सर सैय्यद के बचाव में तर्क और उनका जवाब

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 17-10-2024
सर सैय्यद के बचाव में तर्क और उनका जवाबArguments in defence of Sir Syed and his reply
सर सैय्यद के बचाव में तर्क और उनका जवाबArguments in defence of Sir Syed and his reply

 

faiziडॉ. फैयाज अहमद फैजी 

सर सैय्यद को इस देश में नायक की तरह पेश किया जाता रहा है. लेकिन पसमांदा आंदोलन ने तथ्यों के आधार पर सर सैय्यद के राष्ट्र, इस्लाम,  लोकतंत्र, महिला एवं पसमांदा शिक्षा विरोधी, धुर साम्प्रदायिक, मध्ययुगीन सामंतवादी विचारधारा का वाहक एवं जातिवादी/नस्लवादी चरित्र को उजागर कर सारे मिथकों को ध्वस्त कर दिया. तो ऐसी सूरत में सर सैय्यद के बचाव में कुछ कुतर्क गढ़  भ्रम की स्थिति उत्पन्न करने का का प्रयोग किया जाने लगा.

जिसमें कुछ प्रमुख कुतर्क यूं हैं - किसी को बुरा कहने और गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा, सर सैय्यद ने जो कहा, लिखा और किया वो उनके साथ चला गया, उस ज़माने में संसाधनों की कमी के कारण सर सैय्यद ने पसमांदा और महिलाओं की शिक्षा पर अशराफ जातियो को वरीयता देना उचित समझा कि अगर एक बार अशराफ शिक्षित हो गया तो वह शिक्षा को उन तक पहुँचा सकता है जो इसका बोझ नही उठा सकते.

सर सैय्यद के समय शिक्षा को शासन, प्रशासन और सरकारी नौकरी में जाने का साधन समझा जाता था. उस समय की औरते विरले ही इस तरह की नौकरियों के लिए अभिरुचि थी. इसलिए  माना जाता है कि ऐसी स्थिति में  पुरुष शिक्षा को वरीयता दिए जाने को  सर सैय्यद द्वारा उचित समझना हितकर था.

आज उनके द्वारा स्थापित किया गया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ना जाने कितने लोग शिक्षा हासिल कर अपनी ज़िन्दगियों को सवार रहें हैं. यह सर सैय्यद का ही एहसान है कि आप जैसे लोग पढ़ लिख कर इस लायक हो गए गए है कि सर सैय्यद की आलोचना कर सकें.

यदि देखा जाए तो ये आपत्तियां बहुत सही मालूम होती है, लेकिन इसकी तह में जाने पर कुछ और ही बात सामने आती है. जिस से प्रतीत होता है कि यह आपत्ति दरअसल सर सैय्यद के नज़रिए और विचार को और मज़बूती प्रदान करने उनको इतिहास पुरुष, समाज सुधारक मुसलमानो का उद्धारक एवं नायक बनाये रखने और देशज पसमांदा समाज को दिग्भ्रमित करने की एक चाल भर है ताकि सर सैय्यद के आभामंडल और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से मुस्लिम नाम पर अशराफ वर्ग ने जो लाभ प्राप्त किया है, भविष्य में भी लाभ उठाने में कोई व्यवधान उत्पन्न ना हो. 

सर सैय्यद ने जो कुछ भी काम किया वो विदेशी मुस्लिम राजा, मुस्लिम नव्वाब, मुस्लिम जमींदार या एक शब्द में कहें तो अशराफ, की पहले से मज़बूत स्तिथि को और अधिक मज़बूती प्रदान करने के लिए किया. सर सैय्यद ये समझते थे कि मुस्लिमो (सर सैय्यद के नज़र में मुस्लिम सिर्फ अशराफ- सैय्यद,शेख,मुगल,पठान) ही थे,

वो उनको हमेशा मुस्लिम और मेरे भाई पठान, भाई सैय्यद नस्ल आदि कह के सम्बोधित करते थे, जबकि पसमांदा को शिल्पकार, जुलाहा, कसाई और बदजात(बुरी जाति वाला) ही कह कर सम्बोधित करते थे.

