आवाज द वाॅयस /नई दिल्ली
बानू मुश्ताक (Banu Mushtaq), कन्नड़ साहित्य की एक जानी-मानी और साहसी लेखिका, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज की विपरीत धारा के खिलाफ संघर्ष किया, इस समय अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित की गई हैं . उनके जीवन और लेखन ने न केवल साहित्यिक दुनिया को एक नई दिशा दी है, बल्कि यह समाज में महिलाओं के संघर्ष को भी उजागर किया है. मुश्ताक की ज़िंदगी की कहानी एक प्रेरणा है, जो यह बताती है कि कैसे उन्होंने पितृसत्ता, जातिवाद, धर्म और वर्ग के खिलाफ संघर्ष करते हुए अपनी पहचान बनाई.
बानू मुश्ताक का साहित्यिक योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है, खासकर उनके उन 12 लघु कथाओं के संग्रह "हार्ट लैंप" को लेकर, जो पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया द्वारा अप्रैल में प्रकाशित हो रहा है.
यह संग्रह 1990 से 2023 तक उनके द्वारा लिखी गई मुस्लिम और दलित महिलाओं की कहानियों को समेटे हुए है. मुश्ताक की लेखनी न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली है, बल्कि यह उन मुद्दों पर भी रोशनी डालती है जो भारतीय समाज में अक्सर अनदेखी की जाती है.
मुश्ताक ने 8 साल की उम्र में ही कन्नड़ में लिखना शुरू कर दिया था, और यही वह भाषा थी जिसमें उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा को पंख दिया.
इस यात्रा के दौरान उन्होंने समाज के तमाम रुढ़िवादी दृष्टिकोणों और अपनी पारिवारिक जकड़बंदी का मुकाबला किया, फिर चाहे वह उनकी ससुराल से होने वाली दबाव की स्थिति हो या समाज से मिलने वाली आलोचनाएँ.
मुश्ताक का नामांकन अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए पूरी तरह से अप्रत्याशित था, लेकिन उनके जीवन के संघर्ष और उनकी साहसिक लेखनी ने इस सफलता को अपरिहार्य बना दिया. उनका यह संघर्ष तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम यह जान पाते हैं कि उनके परिवार और समाज ने हमेशा उन्हें दबाने और उनकी स्वतंत्रता पर सवाल उठाने की कोशिश की थी.
बानू ने बताया, "मेरे परिवार वाले अक्सर मेरे पिता से कहते थे कि मेरी वजह से हमारी नाक कट जाएगी. अब मुझे उम्मीद है कि भले ही वे अब नहीं रहे, लेकिन मैंने इसके बदले में गौरव हासिल किया." यह बयान उनकी लेखनी की ताकत और उनके आत्मविश्वास को बखूबी दर्शाता है.
उनके जीवन में बहुत सी कठिनाइयाँ आईं, खासकर विवाह और मातृत्व के दौर में. मुश्ताक ने साझा किया कि किस तरह उनके प्रेम विवाह के बाद, उन्हें बुर्का पहनने और घर के कामों में समर्पित होने के लिए कहा गया था.
यह वह समय था जब वे 29 साल की उम्र में प्रसवोत्तर अवसाद से जूझ रही थीं. लेकिन इसके बावजूद, मुश्ताक ने खुद को कभी हारने नहीं दिया.
एक काव्यात्मक पल में, मुश्ताक ने एक आत्महत्या की कोशिश को याद करते हुए कहा, "एक दिन, मैंने अपने आप पर सफेद पेट्रोल डाल लिया था, जिसे घर पर घड़ियाँ साफ करने के लिए रखा जाता था. मेरे हाथ में माचिस की डिब्बी थी, और मैं जलाने के लिए तैयार थी, लेकिन मेरे पति ने मुझे रोक लिया."
