बर्मन, रवि, रोशन, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, हेंमत कुमार, ओ.पी नैयर, सलिल चौधरी, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, ख़ैयाम, आर. डी. बर्मन, उषा खन्ना आदि के साथ सैंकड़ो गाने गाए। एक दौर यह था कि मो. रफ़ी हर संगीतकार और कलाकार की पहली पसंद थे.

 उनके गीतों के बिना कई अदाकार फ़िल्मों के लिए हामी नहीं भरते थे. फ़िल्मी दुनिया में मो. रफ़ी जैसा वर्सेटाइल सिंगर शायद ही कभी हो. उन्होंने हर मौके, हर मूड के लिए गाने गाए. ज़िंदगी का ऐसा कोई भी वाक़िआ नहीं है, जो उनके गीतों में न हो. मिसाल के तौर पर शादी की सभी रस्मों और मरहलों के लिए उनके गीत हैं.

‘‘मेरा यार बना है दूल्हा’’, ‘‘आज मेरे यार की शादी है’’, ‘‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब’’, ‘‘बाबुल की दुआएं लेती जा’’ और ‘‘चलो रे डोली उठाओं कहार’’. हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होने प्लेबैक सिंगिंग की, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग.

मो.रफ़ी के गीतों का ही जादू था कि कई अदाकार अपनी औसत अदाकारी के बावजूद फ़िल्मों में लंबे समय तक टिके रहे.सिर्फ़ गानों की बदौलत उनकी फ़िल्में सुपर हिट हुईं. रफ़ी साहब के गाने का अंदाज़ भी निराला था. जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है.

यक़ीन न हो तो भारत भूषण, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, देव आनंद, गुरुदत्त, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, ऋषि कपूर आदि अदाकारों के लिए गाये उनके गीतों को ध्यान से सुनिए-देखिए, आपको फ़र्क़ दिख जाएगा। किस बारीकता से मो. रफी ने इन अदाकारों की एक्टिंग और उनकी पर्सनेलिटी को देखते हुए गीत गाये हैं.

 मोहम्मद रफ़ी के लिए यह किस तरह से मुमकिन होता था ? इस बारे में उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘किसी भी फ़नकार के लिए गाने की मुनासिबत से अपना मूड बदलना बहुत ही दुश्वार अमल होता है. वैसे गाने के बोल से ही पता चल जाता है कि गाना किस मूड का है.

 फिर डायरेक्टर भी हमें पूरा सीन समझा देता है, जिससे गाने में आसानी होती है. कुछ गानों में फ़नकार की अपनी भी दिलचस्पी होती है. फिर उस गीत का एक-एक लफ़्ज़ दिल की गहराइयों से छूकर निकलता है.’’

मो. रफ़ी ने हज़ारों नग़में गाये, लेकिन उन्हें फ़िल्म ‘दुलारी‘ में गाया गीत ‘‘सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे.’’ बहुत पसंद था. यह उनका पसंदीदा गीत था. 1970 के दशक में मो. रफ़ी ने कई लाइव संगीत कार्यक्रमों में अपने गीतों का प्रदर्शन किया. इसके लिए वे पूरी दुनिया घूमे. मोहम्मद रफ़ी के यह सभी लाइव शो कामयाब साबित हुए.

 दुनिया भर में फैले मो. रफ़ी के प्रशंसक उनके गीतों के जैसे दीवाने थे. आज भी अपने देश से कहीं ज़्यादा उनके प्रशंसक, पूरी दुनिया में फ़ैले हुए हैं. ऐसी शोहरत बहुत कम लोगों को नसीब होती है.

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मो रफ़ी अपने गायन की वजह से अनेक पुरस्कार और सम्मानों से नवाज़े गए. हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘फ़िल्मफ़ेयर’ अवार्ड के लिए उन्हें 16 बार नॉमिनेट किया गया और छह बार उन्हें यह पुरस्कार मिला..

’चौदहवीं का चाँद हो तुम’ (फ़िल्म ’चौदहवीं का चाँद’, साल 1960), ’तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को’ (फ़िल्म ’ससुराल’, साल 1961), ’चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे’ (फ़िल्म ’दोस्ती’, साल 1964), ’बहारों फूल बरसाओ’ (फ़िल्म ’सूरज’, साल 1966), ’दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर’ (फ़िल्म ब्रह्मचारी, साल 1968) और ’क्या हुआ तेरा वादा’ (फ़िल्म ’हम किसी से कम नहीं’, साल 1977) के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला.

वहीं ’क्या हुआ तेरा वादा’ के लिए ही रफ़ी को पहली बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. साल 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा. 31 जुलाई, 1980 को महज पचपन साल की उम्र में मो. रफ़ी इस दुनिया से रुख़सत हो गए.