पसमांदा जातियों के नाम के साथ कभी  भी भाई शब्द नही जोड़ा) को अंग्रेज़ो से लड़ने के बजाय उनसे गठबंधन कर अपनी सत्ता और वर्चस्व को बनाये रखना चाहिए और इसके लिए वो अंग्रेज़ो द्वारा लायी गयी आधुनिक शिक्षा और तकनिक को अशराफ के सत्ता एवं वर्चस्व को बचाए एवं बनाए रखने के लिए एक जरूरी साधन समझते थे इसलिए उसको सीखना समझना अतिआवश्यक समझते थे.

सर्व विदित है कि बुरे कर्म और बुरे विचार को बुरा ही कहा जाता है. इसके वाहक को भी बुरा ही जाना पहचाना और समझा जाता है. इसके पीछे मंशा यही है कि समाज में यह बात स्पष्ट रहे कि क्या बुरा है और क्या अच्छा. जहाँ एक ओर अच्छे काम पर प्रशंसा, इनाम और उपहार है, वहीं दूसरी ओर बुरे काम पर डांट , अपयश और तिरस्कार है.

स्वयं ईश्वर ने क़ुरआन में  फरिश्ते अजाजील के बुरे काम को रद्द(निरस्त) करते  हुए फटकार  लगाई और उसे मरदूद(जिसकी बात को रद्द कर दिया जाय), मलऊन (दुत्कारा, फटकारा हुआ) इब्लीस (दुष्ट, ईश्वर की दया ने निराश) और शैतान (अवज्ञाकारी,उद्दंड) कहा है.

उस फरिश्ते का यही तिरस्कारी नाम इतने कुख्यात हुए कि आज कोई उसका असली नाम नहीं जानता. ठीक उसी प्रकार सर सैय्यद के कुविचारो और कुकृत्यों को रद्द करना उचित और आवश्यक है, जहाँ तक तिरस्कृत नाम की बात है आज सर सैय्यद का असली नाम "अहमद" गुम हो चुका है.

अहमद कहने पर कोई उसे सर सैयद नही समझेगा. जब कि सर सैय्यद का सर अंग्रेज़ो की दी हुई उपाधि  है और सैय्यद उनकी जाति का नाम है . खान भी अंग्रेज़ो की दी हुई उपाधि खान बहादुर का संक्षिप्त रूप है. शायद ईश्वर अपने अंतिम ईशदूत के नाम को अपयश से बचना चाहता हो, ज्ञात रहें कि ईशदूत मुहम्मद(स०)का एक प्रसिद्ध नाम अहमद भी है.  

रही बात गड़े मुर्दे उखाड़ने की तो ये देखना पड़ेगा कि क्या वाकई सर सैय्यद गड़े मुर्दे हैं ? उन्होंने जो कहा, लिखा और किया वो उनके साथ ही दफन हो चुका है ?, ऐसा हरगिज़ नही है. प्रत्येक वर्ष सर सैय्यद का जन्मदिन मनाना (अशराफ का एक बड़ा धड़ा इस्लाम के प्रवर्तक ईशदूत मुहम्मद के जन्मदिन को मनाना हराम और अनुचित कहता है लेकिन वही लोग सर सैय्यद का जन्मदिन बड़े ही जोश व उत्साह के साथ मनातें हैं) उनके कहे, लिखे और किये गये कार्यो की चर्चा करना ये साबित करता है कि सर सैय्यद का शरीर भले ही काल के गर्भ में समा चुका है.

उनकी विचार धारा को अभी भी परवान चढ़ाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है. अभी कुछ समय पहले उनकी लिखी किताब “असबाबे बगावते हिन्द” जो उनके देश-विरोधी, इस्लाम-विरोधी और पसमांदा-विरोधी विचारों का प्रतिनिधि है, का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया गया है. 

सर सैय्यद को आज भी अशराफ वर्ग यह प्रचारित करता है कि “सर सैयद हमारे माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल का हिस्सा हैं (सर सैयद हमारे भूत,वर्तमान और भविष्य का हिस्सा हैं). सर सैय्यद माज़ी का हवाला भी है और सुबहे उम्मीद भी ( सर सैय्यद भूतकाल का सन्दर्भ भी हैं और उम्मीद की सुबह भी).