यह पल उनके जीवन का मोड़ था, जिसने उन्हें खुद से और अपने जीवन के उद्देश्य से पुनः जोड़ दिया. उनके लेखन में इस तरह के अनुभवों का गहरा प्रभाव दिखाई देता है, जहाँ उन्होंने अपनी कहानियों में उन महिलाओं का चित्रण किया है जो पितृसत्ता, अव्यवस्थित जीवन और पारिवारिक दबावों से संघर्ष करती हैं.
मुश्ताक का साहित्य समाज में महिलाओं की स्थिति पर गहरी टिप्पणी करता है. उनके पात्र आमतौर पर उन महिलाओं के रूप में होते हैं जो अपने पतियों द्वारा दूसरी पत्नी लाए जाने के कारण दरिद्रता की स्थिति में पहुँच जाती हैं. ये महिलाएँ अपने पति की पुरुष उत्तराधिकारी की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ होती हैं और कई बार अपनी पूरी ज़िंदगी बच्चों की परवरिश में बिता देती हैं.
मुश्ताक का मानना है कि महिलाएँ अक्सर पुरुषों से ज़्यादा कठोर होती हैं, और वे अक्सर पुरुषों की जगह लेकर महिलाओं पर अत्याचार करती हैं. यह विचार उनके लेखन में गहरे समाजिक प्रश्नों को उठाता है.उनके साहित्य का यह विशेष पक्ष उनकी लेखनी को न केवल गहन और विचारशील बनाता है, बल्कि यह समाज के अंतर्निहित जटिलताओं को उजागर भी करता है.
बानू मुश्ताक को न केवल अपने परिवार से आलोचनाएँ मिलीं, बल्कि समाज के विभिन्न हिस्सों से भी उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा. एक बार, उनके दफ्तर में एक व्यक्ति ने उन पर चाकू से हमला किया था, जब तक कि उनके पति ने उसे निहत्था नहीं कर दिया. मुश्ताक ने बताया कि यह घटना उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से बहुत प्रभावित कर गई, लेकिन उनकी बेटी के दया के कारण मामले को आगे बढ़ने से रोक दिया गया.
मुश्ताक का कहना है कि मुस्लिम समुदाय ने उन्हें हमेशा बहिष्कृत करने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें लगता था कि वह उनकी समाजिक छवि को नुकसान पहुँचा रही हैं. इसके बावजूद, मुश्ताक ने कभी हार नहीं मानी और अपने विश्वासों और साहित्यिक दृष्टिकोण से समझौता नहीं किया.
बानू मुश्ताक का साहित्य न केवल भारतीय पाठकों में प्रसिद्ध हुआ, बल्कि उनकी कहानी "करी नगरगलु", जो एक मुस्लिम महिला के बारे में थी, को 2003 में एक फिल्म में रूपांतरित किया गया था. इस फिल्म में मुख्य भूमिका के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला था. लेकिन यह उनका अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार नामांकन ही था, जिसने उन्हें एक वैश्विक साहित्यिक आवाज़ के रूप में स्थापित किया.
दीपा भस्थी, जिन्होंने मुश्ताक के काम का अनुवाद किया है, कहती हैं, "समाज और धार्मिक कट्टरता की उनकी आलोचना बहुत सूक्ष्म है, उनके काम में यह एक ऐसा गुण है जिसकी मैं सबसे अधिक प्रशंसा करती हूँ."
बानू मुश्ताक की कहानी एक प्रेरणा है, जो हमें यह सिखाती है कि साहित्य केवल कागज और कलम तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह समाज की हर बुराई और अंधेरे को उजागर करने का एक शक्तिशाली साधन है.
उनकी लेखनी और जीवन के संघर्षों ने उन्हें न केवल भारतीय साहित्य में बल्कि वैश्विक स्तर पर एक अमिट छाप छोड़ी है. उनके द्वारा लिखी गई कहानियाँ न केवल महिलाओं के संघर्ष को दर्शाती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि एक महिला अपने आत्म-संघर्ष और सपनों की ओर बढ़ने के लिए क्या कुछ नहीं कर सकती.