मंजीत ठाकुर
कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने सिद्धातों और देशभक्ति के लिए हर तरह का बलिदान देने से एक पल के लिए भी नहीं सोचा. बाजी मोहम्मद गायब होती जा रही उस चमकदार जमात का हिस्सा हैं. वह उन महान सेनानियों में शामिल हैं जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिए सब कुछ होम कर दिया था.
बाजी मोहम्मद ओड़िशा के कोरापुट के उन कुछेक स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल थे, जिनकी बात का असर उनके जीवित रहने तक जनता पर होता था.
बाजी मोहम्मद के जीवन में अहिंसा और गांधीवाद का असर दिखता था. स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ ही बाजी मोहम्मद ओड़िशा के नबरंगपुर जिले के गोहत्या विरोधी लीग के लंबे समय तक प्रमुख भी रहे.
ओड़िशा के प्रखर नेता बीजू पटनायक उनके मित्र थे और आजादी के आंदोलन के दौरान 1947 में दोनों एक साथ कटक जेल में रहे थे.
आजादी के बाद बाजी मोहम्मद ने स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेना मंजूर नहीं किया था और बारह सालों तक उन्होंने पेंशन नहीं लिया. बाद में बीजू पटनायक ने उन्हें इस बात के लिए खूब डांटा, और जबरदस्ती पेंशन दिलवाई.
मशहूर पत्रकार पी. साईंनाथ ने अपनी किताब ‘द लास्ट हीरोज- भारतीय स्वतंत्रता के पैदल सैनिक’ नाम की किताब में बाजी मोहम्मद का जिक्र करते हुए लिखा है, “इस आदर्शवादी बुजुर्ग ने आखिरकार पेंशन स्वीकार की भी, तो उसका एक हिस्सा वे हर महीने आदिवासियों और दलितों के लिए संचालित एक स्कूल को देने लगे.”
बाजी मोहम्मद के पिता किसान थे और बाजी बीस बच्चों वाले परिवार में 19वें थे. उनकी पढ़ाई 1930 के दशक में हो रही थी. लेकिन वह मैट्रिक के आगे पढ़ नहीं पाए. वजह थीः उनके पैतृक गांव नबरंगपुर में आठवीं कक्षा के बाद कोई स्कूली शिक्षा उपलब्ध नहीं थी. आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें 40 किलोमीटर दूर जेपोर जाना होता, पर वहां तक जाने का एकमात्र रास्ता बैलगाड़ी था.
इस वजह से मोहम्मद जेपोर के एक छात्रावास में रहने लगे. उसी दौरान उनके गुरु रहे सदाशिव त्रिपाठी. सदाशिव त्रिपाठी बाद में ओड़िशा के मुख्यमंत्री भी बने. पर गुरु-शिष्य की यह जोड़ी अंग्रेजों को फूटी आंख न सुहाई और अंग्रेज शासन दोनों को बार-बार जेल भेजता रहा.
साईंनाथ लिखते हैं, “बाजी ने 1940 के दशक में कई जेलों में तीन साल से अधिक का समय बिताया. पर पहली बार छह महीने की सजा नबरंगपुर में ही काटी. आठ फुट गुणा दस फुट की उस कोठरी में सात-आठ और भी कैदी थे.”
बाजी मोहम्मद कांग्रेस में शामिल हो गए और कोरापुट जिले का अध्यक्ष बनने के बाद उन्होने 20,000 सदस्यों की भर्ती की. उनकी अध्यक्षता के समय इस इलाके में सत्याग्रह ने काफी जोर पकड़ लिया था.
कोरापुट से काफी कठिन रास्ता तय करने के बाद बाजी मोहम्मद महात्मा गांधी से मिलने सेवाश्रम, वर्धा पहुंचे थे. और उस मुलाकात ने उनका जीवन बदल दिया.
नबरंगपुर लौटकर बाजी मोहम्मद ने अपनी मस्जिदज के बाद अंग्रेजों के युद्ध अभियानों के खिलाफ सत्याग्रह छेड़ दिया. उनका कहना था कि ब्रिटिश युद्ध अभियानों में योगदान देना महापाप था. बाजी मोहम्मद को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया, उन्हें छह महीने की कैद हुई थी और 50 रुपए का जुर्माना लगाया गया था और उस वक्त यह कोई छोटी रकम नहीं थी.
पी. साईंनाथ की किताब में अपने साक्षात्कार में बाजी मोहम्मद ने खुद बताया हैः “भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 25 अगस्त, 1942 को हम सभी को गिरफ्तार कर लिया गया. नबरंगपुर के पापड़ाहांड़ी में पुलिस गोलाबारी में 19 लोगों की मौत हुई. कई लोग अपने घावों के कारण बाद में मर गए. 300 से ज्यादा लोग जख्मी हुए थे.”
मोहम्मद के मुताबिक, भारत छोड़ो आंदोलन में अकेले कोरापुट में ही 1,000 से अधिक लोगों को जेल भेज दिया गया था. कइयों को गोली मार दी गई. कोरापुट में 100 से अधिक लोग शहीद हुए थे. अंग्रेजों के विरोधी महान आदिवासी नेता वीर लखन नायक (लक्ष्मण नायक) को फांसी दे दी गई.
नायक और बाजी मोहम्मद जेल में आमने-सामने वाली कोठरी में थे.
आजादी के ठीक एक दिन पहले बाजी मोहम्मद को कटक जेल से रिहा कर दिया गया. उनके गुरु सदाशिव त्रिपाठी 1952 के चुनाव में विधायक बने, पर बाजी मोहम्मद खुद कभी चुनाव नहीं लड़े.
किताब में उन्हें उद्धृत किया गया है, “मैंने सत्ता या पद नहीं चाहा था.”
वह दशकों तक कांग्रेस के सदस्य रहे लेकिन बाद के वर्षों में उनका मोहभंग हो गया और वह कांग्रेस पार्टी से अलग हो गए. उन्होंने न सिर्फ विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में हिस्सा लिया, बल्कि बंधुआ मजदूरी के खिलाफ लड़ाई की.
कोरापुट में भूदान आंदोलन में बाजी मोहम्मद के नेतृत्व में हजारो एकड़ जमीन इकट्ठी की गई और भूमिहीन किसानों में बांटी गई. पी. साईंनाथ लिखते हैं, “वे खुद अपनी बड़ाई नहीं करते लेकिन उन्होंने अपनी 14 एकड़ जमीन भूमिहीनों में बांट दी थी.”
बाजी मोहम्मद सांप्रदायिक सद्भाव के असली सिपाही और पैरोकार थे. 2008 में कंधमाल जिले की सांप्रदायिक हिंसा के दौरान बाजी ने खुद हस्तक्षेप किया था और उसे रोकने में मदद की थी. तब वह 91 साल के थे.
बाजी मोहम्मद ने खुद शादी नहीं की थी. और 103 साल की उम्र में 27 जून, 2019 को उनका इंतकाल हो गया.
विरासतों को भुलाने में माहिर हिंदुस्तान में उनके नाम की सुध लेने वाला अब कोई नहीं है. नबरंगपुर में उनकी महज एक प्रतिमा भर लगी हुई है.
फोटो सौजन्य: पी. साईंनाथ