सर सैय्यद के इंतेक़ाल को एक सदी से जायेद का अरसा हो चुका है मगर अभी तक उनका ख्वाब अधूरा है (सर सैयद को गुज़रे एक शताब्दी से अधिक हो चुका है मगर अभी तक उनका स्वप्न अधूरा है).  इस प्रकार बात साफ हो जाती है कि ना तो सर सैय्यद गड़े मुर्दे हैं और ना ही उनका विचार अब बीते समय की बात को चुकी है. 

संसाधनों की कमी सिर्फ एक सुन्दर बहाना के अतिरिक्त कुछ भी नही, दुनिया जानती है कर्मसिद्ध व्यक्तियों ने सदैव संसाधनों के अभाव और कमी में ही मानवता को राह दिखाई है, संसाधनों की कमी बता कर सिर्फ अशराफ को शिक्षित करना और ये कहना कि अशराफ फिर पसमांदा को शिक्षित करेगा ये एक कोरी कल्पना मात्र ही साबित हुआ.

अशराफ द्वारा मुस्लिम नाम पर संचालित किसी भी संस्थान और संगठन में पसमांदा की शिक्षा को लेकर किसी प्रकार की कोई नीति अब तक सामने नही आयी है, बल्कि पसमांदा को शिक्षा से दूर रखने की नई नई युक्तियाँ देखने को मिलती रहती है उदाहरण स्वरूप आधुनिक शिक्षा से रोकने के लिए धार्मिक शिक्षा पर बल देना और उसे मरने के बाद कि सफलता से जोड़ना, आधुनिक शिक्षा को शिक्षा ना मानकर उसे फन(कौशल) का नाम देना आदि.

महिलाओं में सरकारी नौकरी के प्रति अभिरुचि का ना होना एक ऐसा बहाना है जिस पर हँसी आती है. ऐसा कौन होगा जो किसी के सशक्तिकरण के साधन को सिर्फ इस बिना पर नकारना पसंद करें कि उसकी रुचि नही है, बचपन में बहुत से लोग ऐसे थे जिनकी पढ़ाई लिखाई में कोई दिलचस्पी नही थी, लेकिन फिर भी वो महान हुए और दुनिया को बहुत कुछ दिया, यदि सर सैय्यद का सिद्धान्त अन्य लोगों ने भी माना होता तो आज दुनिया आविष्कारों और नय विचारों से वंचित ही रह गयी होती.

जिस समय सर सैय्यद पसमांदा और महिलाओं की शिक्षा का ऊल जलूल बहाने बनाकर विरोध कर रहें थें लगभग ठीक उसी समय ज्योति राव फुले उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले शिक्षा का अलख जगाने में जी जान से लगे हुए थे.

आसिम बिहारी भारत भूमि के इतिहास के वो पहले महापुरुष हैं जिन्होंने प्रौढ़ शिक्षा एवं पसमांदा महिलाओं को शिक्षित करने की योजना बनाई. ज्ञात रहे कि आसिम बिहारी के नेतृत्व में चल रहे प्रथम पसमांदा आंदोलन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस) की महिला शाखा ने 1936 के आस पास केवल बिहार राज्य में लगभग सौ की संख्या में बालिकाओं के शिक्षा के लिए स्कूल खोले थे.

इसी आंदोलन के रज्जाक दम्पत्ति(अब्दुर रज्जाक अंसारी और उनकी पत्नी नफीरू निसा)  ने इरबा रांची के आसपास के इलाके में पसमांदा एवं आदिवासी बालिकाओं की शिक्षा के लिए लगभग 17 स्कूल खोले थे. रज्जाक जी ने इस काम के लिए अपनी अनपढ़ पत्नी नफरू निसा को शिक्षित किया, ताकि वो लड़कियों को पढ़ा सकें.

जहाँ तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में सब के पढ़ने की बात है, तो उसे भी समझ लेना चाहिए. एक तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय केंद्रीय विश्वविद्यालय है. उसका सारा खर्च देश के नागरिकों के द्वारा दिये गए कर से वहन किया जाता है.

