अरीफुल इस्लाम/ गुवाहाटी
वह एक असाधारण युवक है, जिसे दुनिया में केवल अंधकार ही दिखाई देता है. लेकिन पवित्र कुरान की रोशनी उसके दिल को रोशन करती है. युवक दृष्टिहीन है, लेकिन हाफ़िज़-ए-कुरान बन गया है. उसने अपने दोस्तों और शिक्षकों से पवित्र पुस्तक की आयतें सुनकर कुरान को याद किया है. यह अद्भुत युवक हाफ़िज़ इनामुल अली है, जो मध्य असम के कामरूप जिले के बालीकुची इलाके के तुलामती गाँव के कौसर अली और अफ़रोज़ा बेगम का बेटा है.
दृष्टिहीन होने के बावजूद इनामुल अली ने कुरान का हाफ़िज़ बनकर इलाके का नाम रोशन किया है. इमरान अली जन्म से अंधे नहीं थे. डेढ़ साल की उम्र में एक बीमारी के कारण उनकी आँखों की रोशनी चली गई थी.
आवाज़ - द वॉयस से बातचीत करते हुए हाफ़िज़ इनामुल अली ने कहा: "सबसे पहले, मैं सर्वशक्तिमान अल्लाह का शुक्रिया अदा करता हूँ. पवित्र कुरान अल्लाह का वचन है. यह हमारे पैगंबर मुहम्मद (उन पर शांति हो) के माध्यम से हमें प्रस्तुत की गई पुस्तक है.
जब मैं पहली बार मदरसे गया, तो मेरे शिक्षकों ने कहा कि तुम यह कर सकते हो, इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम नहीं कर सकते. मुझे अपने शिक्षकों को श्रेय देना चाहिए, अन्यथा मैं उनके साथ अन्याय करूँगा. उन्होंने मेरी बहुत मदद की है. उन्होंने भी हाफ़िज़ बनने के लिए उतनी ही मेहनत की है जितनी मैंने की है."
चूँकि इनामुल अली देख नहीं सकते, इसलिए उन्हें कुरान पढ़ने और याद करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. हालाँकि, उनके दृढ़ आत्मविश्वास और दृढ़ता ने इनामुल अली को एक अच्छा हाफ़िज़ बनने में मदद की. इमरान अपने शिक्षकों और सहपाठियों से कुरान की प्रत्येक आयत (पंक्ति) को बारीकी से सुनते थे और उसे बार-बार दोहराकर याद करते थे.
"मैंने इसे छोटे-छोटे हिस्सों में याद किया और शिक्षकों के सामने सुनाया. इस तरह लोगों की दुआओं और सम्मानित शिक्षकों की मदद से अल्लाह ने मुझे हाफ़िज़-ए-कुरान बना दिया.
शुरू में मैं दिन में 4-5 लाइनें पढ़ता था. बाद में मैं एक बार में 7-8 लाइनें पढ़ता था. मैं अपने शिक्षकों के सामने एक बार में अधिकतम 75 लाइनें ही सुना सकता था. मेरे दोस्तों ने भी मेरी बहुत मदद की. मेरे दोस्तों ने मुझे पढ़ाने में अपना ज़्यादातर समय लगाया, भले ही उन्हें अपनी पढ़ाई का समय निकालना पड़ा," हाफ़िज़ इनामुल अली ने कहा.
मदरसे के दिनों में इमरान के सहपाठी पढ़ाई के अलावा दूसरी गतिविधियों में भी उसकी मदद करते थे. इमरान के शिक्षक हर काम में उसकी मदद करने के लिए हमेशा उसके साथ एक सहपाठी को रखते थे. हालाँकि इनामुल अली दृष्टिहीन था, लेकिन वह किसी भी नई जगह पर दो दिन तक घूमने के बाद अकेले चलने में सक्षम हो जाता था.
हाफ़िज़ इनामुल अली ने कई मदरसों में हिफ़्ज़ कोर्स किया. उन्होंने सबसे पहले अपने घर के पास बैराहा शौलमारी हाफ़िज़िया मदरसे में पढ़ाई की. मदरसे में इमरान के पहले शिक्षक हाफ़िज़ कारी आफ़ताबुद्दीन अहमद थे. "उन्होंने मुझे पवित्र कुरान से परिचित कराया. फिर मैंने दरंग जिले के कटही गंगापुखुरी हाफ़िज़िया मदरसे में पढ़ाई की. फिर मैंने मराई हाफ़िज़िया मदरसे में पढ़ाई की. फिर मेरे एक दोस्त ने मुझे रंगिया के दारुल उलूम अशरफ़िया मदरसे में दाखिला दिलाया. मुझे वहाँ अपने शिक्षकों और दोस्तों से बहुत मदद मिली.
वहाँ मैंने हाफ़िज़ खैरुल इस्लाम के सामने कुरान का अपना याद किया हुआ हिस्सा सुनाया. हालाँकि वे मेरे गुरु थे, लेकिन उन्होंने मेरी बहुत मदद की. वहाँ, मुझे समनूर हाफ़िज़ साहब से भी बहुत मदद मिली. प्रिंसिपल नज़रुल हुज़ूर ने भी मेरा बहुत ख्याल रखा," इनामुल अली ने कहा. इमरान अली की मां अफरोजा बेगम ने कहा, "मेरे बेटे ने डेढ़ साल की उम्र में बीमारी के कारण अपनी आंखों की रोशनी पूरी तरह खो दी थी.
हमने पहले तो उसे स्कूल में भर्ती करवाया, लेकिन मैं सोचती रही कि हमें उसे हाफिज-ए-कुरान बनाना चाहिए.
अब मैं उसे हाफिज बनाने के लिए अल्लाह की शुक्रगुजार हूं. हमारे गांव के लोगों, शिक्षकों, उसके सहपाठियों और दोस्तों ने मेरे बेटे की बहुत मदद की है. हमारी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण लोगों ने आर्थिक रूप से भी हमारी मदद की है. हमने उसे 12 साल की उम्र में मदरसे में भर्ती करवाया.
पहले तो मैं चिंतित थी, लेकिन अब मैं अल्लाह की बहुत आभारी हूं. मुझे अल्लाह से जो चाहिए था, वो मिल गया." "अब जबकि मेरा बेटा सही उम्र का हो गया है, अगर हम उसकी शादी करवा पाएं तो हम सभी चिंताओं से मुक्त हो जाएंगे.
मैं ही जानती हूं कि एक मां के तौर पर मुझे कैसा महसूस होता था जब मैं अपने बेटे को बचपन में खाना परोसती थी और वह खाने में हिचकिचाता था? कई बार मैं टूट जाती थी. धीरे-धीरे जब वह बड़ा हुआ तो मेरे बेटे ने सब कुछ सीख लिया.
हालांकि एक मां के तौर पर मुझे दुख होता है, लेकिन अब वह खुद ही सब कुछ कर सकता है और हमें बार-बार उसके पास जाने की जरूरत नहीं है. अगर हम घर पर नहीं भी हैं तो भी वह खुद ही सब कुछ कर सकता है. जब मैं उसके बारे में सोचती हूं तो मैं भावुक हो जाती हूं," उसकी मां अफरोजा बेगम ने कहा.
अपने माता-पिता के अलावा इमरान अली खुद भी बचपन से हाफिज बनने का सपना देखते थे. इमरान अली हर साल रमजान के दौरान तरावीह की नमाज अदा करते हैं और द्विनी तब्लीग में भी शामिल होते हैं. भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने आवाज़ - द वॉयस से कहा कि वह भविष्य में एक अच्छे कारी बनना चाहते हैं.