यह किसी जाति विशेष या सम्प्रदाय विशेष की सम्पत्ति नही है. वहाँ भारत के प्रत्येक नागरिक को शिक्षा प्राप्त करने का बराबर अधिकार है. लेकिन हैरत ही बात है कि अन्य सरकारी विश्वविद्यालयों की तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पिछड़े दलित और आदिवासी के आरक्षण की व्यवस्था नही है.

हालांकि कई अन्य प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था है जैसे 50% आंतरिक आरक्षण जो वहाँ के छात्रों को अगली कक्षा में प्रवेश  के लिए मिलता है. ये पूरा मामला सीधा सीधा अशराफ के अल्पसंख्यक और मुस्लिम नाम पर अपना तुष्टिकरण करवा लेने की राजनीति का है.

संस्था के अल्पसंख्यक दर्जे की आड़ में आरक्षण ना देकर दलित, पिछड़े, आदिवासीे और पसमांदा को विश्वविद्यालय से दूर रखने का षणयंत्र है. एक बात अशराफ द्वारा यह भी समझायी जाती है कि अगर आरक्षण होता तो हिन्दू भी बड़ी संख्या में आ जातें और मुस्लिमो का बहुत बड़ा नुकसान हो जाता.

यह भी पसमांदा को बेवकूफ बनाकर अपने पीछे लामबंद करने का साधन भर है, अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में ज़्यादातर मुस्लिम ही पहुंचतें हैं . अगर आरक्षण होता तो मुस्लिमो की एक बड़ी संख्या लाभान्वित होती, ज्ञात रहें कि पसमांदा कुल मुस्लिम आबादी का 90% है, और अन्य पिछड़े वर्ग एवं अनुसूचित जन-जाति के आरक्षण में आता है.

अशराफ एक तीर से दो निशाने लगाता है. एक तो वो पसमांदा को हिन्दू का डर दिखा कर उसको उसके अधिकार से वंचित कर देता है और दूसरे हिन्दू नाम पर आदिवासी, दलित और पिछड़े को खारिज कर देता है। इस प्रकार बात साफ हो जाती है कि मुस्लिम नाम पर सिर्फ एक विशेष वर्ग को अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय से लाभ पहुँच रहा है.

ये भी कहा जाता है कि अब वहाँ पसमांदा भी पढ़ लिख रहा है, लेकिन ये समझने वाली बात है कि आरक्षण के अभाव में कितने पसमांदा अपने से सबल अशराफ से प्रतिस्पर्धा करके प्रवेश ले पाता होगा. बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में एक पसमांदा का प्रवेश लेना आसान है अपेक्षाकृत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के, क्यो की बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जन-जाति के आरक्षण का लाभ पसमांदा उठा सकता है.

और अगर पसमांदा अपनी मेहनत और लगन से अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में पढ़ ले रहा है तो ये सर सैय्यद का एहसान नही है बल्कि भारतीय संविधान और भारत सरकार के शिक्षा नीति का एहसान है. पसमांदा आंदोलन की यह माँग रही है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में सामाजिक न्याय का आरक्षण लागू किया जाय और वहाँ की हर तरह की संस्थाओ (कोर्ट आदि) में पसमांदा को उनकी आबादी के आधार पर सीटें आरक्षित किया जाय.

रही बात सर सैय्यद के योगदान और एहसान की जिसकी वजह से पसमांदा पढ़ लिख कर इस योग्य हो गया है कि वो सर सैय्यद की आलोचना कर सकें. तो यह बात सर्व विदित है कि सर सैय्यद पसमांदा के शिक्षा के धुर विरोधी थे.

अगर किसी का एहसान है तो वह भारत सरकार का, जिसने सभी की शिक्षा के लिए जगह जगह स्कूल कॉलेज और विश्व विद्यालय खोलें जहाँ पसमांदा भी पढ़ लिख सका. साथ ही साथ ज्योतिराव फुले का, और मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी का जिन्होंने पसमांदा के शिक्षा के लिए महती योगदान दिया है.

( लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं.यह लेखक के विचार हैं )